स्वास्थ्य

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने माना, दुनिया की 80 फीसदी आबादी आज भी कर रही है पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का इस्तेमाल

आज भी करीब 40 फीसदी दवाओं और फार्मास्युटिकल उत्पादों का आधार प्राकृतिक उत्पाद हैं

Lalit Maurya

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार आज भी दुनिया की करीब 80 फीसदी आबादी किसी न किसी रूप में पारम्परिक औषधियों का उपयोग कर रही हैं। जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि यह पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियां आज के आधुनिक युग में भी कारगर हैं। भारत, चीन और कई अफ्रीकी देशों में तो आज भी इनको बहुत अधिक महत्व दिया जाता है।

इस बारे में डब्ल्यूएचओ के 194 में से 170 सदस्य देशों ने जानकारी दी है कि वो आज भी स्वास्थ्य क्षेत्र में पारम्परिक औषधियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनके महत्त्व को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन आज 17 अगस्त 2023 से पारम्परिक औषधियों पर दो दिवसीय वैश्विक शिखर सम्मलेन का आयोजित कर रहा है। यह सम्मलेन गुजरात के गांधीनगर में हो रहा है, जिसकी सह-मेजबानी भारत कर रहा है।

इस उच्च-स्तरीय वैश्विक सम्मेलन में विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक व क्षेत्रीय निदेशक के साथ जी 20 देशों के स्वास्थ्य मंत्री शामिल होंगें। इस सम्मलेन के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़े सभी देशों से उच्च-स्तरीय सदस्यों को बुलाया गया है। साथ ही पारम्परिक औषधियों के विशेषज्ञ, स्वास्थ्यकर्मी और सिविल सोसायटी के सदस्य शामिल भी इस सम्मलेन में शामिल हो रहे हैं।

इस सम्मेलन में, स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों का सामना करने के साथ दुनिया भर में लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियां के उपयोग से सम्बन्धित, साक्ष्यों पर आधारित ज्ञान में निहित सम्भावनाओं पर विचार-विमर्श किया जाएगा।

सम्मलेन के दौरान वैज्ञानिकों और अन्य विशेषज्ञों के नेतृत्व में पारम्परिक चिकित्सा से जुड़े विभिन्न विषयों जैसे शोध, ज्ञान, नीतियों, साक्ष्यों, आंकड़ों, नवाचार और डिजिटल स्वास्थ्य के साथ ही जैव विविधता, समानता और मूल निवासियों के पारम्परिक ज्ञान पर तकनीकी चर्चा की जाएगी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉक्टर टैड्रॉस ऐडहेनॉम घेबरेयेसस ने प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि, "पारंपरिक चिकित्सा, स्वास्थ्य देखभाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। साथ ही यह सभी तक स्वास्थ्य व्यवस्था की पहुंच और स्वास्थ्य से जुड़े वैश्विक लक्ष्यों की पूर्ति में अहम और उत्प्रेरक भूमिका निभा सकती है।"

उन्होंने यह भी कहा कि पारंपरिक चिकित्सा को नवीनतम वैज्ञानिक साक्ष्यों की कसौटी पर परखकर समुचित और प्रभावी तरीके से स्वास्थ्य देखभाल की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है। इससे दुनिया भर में करोड़ों लोगों तक स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता में मौजूद खाइयों को भरने में मदद मिल सकती है।

बता दें कि पारम्परिक औषधि व चिकित्सा से तात्पर्य आदिवासी समुदायों व अन्य संस्कृतियों द्वारा सहेजे गए ज्ञान, कौशल व प्रथाओं के उन भण्डार से है, जिनका उपयोग स्वास्थ्य को बनाए रखने के साथ शारीरिक व मानसिक बीमारियों की रोकथाम, निदान व उपचार में किया जाता है।

प्रकृति पर आधारित है यह पारम्परिक ज्ञान

पारम्परिक एवं पूरक चिकित्सा पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 2019 में जारी वैश्विक रिपोर्ट से पता चला है कि दुनिया भर में उपयोग की जा रही पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों में, एक्यूपंक्चर, हर्बल दवाएं, स्वदेशी पारम्परिक चिकित्सा, होम्योपैथी, पारम्परिक चीनी चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा, कायरोप्रैक्टिक, ऑस्टियोपैथी, आयुर्वेद व यूनानी उपचार आदि शामिल हैं।

सदियों से पारंपरिक और पूरक चिकित्सा ने लोगों को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसने चिकित्सा और विज्ञान का मार्ग प्रशस्त किया है, जिससे आधुनिक चिकित्सा को आगे बढ़ने में मदद मिली। आज भी करीब 40 फीसदी दवाओं और फार्मास्युटिकल उत्पादों का आधार प्राकृतिक उत्पाद हैं। कई देशों में तो पारम्परिक और पूरक चिकित्सा, अनेक समुदायों की संस्कृति, स्वास्थ्य और बेहतर रहन-सहन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।

आपको जानकर हैरानी होगी कि एस्पिरिन और आर्टेमिसिनिन जैसी महत्वपूर्ण दवाओं की खोज पारंपरिक चिकित्सा से हुई है। गौरतलब है कि मलेरिया के इलाज के लिए 2.4 लाख तत्वों पर असफल परीक्षण के बाद, चीनी वैज्ञानिक तू योयो ने पारम्परिक चीनी चिकित्सा पर उपलब्ध पुस्तकों का रुख किया। जहां उन्हें बार-बार आने वाले बुखार के इलाज के लिए, मीठी कीड़ाजड़ी के बारे में जानकारी मिली।

उनकी टीम ने 1971 में इस मीठे वर्मवुड से एक सक्रिय यौगिक, आर्टेमिसिनिन को अलग किया, जो मलेरिया के इलाज में बहुत प्रभावी था। वर्तमान में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मलेरिया के इलाज के लिए आर्टेमिसिनिन को मान्यता दी है। 2015 में, तू योयो को, मलेरिया पर उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

इसी तरह ‘एस्पिरिन’ की बात करें, तो इसका आधार, विलो पेड़ की छाल है। यह दवा प्रकृति और पारम्परिक ज्ञान के समन्वय से आधुनिक चिकित्सा में हुई प्रगति की एक जीवन्त मिसाल है। गौरतलब है कि करीब साढ़े तीन हजार साल पहले, सुमेरियन व मिस्रवासी विलो पेड़ की इस छाल का उपयोग, दर्द को दूर करने के साथ सूजन को रोकने के लिए करते थे। बाद में, प्राचीन ग्रीस में इसे प्रसव के दौरान होने वाली पीड़ा को कम करने के साथ बुखार से निजात पाने के लिए किया जाने लगा।

1897 में, बेयर कैमिस्ट फेलिक्स हॉफमैन ने एस्पिरिन को अलग किया और इससे बनी दवा हर दिन लाखों लोगों का जीवन सुधारने या बचाने के लिए इस्तेमाल की जाने लगी। दिल के दौरे या स्ट्रोक को रोकने, रक्तचाप में सुधार, दर्द व सूजन से निजात पाने के साथ इसके अनगिनत फायदे सामने आ चुके हैं। वर्तमान में, एस्पिरिन दुनिया में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली दवाओं में से एक बन चुकी है।

देखा जाए तो यह वो खोजे हैं जिनके लिए वैज्ञानिकों ने पारम्परिक ज्ञान का सहारा लिया था। आज भी ऐसी न जाने कितनी दवाएं पारम्परिक तौर पर दुनिया भर में उपयोग की जा रही हैं।

डब्ल्यूएचओ के पारम्परिक चिकित्सा विशेषज्ञ परामर्श समूह की सह-अध्यक्ष डॉक्टर सुसन वीलैंड का कहना है कि 20 से अधिक नैदानिक ​​​​परीक्षणों से पता चला है कि योगा पीठ के पुराने दर्द व रीढ़ की हड्डी से जुड़ी समस्याओं के लिए बेहद प्रभावी है। वहीं जब दर्द से राहत की बात आती है तो यही बात एक्यूपंक्चर पर भी लागू होती है।" देखा जाए तो शोध से प्राप्त आंकड़े उन प्राचीन पद्धतियों के महत्व को रेखांकित करते हैं, जो आधुनिक समय में दुनिया भर में लोकप्रिय हो चुकी हैं।

आज जैसे-जैसे जीनोमिक्स और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसे नए विषय इस क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं, उसके साथ ही इससे जुड़े हर्बल दवाएं, प्राकृतिक उत्पाद, स्वास्थ्य और कल्याण से संबंधित उद्योग भी तेजी से अपने पैर पसार रहे हैं।

मौजूदा समय में डब्ल्यूएचओ के 170 सदस्य देशों ने इस बात की पुष्टि की है कि वो किसी न किसी रूप में पारंपरिक चिकित्सा का उपयोग कर रहे हैं। सरकारों ने, विश्व स्वास्थ्य संगठन से समर्थन देने का आग्रह किया है ताकि पारम्परिक चिकित्सा, उससे जुड़े तौर-तरीकों और उत्पादों के संबंध में निष्पक्ष नीतियां, मानक और नियम बनाने के विश्वसनीय तथ्यों व आंकड़ों को जुटाया जा सके। 

पारम्परिक चिकित्सा ने ना केवल स्वास्थ्य क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है, बल्कि साथ ही इसमें स्वस्थ भविष्य की संभावनाएं भी निहित है। नए शोध और अनुसन्धान, नई, सुरक्षित और चिकित्सकीय रूप से कारगर दवाओं की पहचान करने की क्षमता रखते हैं।

वहीं स्वास्थ्य देखभाल और चिकित्सा के क्षेत्र में जीनोमिक्स, निदान से जुड़ी उन्नत तकनीकें और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकियां, पारम्परिक चिकित्सा के क्षेत्र में नई संभावनाएं पैदा कर सकती हैं। हालांकि साथ ही वैश्विक स्तर पर पारंपरिक चिकित्सा के होते विस्तार को ध्यान में रखते हुए पारंपरिक उत्पादों और प्रक्रिया-आधारित उपचारों की सुरक्षा, प्रभावशीलता और गुणवत्ता पर नियंत्रण बनाए रखना भी स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बेहद अहम है।

देखा जाए तो केवल प्राकृतिक होने का मतलब, सुरक्षित नहीं होता। इसी तरह यदि किसी चीज का उपयोग सदियों से किया जा रहा है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वो उत्पाद प्रभावी हो होगा। ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों के तहत पारम्परिक औषधियों की सिफारिश के लिए और आवश्यक साक्ष्य प्रस्तुत करने के उद्देश्य से वैज्ञानिक पद्धतियों और प्रक्रियाओं को लागू किया जाना आवश्यक है।

ऐसे में अगले दो दिनों तक सभी की निगाहें गांधीनगर में होन वाले इस शिखर सम्मेलन पर रहेंगी, जिसके दौरान पारम्परिक चिकित्सा के अनुसन्धान और मूल्यांकन का जायजा लिया जाएगा।