स्वास्थ्य

गुटखा, तंबाकू की वजह से भारत में इलाज पर खर्च करने पड़ सकते हैं 1.58 लाख करोड़ रुपए

अनुमान है कि यदि धूम्ररहित तंबाकू से जुड़ी नीतियों में बदलाव न किया गया तो भारत में इसका सेवन करने वालों के जीवन काल में स्वास्थ्य देखभाल पर करीब 158,705 करोड़ रुपए का खर्च आएगा

Lalit Maurya

भारत में गुटखा, पान मसाला, जर्दा या खैनी जैसे धुआं रहित तंबाकू उत्पादों से जुड़ी नीतियों पर ध्यान न दिया गया तो वो स्वास्थ्य के लिहाज से महंगा पड़ सकता है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यदि इनसे जुड़ी नीतियों में बदलाव न किया गया तो देश में इसका सेवन करने वालों के जीवन काल में स्वास्थ्य देखभाल पर करीब 158,705 करोड़ रुपए (1,900 करोड़ डॉलर) का खर्च आएगा। इसका सबसे ज्यादा बोझ मुंह के कैंसर के इलाज पर होने वाले खर्च के रूप में पड़ेगा।

वहीं अपने करीबी पड़ोसियों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बोझ की बात करें तो जहां इसकी वजह से पाकिस्तान पर 25 हजार करोड़ रुपए (330 करोड़ डॉलर) का बोझ पड़ेगा। वहीं बांग्लादेश में यह आंकड़ा 12,530 (150 करोड़ डॉलर) करोड़ रुपए के आसपास रह सकता है।

यह जानकारी भारत के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कैंसर प्रिवेंशन एंड रिसर्च, नोएडा, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज, नई दिल्ली और सेंटर फॉर हेल्थ इनोवेशन एंड पॉलिसी (सीएचआईपी) फाउंडेशन से जुड़े शोधकर्ताओं के सहयोग से किए अध्ययन में सामने आई है। इस अध्ययन में भारत के साथ-साथ, पाकिस्तान, बांग्लादेश, और यूके के विभिन्न सस्थानों से जुड़े शोधकर्ताओं ने भी योगदान दिया है। अध्ययन के नतीजे ऑक्सफोर्ड एकेडमिक के निकोटीन एंड टोबैको रिसर्च जर्नल में प्रकाशित हुए हैं।

भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में यह धुआं रहित तम्बाकू उत्पाद सेवन करने वालों के जीवनकाल में स्वास्थ्य, जीवन गुणवत्ता, और स्वास्थ्य देखभाल पर होने वाले खर्चों को कैसे प्रभावित करते हैं, इसका अनुमान लगाने के लिए एक नया मॉडल तैयार किया है। इसमें उन्होंने देश, उम्र और लिंग के आधार पर निष्कर्षों को व्यवस्थित किया है।

दक्षिण एशिया में बेहद लोकप्रिय है खैनी, गुटखा, जर्दा और पान मसाला 

रिसर्च के मुताबिक इसका विशेष रूप से प्रभाव उन कम उम्र के युवाओं पर पड़ेगा, जिन्होंने अभी तक इन उत्पादों का सेवन शुरू नहीं किया है। बता दें कि दक्षिण एशिया में खैनी, गुटखा, जर्दा और पान मसाला जैसे धुआं रहित तंबाकू उत्पाद अच्छे-खासे लोकप्रिय हैं, जहां करीब 30 करोड़ लोग उनका सेवन करते हैं। इसका मतलब है कि दुनिया में इन तम्बाकू उत्पादों सेवन करने वाला हर छह में से पांचवा शख्स दक्षिण एशियाई है।

बता दें कि जब इन तम्बाकू उत्पादों को चबाया, सूंघा या दांतों और मसूड़ों पर लगाया जाता है, तो इनमें मौजूद निकोटीन निकलता है, यह एक तरह की लत है जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होती है। स्पष्ट है कि दुनिया में तम्बाकू का सेवन करने वाले ज्यादातर लोग इसी क्षेत्र में रह रहे हैं।

इस बारे में ब्रुनेल विश्वविद्यालय से जुड़े और अध्ययन का नेतृत्व करने वाले शोधकर्ता प्रोफेसर सुभाष पोखरेल ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि धुआं रहित तंबाकू दक्षिण एशियाई संस्कृति का बड़ा हिस्सा है। आमतौर पर शादी समारोहों में इसका बेहद ज्यादा चलन देखा गया है।

कई जानी मानी हस्तियां भी भ्रामक विज्ञापनों के माध्यम से इनका प्रचार करती हैं। वहीं सिगरेट के विपरीत, नाबालिगों को धूम्र रहित तंबाकू बेचने के कानून उतने कड़े नहीं हैं। नतीजन कानूनी प्रतिबंधों के बावजूद, स्कूलों के पास भी यह आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

इन तंबाकू उत्पादों को लेकर धारणा रही है कि यह बीड़ी, सिगरेट की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं। यही वजह है कि इनके उपयोग में वृद्धि हुई है। लेकिन इनकी वजह से न केवल स्वास्थ्य बल्कि अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा है। उदाहरण के लिए, माना जाता है तम्बाकू से जुड़े भारत के स्वास्थ्य देखभाल संबंधी खर्चों के करीब एक-चौथाई के लिए अकेले धुआं रहित तम्बाकू जिम्मेवार है।

इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने धुआं रहित तंबाकू का सेवन करने वालों के बीच चार सामान्य बीमारियों के इलाज की जीवन भर की लागत पर ध्यान दिया है। इनमें उन्होंने मुंह, ग्रसनी, और ग्रासनली से सम्बंधित कैंसर, जो मुंह और गले को प्रभावित करते हैं के साथ स्ट्रोक को शामिल किया है।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान की वयस्क आबादी को 15 से 19 वर्ष से लेकर 70 से 74 वर्ष तक के आयु वर्गों में विभाजित किया है। साथ ही उन्होंने पुरुषों और महिलाओं से जुड़े आंकड़ों का भी अलग-अलग अध्ययन किया है। उन्होंने तंबाकू सर्वेक्षण और पिछले अध्ययनों और आंकड़ों का उपयोग करके उन लोगों की पहचान की है जो मौजूदा समय में धुआं रहित तंबाकू उत्पादों का सेवन करते हैं या जिन्होंने अतीत में इसका इस्तेमाल किया था। इसमें वो लोग भी शामिल थे जिन्होंने कभी भी इन उत्पादों का सेवन नहीं किया था।

शोधकर्ताओं ने यह अनुमान लगाने के लिए एक मॉडल का उपयोग किया है कि तम्बाकू उत्पादों का सेवन करने वालों के साथ उनके जीवनकाल में क्या होगा। हर साल, कुछ लोग धुआं रहित तंबाकू का सेवन बंद कर देंगे, कुछ जारी रखेंगे, और कुछ जिन्होंने इसका उपयोग बंद कर दिया था, वे इसका उपयोग फिर से शुरू कर देंगे। कुछ लोग इसे पहली बार उपयोग करना शुरू करेंगे। वहीं दुर्भाग्य से कुछ लोगों की मृत्यु भी होगी। उन्होंने इस बात पर भी विचार किया है कि प्रत्येक समूह के लोगों के जीवन में अलग-अलग समय पर कैंसर और स्ट्रोक कितने आम होंगे और इन बीमारियों के इलाज पर कितना खर्च आएगा।

इस आधार पर शोधकर्ताओं ने यह गणना की है कि अगर भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान, लोगों को धुआं रहित तंबाकू का उपयोग करने से रोकने के लिए नीतियां बनाते हैं तो स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च होने वाली लागत में कितनी कटौती की जा सकेगी। वे यह भी अनुमान लगा सकते हैं कि लोग धुआं रहित तंबाकू का उपयोग किए बिना कितने समय तक जीवित रहेंगे और उनका जीवन कितना बेहतर हो सकता है।

अध्ययन के जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो दर्शाते हैं कि अगर भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान धुआं रहित तंबाकू पर अपनी मौजूदा नीतियों और उन्हें लागू करने के तरीके में कोई बदलाव नहीं करते, तो इसकी वजह से अकेले भारत में धुआं रहित तंबाकू और उससे जुड़ी जीवन भर की स्वास्थ्य देखभाल लागत पर करीब 158,705 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। वहीं पाकिस्तान में यह लागत 25 हजार करोड़ रुपए, जबकि बांग्लादेश में 12,530 (150 करोड़ डॉलर) करोड़ रुपए के करीब रह सकती है।

हालांकि शोधकर्ताओं ने इस बात की भी आशंका जताई है कि धुआं रहित तंबाकू के उपयोग की यह लागत इस अनुमान से कहीं ज्यादा हो सकती है।

युवाओं को तम्बाकू की लत से बचाना बेहद जरूरी

अध्ययन से यह भी पता चला है कि सभी देशों में स्वास्थ्य देखभाल पर जो लागत आएगी वो कम उम्र के लोगों के लिए सबसे ज्यादा हो सकती है। भारत में 35 से 39 आयु वर्ग के पुरुषों के स्वास्थ्य देखभाल पर सबसे ज्यादा खर्च आएगा। वहीं बांग्लादेश में यह 30 से 44 आयु वर्ग और पाकिस्तान में, 20 से 24 और 30-34 आयु वर्ग के लोगों के लिए रहने की आशंका है।

भारत और पाकिस्तान में महिलाओं की तुलना में पुरुषों पर स्वास्थ्य और वित्तीय बोझ करीब दोगुना आंका गया। हालांकि, बांग्लादेश में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर यह बोझ थोड़ा अधिक रहा।

शोधकर्ताओं का यह भी अनुमान है कि भविष्य में युवा इससे सबसे अधिक प्रभावित होंगे। हैरानी की बात है कि यह वो लोग हैं जिन्होंने कभी इस धुआं रहित तंबाकू का सेवन नहीं किया है, लेकिन आशंका है कि वो ऐसा कर सकते हैं। ऐसा तब हो सकता है यदि धुआं रहित तंबाकू से निपटने के लिए मौजूदा नीतियां उतनी सशक्त न हो और उनका कार्यान्वयन न किया जाए।

ऐसे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर रवि मेहरोत्रा ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, "भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान की धुआं रहित तंबाकू से जुड़ी मौजूदा नीतियों में सकारात्मक बदलाव की आवश्यकता है ताकि उन युवाओं को इससे बचाया जा सके जो वर्तमान में इसका उपयोग नहीं कर रहे हैं। उनके मुताबिक कानूनों का सख्ती से क्रियान्वयन समय की मांग है। उनका आगे कहना है कि ये बदलाव महिलाओं के बीच भी धुआं रहित तंबाकू के उपयोग और बढ़ते बोझ को कम करने में मदद करेंगे।

वहीं दूसरी तरफ यदि इन देशों में लोग इसी तरह जर्दा, खैनी, गुटखा जैसे धुआं रहित तम्बाकू उत्पादों का उपयोग करते रहेंगें तो यह इन देशों में कहीं ज्यादा मौतों और बीमारियों का कारण बनेगा।

शोधकर्ताओं के मुताबिक सिर्फ इन उत्पादों पर कर बढ़ाने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि ये उत्पाद सस्ते हैं और संस्कृति में गहराई से रचे-बसे हैं। नशा एक ऐसी लत है जिसे छोड़ने के लिए इसका सेवन करने वालों को को भी मदद की जरूरत पड़ेगी। शोधकर्ताओं के मुताबिक युवाओं के धूम्रपान शुरू करने से रोकने पर ध्यान केंद्रित करना उनके लिए सबसे अच्छा काम कर सकता है, जबकि मध्यम आयु वर्ग के लोगों को धूम्रपान छोड़ने में मदद करना उनके लिए सबसे प्रभावी हो सकता है।