स्वास्थ्य

कोविड-19: जर्जर ढांचे पर महामारी का बोझ

सरकार को ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे और इस तक सभी लोगों की नि:शुल्क पहुंच की अहमियत को महसूस करने के लिए महामारी का इंतजार नहीं करना चाहिए

Vibha Varshney

कोरोनावायरस के प्रसार ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच अंतर नहीं किया है। यह सिर्फ आसानी से प्रभावित होने वाले उन लोगों की तलाश करता है, जिनके पास अब तक इसके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता नहीं है। चूंकि महामारी की पहली लहर के दौरान ग्रामीण भारत काफी हद तक अछूता रह गया था, इसलिए वायरस को अपनी दूसरी लहर के दौरान वहां सहजता से शिकार होने वाले बहुत से लोग मिले। डाउन टू अर्थ के विश्लेषण से पता चलता है कि अप्रैल महीने में कोविड-19 के कुल मामलों में ग्रामीण जिलों की 45.4 फीसदी और मृत्यु में 50.8 फीसदी हिस्सेदारी थी। मई 2021 तक यह संख्या हिस्सेदारी और बढ़ गई। मई में पहली बार ग्रामीण जिलों ने कोविड-19 के मामलों और मौतों के मामले में शहरी जिलों को पीछे छोड़ दिया था। मई महीने में देश में जितने भी कोविड मामले आए उनमें ग्रामीण जिलों की 53 प्रतिशत और कोविड-19 संबंधी मृत्यु में 52 प्रतिशत की हिस्सेदारी रही।

वायरस की प्रकृति के कारण ही इसके फैलाव को टाल पाना असंभव था। मौजूदा समस्या इस तथ्य से जन्मी है कि ग्रामीण क्षेत्र सामान्य स्थितियों में भी बीमारियों से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, देश की 65 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण जिलों में रहती है। लेकिन, ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में देश भर के सभी सरकारी अस्पतालों के सिर्फ 37 प्रतिशत बिस्तर ही उपलब्ध हैं। 2019 नेशनल हेल्थ प्रोफाइल ऑफ इंडिया और केंद्रीय स्वास्थ्य सतर्कता ब्यूरो की रिपोर्ट में भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है।

यह समस्या इस सच्चाई से भी उपजी है कि देश बार-बार की चेतावनियों और सलाह के बावजूद अपने ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल ढांचे को मजबूत करने में विफल रहा है। कोविड-19 महामारी और संबंधित मुद्दों के प्रबंधन पर 21 दिसंबर 2020 को राज्यसभा के सभापति को सौंपी गई संसदीय समिति की एक रिपोर्ट ने इस बीमारी के ग्रामीण इलाकों में पहुंचने की आशंका का संकेत दिया था। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को दूरस्थ और ग्रामीण क्षेत्रों में जांच और उन्नत स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे को सुनिश्चित करने की सलाह भी दी थी।

इसके पहले 21 नवंबर 2020 को भी राज्यसभा में महामारी कोविड-19 का प्रकोप और प्रबंधन नाम वाली संसदीय समिति की एक अन्य रिपोर्ट पेश की गई थी। इस रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर स्थिति को सामने रखा गया था और सिफारिश की गई थी कि सरकार को महामारी के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत अपना खर्च बढ़ाना चाहिए। सिर्फ मई 2021 के महीने में केंद्रीय स्तर पर कुछ पहलकदमी दिखाई दी। 16 मई 2021 को केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने “उप-शहरी, ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में कोविड-19 की रोकथाम और प्रबंधन” के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) जारी की। एसओपी ने ग्रामीण क्षेत्रों में जरूरी तैयारियों को सामने रखा और राज्यों की तरफ से रोगियों की निगरानी, स्क्रीनिंग, आइसोलेशन और रेफरल के लिए जरूरी प्रयासों के बारे में बताया गया। इसने एक त्रि-स्तरीय ढांचे का प्रस्ताव रखा। इसमें हल्के और बिना लक्षण वाले मामलों के प्रबंधन के लिए कोविड देखभाल केंद्र, मध्यस्तरीय मामलों के प्रबंधन के लिए समर्पित कोविड स्वास्थ्य केंद्र और गंभीर मामलों के प्रबंधन के लिए समर्पित कोविड अस्पताल शामिल थे।

एसओपी को लागू करना मुश्किल नहीं होना चाहिए था क्योंकि भारत में पहले से ही तीन स्तरीय स्वास्थ्य प्रणाली- प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक मौजूद है। फिर स्थिति इतनी विकराल हुई क्यों? दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में प्रोफेसर रितु प्रिया बताती हैं कि एक स्वास्थ्य प्रणाली जो आम समय में भी ठीक काम नहीं करती है, उस व्यवस्था के महामारी और दबाव वाले वक्त में काम कर पाने की कोई संभावना नहीं है। इसके अलावा एसओपी दस्तावेज केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ग्रामीण भारत के लिए तात्कालिकता की भावना को प्रतिबिंबित नहीं करता। वह कहती हैं कि इस (एसओपी) की शुरुआत ही “देश में कोविड-19 का प्रकोप अब भी मुख्य रूप से एक शहरी समस्या है” लाइन के साथ होती है।

एसओपी दस्तावेज यह भी उल्लेख करता है कि कोविड-19 से प्रभावित 80-85 प्रतिशत लोगों को किसी विशेष देखभाल की जरूरत नहीं है और उन्हें घर पर या कोविड देखभाल केंद्रों में रखा जा सकता है। लेकिन शेष 15-20 प्रतिशत कोविड-19 संक्रमित व्यक्तियों के लिए उपचार सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे- सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों, उप-जिला और जिला अस्पतालों और परिवहन सुविधाओं में व्यापक सुधार करने की जरूरत है। लेकिन यह उस स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए अकल्पनीय था, जो दशकों से आर्थिक तंगी में उलझी है।

भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च (केंद्र और राज्य का व्यय मिलाकर) 2008-09 और 2019-21 के बीच सकल घरेलू उत्पाद के 1.2 प्रतिशत और 1.8 प्रतिशत के बीच बना हुआ है। यह चीन (3.2 प्रतिशत), अमेरिका (8.5 प्रतिशत) और जर्मनी (9.4 प्रतिशत) जैसे अन्य देशों के मुकाबले काफी कम है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जो सभी के लिए एक समान, किफायती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुंच प्राप्त करने की परिकल्पना करता है, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बजटीय आवंटन का लगभग 50 प्रतिशत ही पाता है। लेकिन इसमें बुरा यह है कि ग्रामीण क्षेत्र (राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन) के लिए आवंटन में पिछले साल से तीन प्रतिशत की कटौती कर दी गई है।

वास्तव में 2014 के बाद से सरकार का ध्यान निजी क्षेत्र के भरोसे स्वास्थ्य सेवाएं देने पर केंद्रित हो गया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (2017) में निजी क्षेत्र की साझेदारी से स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने की परिकल्पना की गई है। प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजीएवाई), केंद्र सरकार की फ्लैगशिप योजना आयुष्मान भारत का एक घटक, एक बीमा-आधारित योजना है, जिसमें 2020-21 के लिए आवंटन में 100 प्रतिशत (2019-20 में 3,200 करोड़ रुपए के संशोधित अनुमान की तुलना में 6,400 करोड़ रुपए) की बढ़ोतरी देखी गई है, जो सर्वाधिक है।

सरकारी वित्तपोषण वाली बीमा योजनाओं के जरिए निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं पर इस निर्भरता की निरर्थकता महामारी के दौरान प्रत्यक्ष हो गई है। ग्रामीण इलाकों में निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र सक्रिय नहीं है। यहां तक कि जो अस्पताल मौजूद हैं उन्होंने भी महामारी के दौरान कोविड रोगियों की देखभाल से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं राज्यस्तरीय बीमा योजनाओं ने भी बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में एक सार्वभौमिक स्वास्थ्य योजना खूबचंद बघेल स्वास्थ्य सहायता योजना लागू है। महामारी के दौरान इस योजना को प्रत्येक कोविड-19 संक्रमित व्यक्ति के काम आना चाहिए था, चाहे वह ग्रामीण क्षेत्रों का हो या शहरी। लेकिन निजी अस्पतालों ने इसे लागू करने से ही इनकार कर दिया। जन स्वास्थ्य अभियान (जेएसए) की राष्ट्रीय संयुक्त संयोजक और वैश्विक नेटवर्क पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट की सह-अध्यक्ष सुलक्षणा नंदी ने बताया कि इसकी जगह पर कई अस्पतालों ने रोगियों से ज्यादा पैसे वसूलने के लिए कोविड के इलाज के लिए प्लाज्मा थेरेपी और अन्य अवैज्ञानिक व अप्रमाणित नए तरीके खोज निकाले, जो रोगियों पर प्रभावी ही नहीं थे।

सरकार ने निजी क्षेत्र से सेवाएं देने की मांग भी नहीं की जबकि वह कानूनी रूप से महामारी रोग अधिनियम, 1897 के तहत ऐसा कर सकती थी। केरल इसका अपवाद जरूर है। गरीबों की आपबीती बताती है कि बीमा कार्ड की सुविधा होने और मुफ्त व गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक प्रभावी पहुंच के बीच कोई तारतम्य नहीं है। महामारी के दौरान कोई मदद देने में निजी क्षेत्र की इस विफलता से सीखने के बजाए, भारत के प्रमुख थिंक टैंक नीति आयोग ने 31 मार्च, 2021 को भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश के अवसरों पर एक रिपोर्ट जारी की है, जो निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर केंद्रित है।

नंदी ने कहा, “केंद्र और नीति आयोग को स्वास्थ्य सेवा के निजीकरण की सभी योजनाओं, जैसे कि पीएमजेएवाई और जिला अस्पतालों को निजी मेडिकल कॉलेजों को सौंपना, को छोड़ देना चाहिए और इसकी जगह पर सारा पैसा और प्रयास सभी स्तरों पर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मजबूत करने के लिए लगा देना चाहिए।”

खंडहर जैसी हालत

महामारी के दौरान प्रदर्शन में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता का प्रमुख कारण बुनियादी ढांचे का अभाव है। यह कमी भौतिक संरचनाओं और मानव संसाधनों दोनों ही मामले में बनी हुई है। 2018 तक भारत को 2,188 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी), 6,430 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और 32,900 उप-केंद्रों की कमी का सामना करना पड़ रहा था। अभी जो अस्पताल मौजूद भी हैं, उनके पास पर्याप्त बुनियादी ढांचा नहीं है और उनमें बुनियादी-सामान का बहुत ही अभाव है। विश्व बैंक के एक विश्लेषण के मुताबिक, 2017 में भारत में प्रति 1,000 लोगों पर सिर्फ 0.5 बिस्तर थे, जो 2.9 बिस्तरों के वैश्विक औसत से काफी कम था। चौंकाने वाली बात है कि महामारी के दौरान ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढांचा अपनी सीमा तक खिंच चुका है।

जेएसए के सह-संयोजक अभय शुक्ला ने कहा, “महाराष्ट्र के कुछ आदिवासी इलाकों में पूरे ब्लॉक में एक भी ऑक्सीजन बेड नहीं है। एक भी बिस्तर मिलने का भरोसा न होते हुए भी यहां के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ी। आमतौर पर स्वास्थ्य सुविधा तक जाने के दौरान रास्ते में ही तबीयत और ज्यादा बिगड़ गई।” जिन आइसोलेशन सेंटर्स ने पहली लहर में अच्छा काम किया था, उन्हें दूसरी लहर में दोबारा नहीं बनाया गया। शुक्ला कहते हैं, “ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड से बचाव के लिए जरूरी व्यवहार का पालन सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत आइसोलेशन सेंटर होना महत्वपूर्ण है।” उन्होंने कहा कि संकट के ऐसे समय में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को मजबूत करना काफी आसान है। संभावित रूप से प्रत्येक ग्रामीण स्कूल को एक आइसोलेशन सेंटर में बदला जा सकता है, तब आशा और एएनएम के माध्यम से निगरानी की जा सकती है। यह सार्वजनिक स्वास्थ्य का एक उपाय है, जिसे शीर्ष अधिकारियों के निर्देश के साथ लागू किया जाना है और निगरानी होनी है। इसी तरह राज्य के प्रत्येक तालुका में 30 बिस्तरों वाले अस्पताल हैं, जिनमें से कुछ को आसानी से ऑक्सीजन युक्त बिस्तरों में बदला जा सकता है। नंदी ने कहा, “छत्तीसगढ़ में महामारी के दौरान कई सरकारी सुविधाओं को सुधारा गया है और वे बहुत अच्छा काम कर रही हैं।”

इसके अलावा डॉक्टरों, विशेषज्ञों और सर्जनों की कमी भी है। उदाहरण के लिए 2018 तक, 46 प्रतिशत डॉक्टरों और 82 प्रतिशत विशेषज्ञों की कमी थी, जिनमें सर्जन, प्रसूति विशेषज्ञ, स्त्री रोग विशेषज्ञ, चिकित्सक और बाल रोग विशेषज्ञ शामिल थे, जिनकी पूरे भारत की पीएचसी में जरूरत थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) प्रति 10,000 की आबादी पर 44 स्वास्थ्य कर्मियों की सिफारिश करता है लेकिन भारत में प्रति 10,000 की आबादी पर सिर्फ 22 स्वास्थ्यकर्मी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य कर्मियों की मौजूदगी राष्ट्रीय औसत से भी कम है।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2019-20 बताती है कि राष्ट्रीय स्तर पर उप-केंद्रों में 11 प्रतिशत एएनएम (प्रशिक्षित महिला स्वास्थ्य कर्मी) और पुरुष स्वास्थ्य कर्मियों के लिए स्वीकृत पदों में से 35 फीसदी खाली हैं। इसी तरह स्वास्थ्य सहायकों के 37 फीसदी और पीएचसी के डॉक्टरों के 20 फीसदी पद भरे ही नहीं गए थे। यहां तक कि नर्सों की संख्या 13 फीसदी और आयुष (आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध, सोवा-रिग्पा और होम्योपैथी) डॉक्टरों की संख्या नौ प्रतिशत कम थी। महाराष्ट्र जैसे संपन्न राज्य में भी सबसे अहम स्वास्थ्यकर्मी गायब हैं, जहां उप-केंद्र स्तर पर एएनएम के लिए स्वीकृत पदों की संख्या 11,975 थी। इनमें सिर्फ 10,492 पद ही भरे थे। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे गरीब राज्यों की स्थिति बहुत ही खराब थी। उत्तर प्रदेश में 23,656 स्वीकृत पदों में से सिर्फ 20,389 ही भरे गए थे, जबकि बिहार में 20,544 स्वीकृत पदों में से सिर्फ 13,425 पदों पर ही नियुक्ति थी।

आशा और अन्य फ्रंटलाइन वर्कर्स ने महामारी की पहली लहर के दौरान अच्छा काम किया था, लेकिन उन्हें पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी गई इसलिए उनमें से कई कोविड-19 की चपेट में आ गए। शुक्ला ने बताया कि पुणे, महाराष्ट्र में आशा कार्यकर्ताओं को उनके अतिरिक्त काम के लिए कोई भुगतान या पारिश्रमिक नहीं दिया जा रहा है। वहीं, नंदी का कहना है कि छत्तीसगढ़ में मितानिन (महिला स्वास्थ्य स्वयंसेवी) महामारी की शुरुआत से ही समुदाय के बीच बिना रुके हुए काम कर रही हैं, लेकिन उन्हें न तो पारिश्रमिक दिया गया है और न ही पर्याप्त सुरक्षा उपकरण ही मुहैया कराए गए हैं, इसलिए वे दूसरी लहर के दौरान हतोत्साहित, निराश, बीमार और डरी हुई हैं।



सामुदायिक एकजुटता की ताकत

भारत में कोविड-19 के खिलाफ प्रतिक्रिया और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने के लिए इन सामुदायिक स्तर के स्वास्थ्य कर्मियों की जरूरत है। कुछ राज्यों ने ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के कामकाज में सुधार लाने के प्रयास किए हैं। उदाहरण के लिए 17 मई, 2021 को ओडिशा सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को सुरक्षात्मक उपकरणों को खरीदने के लिए 10,000 रुपए की एकमुश्त मदद देने का निर्देश दिया था।

रितु प्रिया ने कहा कि इस लड़ाई में ग्रामीण इलाकों के बिना डिग्री वाले डॉक्टरों को भी शामिल करने की जरूरत है। ये डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराते हैं। पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने इस क्षमता को लेकर जागरुकता दिखाई है। राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवाएं देने वाले ऐसे लोगों को सूचीबद्ध कर रही है, जिन्हें आधिकारिक तौर पर ग्रामीण स्वास्थ्य परिसेवक की मान्यता दी जा रही है और ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 का प्रसार रोकने के लिए, विशेष रूप से होम आइसोलेशन में रोगियों की बढ़ती संख्या को परामर्श देने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। पुणे में स्थित एक गैर लाभकारी संस्था सपोर्ट फॉर एडवोकेसी एंड ट्रेनिंग टु हेल्थ इनिशिएटिव्स (साथी) ने दूसरी लहर के दौरान रोगियों को जांच और टीकाकरण के लिए कहां जाना है, और कौन सा इलाज लेना है, इसकी जानकारी देने के लिए 30 हेल्प डेस्क बनाए हैं। यह बहुत मददगार रहा है, क्योंकि मौजूदा कर्मचारी पहले से ही उपचार के काम लगे हुए हैं और इसे पूरे देश में आसानी से बनाया जा सकता है।

केरल जैसे राज्यों जिन्हें पहले से महामारी से निपटने का कुछ अनुभव था, उन्होंने प्रकोप के फैलाव को रोकने और स्वास्थ्य सेवा वितरण में नागरिक समाज की भागीदारी की वजह से कोविड-19 नियंत्रण में बेहतर प्रदर्शन किया है। किसी राजनीतिक और धार्मिक अड़चन के बगैर अग्रिम मोर्चे पर काम करने वाले लोगों और सामुदायिक नेताओं के बीच टीम अपने आप बन गई, क्योंकि लोगों को 2009 में एच1 एन1, 2018 में निपाह और 2019 में लेप्टोस्पाइरोसिस वायरस के प्रकोप से निपटने का अनुभव था। कोच्चि के जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के स्वतंत्र पर्यवेक्षक एंटोनी केआर ने बताया, “केरल ने 2008 से विकेंद्रीकृत नियोजन के लिए जन अभियान के माध्यम से स्वयं सेवियों को जोड़ने की सुविचारित रणनीति को अपना लिया था। इसी वजह से वर्तमान में 45,000 रजिस्टर्ड स्वयंसेवी कोविड-19 की रोकथाम से जुड़ी गतिविधियों में केरल सरकार की मदद कर रहे हैं।

मदद करने वाले स्वयंसेवी की यह संख्या राज्य में 26,310 आशा, 33,115 आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और आस-पड़ोस की महिलाओं के लिए संचालित योजना कुटुंबश्री बैनर के तले 45.4 लाख महिला उद्यमियों के अतिरिक्त हैं। इसके अलावा ग्राम पंचायतों, नगर निगमों या परिषदों के 21,682 निर्वाचित वार्ड सदस्य भी महामारी से लड़ने के लिए अवैतनिक श्रमिकों की इस सेना में शामिल हो चुके हैं। एंटनी बताते हैं कि बीते एक साल में इन स्वयंसेवियों ने हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों, अंतर-राज्यीय सीमाओं और बस टर्मिनलों पर संक्रमित लोगों का पता लगाने और उन्हें आइसोलेट करने, आइसोलेशन हॉस्पिटल्स में क्वारंटीन किए गए लोगों, खास तौर पर बुजुर्गों, मरीजों, गरीबों और बेघरों को खाना खिलाने के लिए सामुदायिक रसोई चलाने और सूखे राशन की किट बांटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

रितु प्रिया बताती हैं कि भारत केवल विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपना कर ही महामारी से सफलतापूर्वक लड़ सकता है। स्थानीय स्तर की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पूरी सरकार और पूरे समाज को एक साथ आना चाहिए और काम करना चाहिए। धारावी में, सरकारी तंत्र ने काम किया, लेकिन समुदाय ने भी सक्रिय भागीदारी की। महामारी की रोकथाम में निजी क्षेत्र की कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि इसकी ओर से संपर्कों की तलाश करने या ग्रामीण इलाकों में जाने की संभावना नहीं है।

अब तक, वैक्सीन ही इस महामारी से छुटकारा पाने का एकमात्र तरीका दिखाई देता है। ये विशेष तौर पर उन ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोगी होगा, जहां स्वास्थ्य सेवाएं बहुत ही खराब हैं।



वैक्सीन की अबूझ पहेली

आदर्श रूप में भारत में कोविड-19 टीकाकरण का कार्यक्रम सफल होना चाहिए था क्योंकि यह न केवल वैक्सीन विकसित करने में दुनिया में सबसे आगे है बल्कि अभी एक सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम भी जारी है। लेकिन दूसरी लहर के बीच में वैक्सीन की कमी से निपटने के अपने प्रयास में सरकार ने नई रणनीतियों को पेश किया, जो अब वैक्सीन की अनुचित और एकतरफा वितरण के परिणाम के रूप में सामने आई है। कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम की शुरुआत करते समय केंद्र ने 35,000 करोड़ रुपए मंजूर किए थे, जो 18 वर्ष से अधिक उम्र के प्रत्येक नागरिक के लिए एक वैक्सीन खरीदने के लिए पर्याप्त हैं।

केंद्र ने इन टीकों को लगाने की निर्बाध व्यवस्था करने के लिए 28 दिसंबर 2020 को कोविड-19 टीकों को लगाने के दिशानिर्देश भी जारी कर दिए थे। लेकिन समय सीमा नहीं तय की गई थी और केवल यह कहा गया था कि जो टीकाकरण के लिए पात्र है, उसे मिलेगा। दिशानिर्देशों ने जुलाई 2021 तक स्वास्थ्य कर्मियों फ्रंटलाइन वर्कर्स, 50 वर्ष से अधिक आयु के लोगों और अन्य रोगों से जूझ रहे 30 करोड़ (300 मिलियन) लोगों का टीकाकरण करने का लक्ष्य तय किया। उसके बाद 1 अप्रैल, 2021 को 45 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों के लिए टीकाकरण शुरू कर दिया गया। लेकिन कोविड-19 की दूसरी लहर आने के साथ, वैक्सीन की मांग बढ़ी और जमीन पर इसकी कमी साफ-साफ दिखाई देने लगी। लेकिन सरकार के पास इस मांग को पूरा करने की कोई योजना ही नहीं थी।

19 अप्रैल 2021 को सरकार ने लिबरलाइज्ड एंड एक्सीलरेटेड फेज-3 स्ट्रेटजी पेश कर दी, जिसके अनुसार राज्य और निजी अस्पताल देश में उत्पादित होने वाली आधी वैक्सीन खरीद सकते हैं। वैक्सीन निर्माताओं को भी वैक्सीन की डोज को अधिक कीमत पर बेचने की छूट दे दी गई। अब जो लोग 45 वर्ष से ज्यादा उम्र के हैं, उन्हें केंद्रीय कोटा मिलेगा और इसे लोगों को मुफ्त में लगाया जाएगा। राज्य उन नागरिकों को वैक्सीन दे सकते हैं जिन्हें वे जोखिम में मानते हैं, जबकि निजी क्षेत्र उन सभी लोगों को वैक्सीन लगा सकते हैं, जो निश्चित तौर पर कमजोर श्रेणी में नहीं आते हैं, लेकिन उनमें वैक्सीन को खरीदने का सामर्थ्य है।

इस रणनीति ने जमीन पर अव्यवस्था और भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है। भारत बायोटेक ने घोषणा की है कि वह राज्यों को अपनी वैक्सीन, कोवैक्सीन 400 रुपए प्रति डोज के हिसाब से बेचेगी, जबकि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) ने अपनी वैक्सीन कोविशील्ड की कीमत 300 रुपए प्रति डोज तय की है। हालांकि, एसआईआई ने निजी क्षेत्र के लिए वैक्सीन की एक डोज की कीमत 600 रुपए रखी है। वहीं भारत बायोटेक ने इसकी कीमत नहीं बताई है। इन ऊंचे दामों का नतीजा है कि निजी केंद्रों पर वैक्सीन की कीमत बहुत बढ़ गई है, जहां कोवैक्सीन 1,250 रुपए प्रति डोज, वहीं कोविशील्ड 900 रुपए प्रति डोज पर उपलब्ध है।

चूंकि इनमें से किसी भी कंपनी के पास कमी को पूरा करने के लिए पर्याप्त वैक्सीन नहीं है, इसलिए राज्यों ने टीकाकरण प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए ग्लोबल टेंडर जारी करने के प्रयास किए हैं। उत्तर प्रदेश की आबादी 20 करोड़ से ज्यादा है, उसने 7 मई को 40 करोड़ डोज के लिए ग्लोबल टेंडर जारी किया। कुछ दिनों बाद ग्रेटर मुंबई महानगरपालिका (एमसीजीएम) ने वैक्सीन की एक करोड़ डोज की आपूर्ति के लिए कंपनियों से प्रस्ताव मांगे। दिल्ली समेत कई अन्य राज्यों ने भी इसी तरह के टेंडर जारी किए हैं। लेकिन ये राज्य टेंडर के जरिए वैक्सीन खरीदने में सफल नहीं हो पाए हैं। शुक्ला ने कहा, “जिन चीजों को विकेंद्रीकृत होना चाहिए था, उन्हें केंद्रीकृत कर दिया गया है और जिन्हें केंद्रीकृत किया जाना चाहिए था, उन्हें विकेंद्रीकृत कर दिया गया है। हमारे पास वैक्सीन खरीदने के लिए एक विकेन्द्रीकृत प्रणाली है, लेकिन वैक्सीन लगाने के लिए एक केंद्रीकृत तंत्र है।”

कंपनियां और सरकार अब उत्पादन बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं। चूंकि, कोवैक्सीन स्वदेशी है और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने विकसित की है, इसलिए कई निर्माताओं को इस टेक्नोलॉजी का लाइसेंस देना संभव है। इस संबंध में कुछ प्रयास किए गए हैं और सार्वजनिक क्षेत्र की तीन वैक्सीन निर्माता इकाइयों में सुविधाओं को उन्नत बनाया जा रहा है, ताकि वे कम से कम समय में उत्पादन शुरू कर दें। भारत बायोटेक कंपनी भी अपनी क्षमता बढ़ा रही है। घटनाक्रम का स्वयं संज्ञान लेते हुए 31 मई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से उसकी वैक्सीन खरीद नीति और वैक्सीन डोज के लिए अलग-अलग दाम तय करने की व्यवस्था पर सवाल किए। अब तक भारत के सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम के लिए वैक्सीन केवल केंद्र सरकार ने खरीदा है और राज्यों ने निर्धारित सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम के अनुसार उसे मुफ्त में लगाया है।

महामारी, देश में सभी को स्वास्थ्य सेवाएं दे पाने में भारत की विफलता का एक संकेतक है। अब ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य संकेतकों में वृद्धिशील सुधारों के कई वर्षों का समय कहीं गुम हो गया है, क्योंकि नियमित सर्जरी, प्रसवपूर्व देखभाल और टीकाकरण कवरेज, किडनी रोगियों की डायलिसिस और देखभाल, कैंसर रोगियों की नियमित कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी पर विपरीत असर पड़ा है। यह नींद से जगाने वाली आवाज है और विशेषज्ञों को उम्मीद है कि अफरातफरी से भी कुछ अच्छा ही निकलेगा। उदाहरण के लिए यह पहली बार है, जब सारी वयस्क आबादी टीकाकरण के लिए स्वास्थ्य केंद्रों पर पहुंच रही है। इन लोगों की ब्लड प्रेशर और ब्लड शुगर की जांच की जा सकती है और हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज के बारे में सलाह भी दी जा सकती है। ये सब राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 में प्रस्तावित व्यापक प्राथमिक देखभाल का अनिवार्य हिस्सा है।