वेबसीरीज फार्मा का एक दृश्य 
स्वास्थ्य

वेबसीरीज समीक्षा : सेहत का बाजार और इंसान की कीमत

वेब सीरीज “फार्मा” दवा उद्योग की उस कड़वी सच्चाई को उजागर करती है, जहां मुनाफा इंसानी सेहत से बड़ा बन जाता है

Chaitanya Chandan

एक समय था जब फिल्मों को समाज का आईना माना जाता था. लेकिन समय के साथ फिल्मोंब का स्वरूप बदलता गया, और आज के डिजिटल दौर में वेब सीरीज ने न सिर्फ मनोरंजन के साधन के तौर पर स्वयं को स्थापित कर लिया है, बल्कि वे समाज के उन सच को भी सामने ला रही हैं, जो अक्सर चर्चा के केंद्र में नहीं रहते। जिओ हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रही मलयालम वेब सीरीज़ “फार्मा” इसी कड़ी की एक अहम पेशकश है। सात भाषाओं और 8 एपिसोड वाला यह सीरीज फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री की उस दुनिया को दिखाती है, जहां इलाज से ज्यादा मुनाफा मायने रखता है और जहां इंसान की सेहत कई बार सिर्फ एक आंकड़ा बनकर रह जाती है।

 भारत जैसे देश में दवाइयां जीवन और मृत्यु के बीच का फर्क तय करती हैं। ऐसे में दवा उद्योग से जुड़ी किसी भी कहानी का प्रभाव स्वाभाविक रूप से गहरा होता है। हाल ही में मध्य प्रदेश में नकली कफ सीरप पीने से 14 बच्चों की मौत इस वेब सीरीज की कहानी का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करती है, जहां मुनाफा को नैतिकता से ऊपर रखा गया।  

 “फार्मा” इसी संवेदनशील विषय को आधार बनाकर यह सवाल उठाती है कि क्या दवाइयों का कारोबार पूरी तरह नैतिक है, या इसके पीछे लालच, साठगांठ और सत्ता का खेल छिपा है। यह सीरीज सीधे किसी पर आरोप नहीं लगाती, बल्कि घटनाओं और किरदारों के ज़रिए दर्शक को सोचने पर मजबूर करती है।

“फार्मा” की कहानी कई परतों में आगे बढ़ती है। इसमें फार्मा कंपनियों के बड़े अधिकारी, डॉक्टर, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव, सिस्टम से जूझता आम आदमी और सत्ता के गलियारों में बैठे लोग—सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए दिखाई देते हैं। कहानी यह दिखाती है कि कैसे दवाइयों की कीमतें तय होती हैं, कैसे कुछ दवाओं को ज़रूरत से ज़्यादा प्रमोट किया जाता है और कैसे आम मरीज़ इन सबके बीच पिस जाता है।

"फार्मा" की कहानी के.पी. विनोद (निविन पॉली) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से आता है। वह एक बड़ी फार्मास्युटिकल कंपनी 'आरएक्स लाइफ हेल्थकेयर'  में एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव (एमआर) के रूप में अपना करियर शुरू करता है। शुरुआत में विनोद का लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना और अपनी माँ की बीमारी का इलाज कराना होता है।

अपने सख्त मैनेजर (बिनू पापू) के दबाव और कॉर्पोरेट जगत की चमक-दमक में विनोद जल्द ही नैतिकता को पीछे छोड़कर 'टारगेट' के पीछे भागने लगता है। वह बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए खतरनाक मानी जाने वाली दवा 'काइडॉक्सिन'  को भी डॉक्टर के पर्चे पर लिखवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है। लेकिन जब उसे इस दवा के भयानक दुष्प्रभावों का असलियत में पता चलता है तो उसकी अंतरात्मा जाग जाती है। यहीं से विनोद का एक 'कॉर्पोरेट मोहरे' से लेकर एक 'व्हिसलब्लोअर'  बनने का सफर शुरू होता है, जहां उसे भ्रष्ट डॉक्टरों और शक्तिशाली दवा माफियाओं से लड़ना पड़ता है।

कहानी की गति शुरू में थोड़ी धीमी है, लेकिन यह धीमापन दर्शक को किरदारों और परिस्थितियों को समझने का समय देता है। जैसे-जैसे एपिसोड आगे बढ़ते हैं, कहानी की पकड़ मजबूत होती जाती है और कई चौंकाने वाले मोड़ सामने आते हैं। “फार्मा” की सबसे बड़ी ताकत इसके किरदार हैं। यहां कोई भी पात्र पूरी तरह से अच्छा या बुरा नहीं है। हर किरदार की अपनी मजबूरियां, स्वार्थ और तर्क हैं। यही बात सीरीज को यथार्थ के करीब ले जाती है।

अभिनय, संवाद और निर्देशन

के.पी. विनोद के किरदार में निविन पॉली एक बेहद संजीदा और गहरे किरदार में नजर आए हैं। उन्होंने विनोद के चरित्र में आने वाले बदलावों को बहुत बारीकी से दिखाया है। एक डरे हुए फ्रेशर से लेकर एक सफल लेकिन भावनाशून्य कॉर्पोरेट प्रोफेशनल और अंत में एक न्याय के लिए लड़ने वाले योद्धा तक का उनका सफर सराहनीय है। डॉ. राजीव राव के रूप में रजित कपूर ने सीरीज को एक अलग वजन दिया है। एनजीओ 'जाथि' के प्रमुख के रूप में उनका शांत और स्थिर अभिनय निविन के किरदार को और भी मजबूती प्रदान करता है। डॉ. जानकी के रूप में श्रुति रामचंद्रन ने एक प्रभावी भूमिका निभाई है। उनका किरदार कहानी में एक 'उत्प्रेरक'  का काम करता है, जो विनोद को सच्चाई दिखाने में मदद करता है।

सीरीज के संवाद न सिर्फ सरल हैं, बल्कि लालच और मुनाफाखोरी की मानसिकता को प्रभावशाली तरीके से व्यक्त भी करते हैं. साथ ही सिस्टम की काली सच्चाइयों को भी उजागर करते हैं. एक दृश्य में फार्मा कंपनी का मैनेजर के. पी. विनोद से कहता है, “तुम सिर्फ अपने टारगेट पर ध्यान दो. बाजार में दवा बीमारी से नहीं बिकती, डर से बिकती है। अगर मरीज डरेगा नहीं तो तुम्हारी कंपनी का टर्नओवर कैसे बढ़ेगा?" इसी प्रकार, जब विनोद को अपनी गलती का अहसास होता है तो वह कहता है, “हम जो गोलियां लोगों को सेहत के नाम पर बांट रहे हैं, वो इलाज नहीं हैं... वो धीमी मौत के 'सब्सक्रिप्शन' हैं जो हमने बिना पूछे उनके नाम कर दिए हैं।" एक अन्य बेहद गहरा संवाद, "फार्मा कंपनियों के लिए कोई भी इंसान 'मरीज' नहीं होता, वो सिर्फ एक 'कस्टमर' (ग्राहक) होता है। और एक अच्छे बिजनेस का नियम है कि ग्राहक कभी खत्म नहीं होना चाहिए", दवा कंपनियों की मानसिकता को प्रदर्शित करता है।

 “फार्मा” का निर्देशन संयमित और गंभीर है। लेखन में रिसर्च की झलक साफ दिखाई देती है।निर्देशक और लेखक पी.आर. अरुण ने इस सीरीज के लिए अपनी जमीन अच्छी तरह तैयार की है। उन्होंने विषय की संवेदनशीलता को समझते हुए उसे सनसनीखेज बनाने से बचाया है। बताया जाता है कि अरुण खुद कभी मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव रह चुके हैं, जिसका असर सीरीज की बारीकियों में साफ दिखता है। डॉक्टरों के चैंबर के बाहर एमआर की लंबी लाइनें, गिफ्ट्स और स्पॉन्सरशिप के जरिए डॉक्टरों को लुभाना और दवाओं के ट्रायल की धांधली जैसे दृश्यों में प्रामाणिकता झलकती है।

फार्मा कंपनी से जुड़े किरदार सत्ता और मुनाफे के प्रतीक हैं, लेकिन उन्हें सिर्फ विलेन के रूप में पेश नहीं किया गया। वहीं डॉक्टरों के किरदार यह दिखाते हैं कि कैसे नैतिकता और सिस्टम के दबाव के बीच फँसकर सही-गलत की रेखा धुंधली हो जाती है। आम आदमी के किरदार दर्शक के साथ भावनात्मक जुड़ाव बनाते हैं और यह एहसास दिलाते हैं कि इस पूरे खेल का सबसे बड़ा नुकसान किसे उठाना पड़ता है।

 सीरीज में कलाकारों का अभिनय काबिल-ए-तारीफ़ है। संवाद अदायगी स्वाभाविक लगती है और भावनात्मक दृश्य बनावटी नहीं होते। खास बात यह है कि किसी भी किरदार को ओवरड्रामैटिक नहीं बनाया गया। सभी कलाकार अपने-अपने रोल में सहज दिखाई देते हैं, जिससे कहानी विश्वसनीय बनती है। ग्रे शेड वाले किरदारों को निभाना हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है, लेकिन यहां कलाकारों ने इसे बखूबी संभाला है। दर्शक कई बार खुद को दुविधा में पाता है कि किसके पक्ष में खड़ा हो और यही इस सीरीज की सफलता है।

सीरीज की सिनेमैटोग्राफी सरल लेकिन प्रभावशाली है। अस्पतालों, ऑफिस स्पेस और शहरी माहौल को वास्तविक रूप में दिखाया गया है। बैकग्राउंड म्यूजिक जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल हुआ है और कहीं भी कहानी पर हावी नहीं होता। एडिटिंग संतुलित है, हालांकि कुछ जगहों पर थोड़ी और कसावट लाई जा सकती थी।

 "फार्मा" केवल एक मेडिकल ड्रामा नहीं है, बल्कि यह व्यवस्था के खिलाफ एक आम आदमी की लड़ाई की कहानी है। यह सीरीज हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि जो दवाएं हमें जीवन देने के लिए बनाई गई हैं, क्या वे मुनाफे की हवस में हमारे लिए जहर बन रही हैं? 'फार्मा' केवल एक वेब सीरीज नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है। यह हमें सिखाती है कि स्वास्थ्य सेवा जब 'सेवा' न रहकर 'शुद्ध व्यवसाय' बन जाती है, तो समाज एक बड़े संकट की ओर अग्रसर होता है। कुल मिलाकर, “फार्मा” एक साहसी और ज़रूरी वेब सीरीज़ है। यह दवा उद्योग की उस सच्चाई को सामने लाने की कोशिश करती है, जिस पर आमतौर पर पर्दा पड़ा रहता है। धीमी गति के बावजूद, निविन पॉली का अभिनय और कहानी की गहराई आपको अंत तक बांधे रखती है।