वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि वातावरण में बढ़ता कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) का स्तर सार्स-कॉव-2 वायरस के लम्बे समय तक जीवित रहने में मददगार होता है। साथ ही इसकी वजह से वायरस के प्रसार और संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है।
गौरतलब है कि सार्स-कॉव-2 वही वायरस है, जिसकी वजह से दुनिया में कोरोना महामारी फैली थी।
बता दें कि कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) एक ऐसी गैस जो बड़े पैमाने पर जलवायु में होते बदलावों में योगदान दे रही है। ऐसे में उसके और वायरस के बीच संबंधों के जो नए खुलासे वैज्ञानिकों ने किए हैं, वो बेहद चिंताजनक हैं। रिसर्च के मुताबिक कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर यह निर्धारित कर सकता है कि सार्स-कॉव-2 वायरस वातावरण में कितने समय तक जीवित रह सकते हैं।
ऐसे में वातावरण में बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर को नियंत्रित करने से न केवल जलवायु पर बढ़ते जोखिम को कम करने में मदद मिलेगी। साथ ही वायरस के प्रसार और उसके संक्रमण के खतरे को भी कम किया जा सकता है। यह जानकारी ब्रिस्टल विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों के नेतृत्व में किए नए अध्ययन में सामने आई है, जिसके नतीजे जर्नल नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुए हैं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि कैसे कार्बन डाइऑक्साइड, हवा में घूमती छोटी बूंदों में मौजूद सार्स-कॉव-2 वायरस के जीवनकाल को बढ़ाने में मदद करता है।
यह तथ्य से पहले से ज्ञात है कि दूसरे वायरसों की तरह ही सार्स-कॉव-2, जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसके माध्यम से फैलता है। लेकिन ऐसा क्यों और कैसे होता है, रिसर्च में उसको समझाया गया है। साथ ही इसके प्रसार को रोकने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है, इसपर भी प्रकाश डाला है।
क्या है इसके पीछे का विज्ञान
रिसर्च के मुताबिक साफ ताजा हवा में सीओ2 की मात्रा कम होती है, जो वायरस को तेजी से निष्क्रिय करने में मदद करती है। ऐसे में भीड़-भाड़ वाले और ऐसे स्थानों पर जहां पर्याप्त हवादार जगह मौजूद नहीं है, वहां साफ हवा के लिए उठाए साधारण से दिखने वाले कदम, जैसे बंद कमरों में खिड़की, रोशनदान की व्यवस्था काफी फायदेमंद साबित हो सकते हैं।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि सार्स-कॉव-2 के अलग-अलग वेरिएंट की हवा में लम्बे समय तक जीवित रहने की क्षमता एक सी नहीं होती। हालांकि यह क्षमता हाल ही खोजे गए वेरिएंट, 'ओमिक्रॉन' में कहीं ज्यादा दर्ज की गई है, जो वातावरण में लंबे समय तक जीवित रह सकता है।
अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने कार्बन डाइऑक्साइड के 400 से 6,500 पीपीएम के स्तर में वायरस पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है। जिससे पता चला है कि वातावरण में सीओ का स्तर बढ़ने से वायरस के हवा में सक्रिय बने रहने का समय बढ़ जाता है। नतीजन वायरस के प्रसार का खतरा भी बढ़ जाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक वैश्विक स्तर पर कोरोना के 77,53,35,916 मामले सामने आ चुके हैं। इसकी वजह से हम अब तक करीब 70.5 लाख जिंदगियां खो चुके हैं।
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि जब सीओ2 का स्तर 800 पीपीएम तक बढ़ गया तो वायरस के हवा में बने रहने की क्षमता भी काफी बढ़ गई थी। यूके साइंटिफिक एडवाइजरी ग्रुप फॉर इमर्जेंसीज (SAGE) के मुताबिक, एक कमरे को अच्छी तरह हवादार माना जाता है जब सीओ2 का स्तर 800 पीपीएम से नीचे होता है।
इसके 40 मिनट बाद स्वच्छ हवा वाले कमरे की तुलना में जब कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 3,000 पीपीएम किया गया तो वहां हवा में संक्रामक वायरसों की उपस्थिति दस गुणा बढ़ गई थी। कार्बन डाइऑक्साइड का यह स्तर उतना ही है जितना एक भीड़ भरे कमरे में होता है।
इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डॉक्टर एलन हैड्रेल ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, 'यह सम्बन्ध इस बात पर प्रकाश डालता है कि कुछ परिस्थितियों में सुपर स्प्रेडर घटनाएं क्यों हो सकती हैं।
इससे जुड़े वैज्ञानिक पहलुओं को भी रिसर्च में उजागर किया गया है। इसके मुताबिक वायरस युक्त सांस के साथ मुक्त होने वाली बूंदों का उच्च पीएच यानी अम्लता वायरस को कम संक्रामक बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाती है।
वहीं जब कार्बन डाइऑक्साइड इन बूंदों के संपर्क में आती है तो वो एक एसिड की तरह काम करती है। इससे बूंदों का पीएच कम क्षारीय हो जाता है। इसकी वजह से वायरस के निष्क्रिय होने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है और वो लम्बे समय तक सक्रिय बना रहता है।
ऐसे में शोधकर्ताओं ने अध्ययन में जोर देकर कहा है कि खिड़की या रोशनदान खोलना कमरे में वायरस को कम करने का साधारण लेकिन कारगर तरीका है, क्योंकि यह वायरस को भौतिक रूप से हटा देता है और हवा में मौजूद बूंदों को वायरस के लिए कम अनुकूल बना देता है।
वातावरण में तेजी से बढ़ रहा कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर
हाल ही में किए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि इस सदी के अंत वैश्विक तौर पर हवा मौजूद सीओ2 का स्तर बढ़कर 700 पीपीएम से अधिक हो सकता है। जो आने वाले समय में बढ़ते खतरों की ओर इशारा करता है।
चूंकि यह गैस न केवल जलवायु में आते बदलावों की वजह बन रही है। साथ ही वातावरण में इसके स्तर में मामूली वृद्धि भी वायरस के अस्तित्व और प्रसार को काफी हद तक बढ़ा सकती है। अध्ययन में शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों को हासिल करने के वैश्विक प्रयासों के महत्व पर भी जोर दिया गया है।
शोधकर्ता एलन हैड्रेल ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि यह खोज न केवल इस बात पर प्रकाश डालती है कि कैसे सांस संबंधी वायरस फैलते हैं, बल्कि यह इस बात को भी उजागर करती है कि कैसे हमारे पर्यवरण में आया बदलाव भविष्य में महामारियों के खतरे को और अधिक बढ़ा सकता है।
रिसर्च इस पहलू को भी उजागर करती है कि जैसे-जैसे वातावरण में सीओ2 का स्तर बढ़ रहा है, उसकी वजह से सांस से जुड़े अन्य वायरस अधिक संक्रामक हो सकते हैं, क्योंकि इसकी वजह से वो लम्बे समय तक सक्रिय रह सकते हैं।
गौरतलब है कि वातावरण में बढ़ता कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर पहले ही नित नए रिकॉर्ड बना रहा है, जोकि पूरी मानवता के लिए खतरा है। ऐसा ही कुछ मई 2023 में भी देखने को मिला था, जब वातावरण में बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड ने पिछले आठ लाख वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया था।
वहीं नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) की मौना लोआ एटमॉस्फेरिक बेसलाइन ऑब्जर्वेटरी द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक 26 अप्रैल 2024 को कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़कर 428.59 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) पर पहुंच गया था। गौरतलब है कि ऐसा पिछले लाखों वर्षों में भी नहीं देखा गया है।