दुनिया भर में चीनी के कृत्रिम विकल्पों का नया बाजार खड़ा हो रहा है। इन्हें हम आर्टिफिशियल या केमिकल स्वीटनर कहते हैं। यह उनके बीच खासा लोकप्रिय है जो मधुमेह जैसी बीमारियों से जूझ रहे हैं। या फिर मोटापा घटाने जैसी चाह के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि, इसका स्वास्थ्य पर किस तरह का असर पड़ता है। इस बिंदु पर गहरी पड़ताल करती रोहिणी कृष्णमूर्ति की रिपोर्ट... पहली कड़ी पढ़ने के लिए क्लिक करें। दूसरी कड़ी के लिए यहां क्लिक करें । आज पढ़ें अंतिम कड़ी -
2023 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत के 38 प्रतिशत शहरवासी कोल्ड ड्रिंक्स, शुगर-फ्री च्युइंग गम और एनर्जी ड्रिंक्स जैसे प्रोडक्ट्स से आर्टिफिशियल स्वीटनर ले रहे हैं। एक और सर्वेक्षण में ये चौंकाने वाली बात सामने आई कि ज्यादा वजन वाले 85 प्रतिशत और टाइप 2 डायबिटीज वाले 99 प्रतिशत लोग टेबलटॉप स्वीटनर इस्तेमाल करते हैं।
कई बार इन उत्पादों पर ये साफ-साफ नहीं लिखा होता कि इसमें उत्पाद ें कितनी मात्रा में स्वीटनर है। या फिर ये लिखा होता है कि “शुगर-फ्री” या “लो-कैलोरी”, लेकिन यह पूरी जानकारी नहीं देते है। इससे आम लोग इसकी अधिक मात्रा में ले लेते हैं, जो उनकी सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है।
भारत में आर्टिफिशियल स्वीटनर (चीनी की जगह इस्तेमाल होने वाले मीठा पदार्थ) का एक बहुत बड़ा बाजार है। दुनिया में चीनी की जगह इस्तेमाल होने वाले मीठे पदार्थों से होने वाली कमाई के मामले में भारत दूसरे नंबर पर है। और यह बाजार तेजी से बढ़ रहा है।
अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ के मुताबिक, 2019 में भारत में 7.7 करोड़ लोगों को डायबिटीज थी। 8 जून 2023 को द लैंसेट डायबिटीज एंड एंडोक्रिनोलॉजी में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक, 2021 में डायबिटीज मरीजोंं की संख्या बढ़कर 10.1 करोड़ जा पहुंची यानी केवल तीन साल में 23.7 प्रतिशत का डायबिटीज मरीजों की संख्या बढ़ी।
लेकिन, चिंता की सबसे बड़ी बात यह सामने आई है कि आर्टिफिशियल स्वीटनर का सेवन कर रहे कितने लोग जानते हैं कि वे शुगर की जगह उसके किन विकल्पों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ज्योतिदेव्स डायबिटीज रिसर्च सेंटर के प्रबंध निदेशक डॉ. ज्योतिदेव केशवदेव कहते हैं कि किस तरह का मीठा पदार्थ और कितनी मात्रा में ले रहे हैं, यह जानना आम लोगोंं के लिए बहुत जरूरी है। क्योंकि इससे सेहत पर जोखिम हो सकता है। साथ ही, यह भी जानना बहुत अधिक जरूरी होता है कि यह मीठे पदार्थ प्राकृतिक हैं या आर्टिफिशियल। कारण कि इन सबकी अलग-अलग मात्रा रोज ले सकते हैं। लेकिन पैकेट पर दी गई जानकारी अक्सर अधूरी ही पाई जाती है, जिससे आम लोगों को इस मामले में सही फैसला लेना बहुत अधिक मुश्किल हो जाता है।
सर्वे के नतीजे
यह पता लगाने के लिए कि पैकेट पर कितनी जानकारी दी गई है, डाउन टू अर्थ ने अक्टूबर-नवंबर 2023 में दिल्ली में ऑनलाइन और दुकानों से मिलने वाले 23 कृत्रिम और प्राकृतिक स्वीटनर का सर्वे किया। सर्वे में पाया गया कि कई उत्पाद जरूरी जानकारी छिपा रहे थे।
भारत में मीठे पदार्थों को बनाने और बेचने के लिए “खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006” लागू होता है।
इस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) की है। दुनियाभर में मिलने वाले कई स्वीटनर में से एफएसएसएआई ने सिर्फ 9 को मंजूरी दी है। इनमें से 6 आर्टिफिशियल हैं- सैकरीन, नियोटेम, एस्पार्टेम, सुक्रालोज, एसिसल्फेम-पोटैशियम , एस्पार्टेम-एसिसल्फेम साल्ट। इनके अलावा 3 प्राकृतिक स्वीटनर को मंजूरी दी गई है। ये हैं- एरिथ्रिटॉल, स्टेवियोल ग्लिकोसाइड और थ्यूमेटिन।
सरकार ने तय किया है कि चीनी की जगह इस्तेमाल होने वाले आर्टिफिशियल स्वीटनर के पैकेट पर कुछ खास जानकारियां जरूर होनी चाहिए, लेकिन कई कंपनियां ये नियम नहीं मानतीं। पैकेट पर यह बताना जरूरी है कि पदार्थ कितना “शुद्ध” है, यानी असली मीठे पदार्थ की मात्रा बाकी चीजों के मुकाबले कितनी है।
यह भी बताना चाहिए कि असली मीठा पदार्थ पूरे मिश्रण में कितना प्रतिशत है। इससे पता चलता है कि पैकेट में कितनी मात्रा में मीठा पदार्थ है।
अगर पैकेट में “सैकरीन” नाम का मीठा पदार्थ है, तो लिखना जरूरी है कि वह बच्चों के लिए ठीक नहीं है। डाउन टू अर्थ के सर्वे में पाया गया कि 23 में से 11 पैकेट पर शुद्धता की जानकारी नहीं दी गई थी।
17 पैकेट पर यह नहीं बताया गया कि असली मीठा पदार्थ कितना प्रतिशत है। एक पैकेट पर यह नहीं लिखा था कि सैकरीन है और यह बच्चों के लिए ठीक नहीं है।
कुछ जानकारी साझा की
सरकार ने स्वीटनर के पैकेट पर कुछ जानकारियां लिखना जरूरी बताया है, लेकिन ये नियम सिर्फ उन उत्पादों पर लागू होते हैं, जिन्हें “टेबलटॉप स्वीटनर” के नाम से बेचा जाता है। कई कंपनियां ऐसा नाम नहीं देतीं, जिससे पैकेट पर पूरी जानकारी नहीं दी जाती। “टेबलटॉप स्वीटनर” शुगर के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल होने वाले वे “शुगर-फ्री” स्वीटनर हैं जिन्हें सरकार की तरफ से बिक्री की इजाजत मिली हुई है।
डाउन टू अर्थ के सर्वे में पता चला कि 23 में से 9 उत्पादों पर “टेबलटॉप स्वीटनर” नहीं लिखा था। इसका मतलब है कि सरकार के नियमों के मुताबिक जरूरी जानकारियां भी उन पैकेट पर नहीं थीं। सर्वे में पता चला कि कई आर्टिफिशियल स्वीटनर के पैकेट पर गलत जानकारी दी गई है। यह जानकारी खासकर वजन और डायबिटीज से जुड़ी है।
सर्वेक्षण में मिले 23 में से 2 उत्पादों पर लिखा था कि यह वजन कम करने में मदद करते हैं। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि आर्टिफिशियल स्वीटनर से वजन नहीं घटता। 8 उत्पादों पर लिखा था कि यह डायबिटीज के लिए अच्छे हैं। लेकिन अभी तक इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है। जरूरी है कि आप डॉक्टर की सलाह के बिना कोई भी स्वीटनर न लें।
भारत में स्टीविया के पत्ते बेचे जाते हैं, लेकिन इन पर कोई नियम नहीं हैं। अमेरिकी स्वास्थ्य विभाग भी इन पत्तों को सुरक्षित नहीं मानता। इसलिए सावधानी रखें। प्राकृतिक का मतलब सुरक्षित नहीं होता। लोग अक्सर सोचते हैं कि प्राकृतिक चीजें सुरक्षित होती हैं, लेकिन स्टीविया के मामले में ऐसा नहीं है। इसे प्रोसेस करने के बाद ही इस्तेमाल करना चाहिए।
स्टीविया के पत्ते भले ही चीनी का “प्राकृतिक” विकल्प लगते हैं, लेकिन हाल ही में कुछ बातें सामने आई हैं जिन पर ध्यान देना जरूरी है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, स्टीविया के पत्तों को सीधे इस्तेमाल करने के बारे में कोई खास नियम नहीं हैं और उन्हें पूरी तरह से सुरक्षित भी नहीं माना जाता। इसलिए, इनका इस्तेमाल करने से पहले डॉक्टर से सलाह लेना जरूरी है। कच्चे स्टीविया के पत्तों को सीधे खाना नुकसानदेह हो सकता है। इन्हें पाउडर बनाने के लिए प्रोसेसिंग की जरूरत होती है।
प्राकृतिक से भ्रम में मत पड़िए। “प्राकृतिक” शब्द हमें गुमराह कर सकता है। स्टीविया का उदाहरण बताता है कि हर प्राकृतिक चीज सुरक्षित नहीं होती। सेवन से पहले सावधानी जरूरी है। हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान के पूर्व उप निदेशक वी सुदर्शन राव कहते हैं, “लोग अक्सर गलत मानते हैं कि हर प्राकृतिक चीज सुरक्षित होती है। स्टीविया को भी सफेद पाउडर बनाने के लिए प्रोसेसिंग से गुजरना पड़ता है। इसलिए इसमें कुछ विषाक्तता संबंधी चिंताएं हैं। स्टीविया की विषाक्तता शुगर के सभी विकल्पों में सबसे कम है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह पूरी तरह सुरक्षित है।”
आयातित मिठास में मिलावट का खेल!
डाउन टू अर्थ के जिन 23 उत्पादों का सर्वे किया, उनमें से 3 का आयात हुआ था और इसमें कई नियमों का उल्लंघन हुआ था। इन्हें ऐमजॉन और “वन एमजी डॉट कॉम” जैसी वेबसाइटों के जरिए खरीदा गया था।
स्विट्जरलैंड से आयातित “हर्मीसेटास” स्वीटनर पर भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) का लेबल नहीं लगा है। यह नियमों के खिलाफ है। फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स (इंपोर्ट) रेग्युलेशंस, 2017 के मुताबिक, ऐसे खाद्य पदार्थों पर एफएसएसएआई लाइंसेस नंबर और लोगा का जिक्र होना चाहिए।
इतना ही नहीं, उत्पाद की शुद्धता और वजन के बारे में भी जानकारी नहीं दी गई है। विक्रेता से संपर्क करने पर भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला।
आयात किए गए दो अन्य टेबलटॉप स्वीटनर स्पेन की “एल्मा” कंपनी की थीं। इस कंपनी के दोनों उत्पादों पर एफएसएसएआई लेबल तो है, लेकिन एक प्रोडक्ट (सैकरीन) के लेबल पर स्पेनिश भाषा का इस्तेमाल किया गया है। इससे आम भारतीय उपभोक्ताओं को समझने में परेशानी होती है। दूसरे प्रोडक्ट (स्टीविया) पर लेबल अंग्रेजी में है, लेकिन शुद्धता और वजन के बारे में जानकारी नहीं दी गई है।
डाउन टू अर्थ के भेजे गए सवालों के जवाब में एफएसएसएआई ने अपने ईमेल में स्पष्ट किया कि आयातित खाद्य पदार्थों पर भी भारतीय खाद्य विनियम लागू होते हैं और सभी आयातित उत्पादों को उनका अनुपालन करना आवश्यक है। उल्लंघन के मामलों में प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा आवश्यक कार्रवाई की जाएगी। एस्पार्टेम के इस्तेमाल से कैंसर का जोखिम तो है ही। डब्ल्यूएचओ आम तौर पर कृत्रिम मिठास उत्पादों को बढ़ावा नहीं देता है।
इसकी रिपोर्ट्स में इनके संभावित स्वास्थ्य जोखिमों को रेखांकित किया गया है। डब्ल्यूएचओ की सिफारिश है कि दैनिक कैलोरी सेवन का 5 प्रतिशत से कम चीनी से प्राप्त होना चाहिए।
स्वास्थ्यवर्धक विकल्पों के लिए प्राकृतिक मीठे फल और बिना मीठे पेय पदार्थों को प्राथमिकता दें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक (पोषण और खाद्य सुरक्षा) फ्रांसेस्को ब्रांका कहते हैं कि एनएसएस (नॉन-शुगर सब्सीट्यूट स्टिट्यूट्स) यानी शुगर-फ्री का कोई पोषण मूल्य नहीं होता।
पोषण के लिहाज से ये बिल्कुल भी फायदेमंद नहीं हैं। स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए कृत्रिम और प्राकृतिक, सभी प्रकार के स्वीटनर का इस्तेमाल कम करना चाहिए।