वैश्विक स्तर पर बढ़ता एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स अपने आप में एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। जिस तरह से इंसानों, जानवरों और फसलों में एंटीबायोटिक दवाओं का जरूरत से ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है, उसके चलते मौजूदा एंटीबायोटिक्स दवाएं धीरे-धीरे कम प्रभावी होती जा रही हैं।
वहीं दूसरी तरफ एंटीबायोटिक दवाओं पर घटते शोध के चलते नई एंटीबायोटिक दवाओं के विकास में भी गिरावट आ रही है। यह स्थिति दर्शाती है कि आने वाले वर्षों में हमें स्वास्थ्य से जुड़े गंभीर संकट का सामना करना पड़ेगा।
यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 2021 तक के लिए जारी आंकड़ों पर गौर करें तो मौजूद समय में 297 एंटीबायोटिक पर शोध किया जा रहा है। इनमें से 217 विकास के शुरूआती चरण में हैं, 77 क्लीनिकल ट्रायल स्टेज में हैं, जबकि केवल तीन ही प्री-रजिस्ट्रेशन चरण में पहुंचे हैं। वहीं दूसरी तरफ यदि कैंसर की बात करें तो इससे जुड़ी 10,000 से ज्यादा दवाओं पर रिसर्च हो रही है।
हैरानी की बात है कि ऐसे समय में जब प्रमुख दवा कंपनियों को आगे आना चाहिए तो वो अपनी जिम्मेवारी से बचती नजर आ रही हैं। गौरतलब है कि कई बड़ी दवा कंपनियों ने मुनाफे के लालच में कैंसर, ऑटोइम्यून और मेटाबॉलिक डिसऑर्डर जैसे कहीं ज्यादा फायदे वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है।
ऐसे में प्रमुख दवा कंपनियों के एंटीबायोटिक रिसर्च में पीछे हटने के बाद छोटी बायोफार्मास्युटिकल कंपनियों ने जिम्मेदारी ली है, ताकि इस अंतर को भरा जा सके। लेकिन उन्हें अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
स्वस्थ भविष्य के लिए नए एंटीबायोटिक्स की है जरूरत
इन्हीं समस्याओं को उजागर करने के लिए 24 अगस्त, 2023 को सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने एक वैश्विक वेबिनार का आयोजन किया। इस श्रंखला में सीएसई द्वारा आयोजित यह दूसरा ऑनलाइन कार्यक्रम था, जिसका उद्देश्य एंटीबायोटिक दवाओं के शोध और विकास पर मंडराते संकट और उससे जुड़े मुद्दों का समाधान करना था।
इस वेबिनार में सीएसई ने भारतीय दवा निर्माताओं पर भी प्रकाश डाला है। यह ऑनलाइन कार्यक्रम जुलाई 2023 में डाउन टू अर्थ में प्रकाशित 'ए डेवलपिंग क्राइसिस' नामक सीएसई के मूल्यांकन पर आधारित श्रृंखला का हिस्सा है।
मूल्यांकन से पता चला कि कैसे दुनिया भर में नई एंटीबायोटिक दवाओं के विकास के प्री-क्लिनिकल और क्लिनिकल चरणों में कमजोरी आई है। दवाओं से मोटी कमाई करने वाली 15 कंपनियों की विकास योजनाओं के विश्लेषण से पता चला कि ये कंपनियां ज्यादातर नई एंटीबायोटिक दवाओं के अनुसंधान और विकास से पल्ला झाड़ रही हैं। हालांकि छोटी और मध्यम स्तर की दवा कंपनियां आगे आई हैं लेकिन उन्हें भी अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
वेबिनार में अपने उद्घाटन भाषण में, सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि, “हमारे पास जो एंटीबायोटिक्स हैं, उन्हें संरक्षित करने की जरूरत है, लेकिन साथ ही हमें जानलेवा दवा प्रतिरोधी संक्रमणों के इलाज के लिए नए एंटीबायोटिक्स की भी आवश्यकता है।
ऐसे समय में जब बड़ी फार्मास्युटिकल कंपनियां एंटीबायोटिक दवाओं में निवेश नहीं कर रही हैं, तो छोटी और मध्यम स्तर की कंपनियों ने जिम्मेदारी ली है।" उनके कंधे पर बहुत बड़ी जिम्मेवारी है और बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उनको किस प्रकार मदद दी जाती है।" बता दें की नारायण रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) पर बनाए ग्लोबल लीडर ग्रुप की सदस्य भी हैं।
हर साल लाखों जिंदगियां लील रहा है एंटीबायोटिक प्रतिरोध
बता दें कि एंटीबायोटिक प्रतिरोध एक बढ़ती हुई समस्या है, जैसे-जैसे एंटीबायोटिक्स की प्रभावशीलता कम हो रही है और उपचार के विकल्प कम हो रहे हैं। इसके चलते 2019 में वैश्विक स्तर पर 50 लाख लोगों की जान गई थी।
जर्नल लैंसेट में प्रकाशित एक रिसर्च के अनुसार एंटीबायोटिक प्रतिरोध, दुनिया में मलेरिया और एड्स से भी ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। हाल ही में इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स ने सीधे तौर पर 12.7 लाख लोगों की जान ली थी। वहीं अनुमान है कि 2019 में मरने वाले 49.5 लाख लोग कम से कम एक दवा प्रतिरोधी संक्रमण से पीड़ित थे।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी नई रिपोर्ट "ब्रेसिंग फॉर सुपरबग" से पता चला है कि हर बीतते दिन के साथ रोगाणुरोधी प्रतिरोध कहीं ज्यादा बड़ा खतरा बनता जा रहा है। अनुमान है कि यदि इसपर अभी ध्यान न दिया गया तो अगले कुछ वर्षों में इससे हर साल वैश्विक अर्थव्यवस्था को 281.1 लाख करोड़ रूपए (3.4 लाख करोड़ डॉलर) से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ सकता है। इतना ही नहीं इसके चलते करीब 2.4 करोड़ अतिरिक्त लोग अत्यधिक गरीबी की मार झेलने को मजबूर होंगें।
आंकड़े दर्शाते हैं कि 2000 से लेकर 2018 के बीच मवेशियों में पाए जाने वाले जीवाणु तीन गुना अधिक एंटीबायोटिक प्रतिरोधी हो गए हैं, जोकि एक बड़ा खतरा है, क्योंकि यह जीवाणु बड़े आसानी से मनुष्यों के शरीर में भी प्रवेश कर सकते हैं।
इस बारे में सीएसई से जुड़े अमित खुराना ने जानकारी दी है कि, "भारत में छोटे और मध्यम आकार के एंटीबायोटिक डेवलपर्स विभिन्न कठिनाइयों से जूझ रहे हैं। यदि उनके मुद्दों का समाधान हो जाता है, तो वे एंटीबायोटिक दवाओं की वैश्विक पाइपलाइन को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं।"
वेबिनार में बोलने वाले एंटीबायोटिक डेवलपर्स ने भी दवाओं के विकास से जुड़े वैज्ञानिक, वित्तीय और नियामक पहलुओं से संबंधित अपनी चुनौतियों पर भी प्रकाश डाला है।
इन चिंताओं पर प्रतिक्रिया देते हुए जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (बीआईआरएसी) के मैनेजिंग डायरेक्टर जितेंद्र कुमार ने इस मुद्दे पर अपनाए गए कदमों पर प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि, “हम इस क्षेत्र का समर्थन करने के इच्छुक हैं। एएमआर एक महामारी है, जो निश्चित रूप से एक बड़ा संकट है। हम इस पर काम कर रहे हैं और अपनी ओर से जो भी संभव होगा वो करेंगे।“
सीएसई शोधकर्ताओं ने अपने मूल्यांकन में एंटीबायोटिक दवाओं के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए कई महत्वपूर्ण सुधारों का आह्वान किया है, जिससे सभी के लिए न्यायसंगत तरीके से इन दवाओं की पहुंच सुनिश्चित हो सके।
उन्होंने सरकारों के बीच सहयोग के साथ-साथ एंटीबायोटिक के विकास के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच साझेदारी में सही संतुलन बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया है। शोधकर्ताओं ने सार्वजनिक वित्तपोषण पर भी जोर देने की बात कही है।
नारायण का कहना है कि, "हमें न केवल नवाचार के लिए सार्वजनिक धन का उपयोग करने पर विचार करना चाहिए, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि ये दवाएं उन सभी तक पहुंचें, जिन्हें इसकी जरूरत है। हमें अपनी प्राथमिकताओं पर गौर करना होगा। हमें अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ यह पता लगाने की भी जरूरत है कि क्या हम इन दवाओं को बाकी दुनिया के साथ साझा कर सकते हैं।"
उन्होंने वेबिनार के समापन संदेश में कहा कि, "यह केवल पुरस्कार या प्रोत्साहन की बहस नहीं है। सवाल यह है कि क्या किया जा सकता है। यह स्पष्ट है कि अकेले फंडिंग पर चर्चा करने से परे भी एक एजेंडा है।"