स्वास्थ्य

मीठा जहर: 1990 के बाद से 16 फीसदी बढ़ी चीनी युक्त पेय पदार्थों की खपत

शर्करा युक्त मीठे पेय पदार्थ भले ही स्वाद में कितने अच्छे लगें, लेकिन यह किसी मीठे जहर से कम नहीं। हालांकि स्वास्थ्य पर पड़ते दुष्प्रभावों के बावजूद दुनिया भर में इनकी खपत अब भी बढ़ रही है

Lalit Maurya

चीनी युक्त मीठे पेय पदार्थ भले ही स्वाद में कितने अच्छे लगें, लेकिन यह किसी मीठे जहर से कम नहीं। हालांकि स्वास्थ्य पर पड़ते दुष्प्रभावों के बावजूद दुनिया भर में इनकी खपत आज भी बढ़ रही है। 185 देशों में इसकी खपत को लेकर किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि 1990 के बाद से वयस्कों में इसकी खपत 16 फीसदी बढ़ी है, जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बेहद चिंताजनक है।

टफ्ट्स यूनिवर्सिटी, बोस्टन के फ्रीडमैन स्कूल ऑफ न्यूट्रिशन साइंस एंड पॉलिसी के शोधकर्ताओं द्वारा किए इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशंस में तीन अक्टूबर 2023 को प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन में इस बात की भी पुष्टि की है कि कौन कितना मीठा पेय ले रहा है, यह इस बात से भी प्रभावित होता है कि आप कहां रहते हैं।

गौरतलब है कि मीठे पेय सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी चिंता का विषय हैं, क्योंकि वे मोटापे के साथ-साथ हृदय रोग और मेटाबोलिक बीमारियों से भी व्यापक रूप से जुड़े हैं। जो वैश्विक स्तर पर मृत्यु और विकलांगता के प्रमुख कारणों में से हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ ) द्वारा 10 यूरोपीय देशों के 450,000 से अधिक वयस्कों पर किए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि दिन में सिर्फ दो गिलास सॉफ्ट ड्रिंक पीना जल्द मृत्यु का कारण बन सकता है ।

यही वजह है कि कई देशों में इसके लिए दिशानिर्देश तक जारी किए हैं, जिनमें अतिरिक्त चीनी का सेवन दैनिक कैलोरी के पांच से 10% तक रखने की सलाह दी गई है। यहां तक की कुछ देशों ने तो इससे बने पेय पदार्थों पर कर तक लगाया है, जिससे लोगों में इनकी खपत को सीमित किया जा सके।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि शर्करा युक्त पेय पदार्थों पर कर लगाने से इसकी खपत को कम किया जा सकता है, जो मोटापा, टाइप 2 मधुमेह और दांतों की सड़न को कम करने में मददगार हो सकता है।

बता दें कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने वैश्विक आहार डेटाबेस के 1990 से 2018 के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। चीनी युक्त मीठे पेय पदार्थों में स्टोर से खरीदे और घर में बने मीठे पेय पदार्थ शामिल हैं। जिनमें सॉफ्ट ड्रिंक, एनर्जी ड्रिंक, फ्रूट ड्रिंक्स, नींबू पानी और स्वादयुक्त मीठा पानी आदि प्रमुख हैं। इनमें कैलोरी की मात्रा प्रति सर्विंग 50 या उससे ज्यादा थी।

हालांकि शोधकर्ताओं ने इनमें फल और सब्जियों से मिलने वाले 100 फीसदी रसों के साथ मीठा दूध और ऐसे कृत्रिम मीठे पेय पदार्थो को शामिल नहीं किया है जिनमें कैलोरी नहीं होती है। वहीं विश्लेषण में जो प्रति सर्विंग की मात्रा तय की गई है वो करीब 248 ग्राम है।

दूसरे देशों की तुलना में भारत, चीन, बांग्लादेश में बेहद कम है खपत

अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक वैश्विक स्तर पर एक औसत व्यक्ति हर सप्ताह में 2.7 सर्विंग मीठे पेय का सेवन करता है। हालांकि कई जगहों पर यह खपत बेहद ज्यादा तो कहीं काफी कम थी। उदाहरण के लिए जहां दक्षिण अमेरिका और कैरिबियन में एक औसत व्यक्ति प्रति सप्ताह 7.8 सर्विंग मीठे पेय पीता है, वहीं दक्षिण एशिया में यह मात्रा महज 0.7 सर्विंग ही दर्ज की गई। 

यदि देशों के आधार पर देखें जहां मेक्सिको में एक औसत व्यक्ति हर सप्ताह 8.9 सर्विंग्स ले रहा है। इथियोपिया में यह आंकड़ा 7.1 सर्विंग्स, अमेरिका में 4.9 सर्विंग्स, और नाइजीरिया में 4.9 सर्विंग्स, रवांडा में 34.2, अल्बानिया में 22.9, बारबडोस में 15.6, बोत्सवाना में 14.2, युगांडा में 11, लेसोथो में 14.3, मॉरिशस में 20.4, नामीबिया में 14.7,    कोलंबिया में 20, कांगो में 9.5, इक्वेडोर में 13.6, कुवैत में 9.9,  जमैका में 9.2, पनामा में 13.7, सेनेगल में 18.8, दक्षिण अफ्रीका में 9.4, स्वाजीलैंड में 10.4, और टोगो में 29 दर्ज किया गया।

वहीं इन देशों के विपरीत भारत, चीन, बांग्लादेश में इन मीठे पेय पदार्थों की खपत बेहद कम दर्ज की गई, जो औसतन प्रति व्यक्ति हर सप्ताह महज 0.2 सर्विंग थी। इतना है नहीं रिसर्च के मुताबिक वैश्विक स्तर पर महिलाओं की तुलना में पुरुष कहीं ज्यादा मीठे पेय पदार्थों का सेवन करते हैं। इसी तरह बुजुर्गों की तुलना में युवाओं में यह आंकड़ा कहीं ज्यादा दर्ज किया गया है। हालांकि शहरीकरण और शिक्षा का प्रभाव इसे अलग-अलग तरह से प्रभावित कर रहा है।

उदाहरण के लिए उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया और दक्षिण अमेरिका में, उच्च शिक्षा प्राप्त वयस्कों द्वारा चीनी युक्त मीठे पेय पदार्थों का सेवन करने की संभावना कहीं ज्यादा थी, जबकि मध्य पूर्व/उत्तरी अफ्रीका इससे बिलकुल उलट थे। सामान्य तौर पर, देखें तो दुनिया भर में सबसे ज्यादा शर्करा युक्त पेय पदार्थों की खपत दर उप-सहारा अफ्रीका (प्रति सप्ताह 12.4 सर्विंग) और दक्षिण अमेरिका (प्रति सप्ताह 8.5 सर्विंग) में पढ़े लिखे, शहरी वयस्कों के बीच देखी गई।

अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता लौरा लारा-कैस्टर का कहना है कि दक्षिण अमेरिका/कैरिबियन में लगातार सबसे ज्यादा शर्करा युक्त पेय की खपत होती है, भले समय के साथ वहां इसमें कमी आई है। दूसरी ओर, उप-सहारा अफ्रीका में इसमें लगातार वृद्धि देखी गई।

ऐसे में उनके मुताबिक यह निष्कर्ष इन उत्पादों से जुड़े मार्केटिंग और फ़ूड लेबलिंग नियमों के साथ सोडा करों जैसे प्रभावी उपायों को लागू करने की आवश्यकता पर जोर देते हैं। ग्लोबल डाइटरी डेटाबेस के विश्लेषण से पता चला है कि इन मीठे पेय पदार्थों और आर्थिक स्थिति के बीच संबंध है।

जहां 1990 से 2018 के बीच इनकी खपत में उप-सहारा अफ्रीका में करीब 82 फीसदी की वृद्धि हुई है। वहीं समृद्ध देशों में शुरुआत में इनकी खपत बढ़ने के बाद घट गई है। वहीं दक्षिण अमेरिका में यह घटने के बाद फिर बढ़ी है। दुनिया के कई अन्य क्षेत्रों में भी इसमें धीमी लेकिन लगातार वृद्धि देखने को मिली है। वहीं लिंग, आयु, शिक्षा और आवासीय स्थिति जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए भी इसमें समान पैटर्न ही देखने को मिला है।

सीएसई भी लम्बे समय सॉफ्ट ड्रिंक्स से जुड़े खतरों को लेकर करता रहा है आगाह

यदि भारत की बात करें तो मार्केट रिसर्च फर्म यूरोमॉनिटर के मुताबिक भारत में शहरीकरण, बढ़ती आय और युवाओं में इसके बढ़ते रुझान के चलते गैर-कार्बोनेटेड ड्रिंक्स की मांग बढ़ गई है। इसके अतिरिक्त, काम के बढ़ते दबाव और सामाजिक समारोहों के चलते भी भारतीय उपभोक्ताओं में एनर्जी ड्रिंक्स की मांग बढ़ रही है। बता दें की सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) भी लम्बे समय से लोगों की सॉफ्ट ड्रिंक्स, एनर्जी ड्रिंक्स और अन्य मीठे पेय पदार्थों के चलते बढ़ते खतरों को लेकर सजग करता रहा है।

2013 के दौरान भारत में प्रति व्यक्ति कार्बोनेटेड पेय पदार्थों की खपत करीब 0.6 लीटर थी। वहीं एक औसत चीनी नागरिक हर साल 1.47 लेटर कार्बोनेटेड ड्रिंक्स का सेवन करता है, जो अमेरिकियों द्वारा की जा रही कार्बोनेटेड ड्रिंक की 19.96 लीटर और मैक्सिकन की 20.61 लीटर खपत से से काफी कम थी।

अध्ययन ने इन रुझानों के पीछे के कारणों को तो स्पष्ट नहीं किया है, लेकिन शोधकर्ताओं का मानना है कि ऐसा सोडा और खाद्य उद्योग द्वारा अपनाई जा रही सफल मार्केटिंग रणनीतियों, पश्चिमी आहार को बेहतर मानने और स्वच्छ पानी की उपलब्धता के कारण हो सकता है।

लारा-कैस्टर का कहना है कि, "सोडा दूर-दराज के इलाकों में भी पाया जा रहा है, और उन जगहों पर जहां साफ पानी मिलना मुश्किल है, वहां यह प्यास बुझाने का एकमात्र विकल्प हो सकते हैं।"

लोग क्या खाते पीते हैं वो उनके स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। रिसर्च के अनुसार 2019 में खान-पान की अस्वास्थ्यकर आदतों, बढ़ते वजन या मोटापे के साथ-साथ पर्याप्त पोषण की कमी ने वर्ष के दौरान होने वाली मौतों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया था। यदि पुरुषों से जुड़े आंकड़ों को देखें तो 15 फीसदी मौतों के लिए अस्वास्थ्यकर आहार जिम्मेवार था। वहीं आठ फीसदी के लिए बढ़ता वजन और मोटापा जबकि पांच फीसदी मौतों के लिए पोषण की कमी जिम्मेवार थी।

इसी तरह 14 फीसदी महिलाओं की मृत्यु के लिए खराब आहार, दस फीसदी के लिए बढ़ता वजन और मोटापा जबकि पांच फीसदी के लिए कुपोषण जिम्मेवार था।

आहार से संबंधित इनमें से अधिकांश स्वास्थ्य समस्याएं हृदय रोग, टाइप 2 मधुमेह और कैंसर जैसी बीमारियों से जुड़ी थीं। आहार संबंधी ये परिस्थितियां न केवल किसी व्यक्ति की उम्र को प्रभावित करती है साथ ही इनका असर जीवन की गुणवत्ता पर भी पड़ता है। इतना ही नहीं यह गंभीर कोविड परिणामों के जोखिम को भी बढ़ाती हैं।

ऐसे में आहार की गुणवत्ता में सुधार के लिए वैश्विक प्रयासों को प्राथमिकता देना जरूरी है, क्योंकि इससे हृदय और मेटाबोलिक रोगों के कारण होने वाली मौतों, जटिलताओं के साथ आर्थिक और स्वास्थ्य असमानताओं को कम करने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ताओं ने भी अपने अध्ययन में दुनिया भर में इसके सेवन में कमी लाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर इनको ध्यान में रखते हुए नीतियों के निर्माण पर बल दिया है।