झारखंड की कारखाना सिलिकोसिस लाभुक सहायता योजना में संशोधन के लिए 400 रामिंग मास फैक्टरी मजदूरों ने प्रदर्शन किया 
स्वास्थ्य

“कारखाना मजदूरों के लिए जानलेवा बन रहा है रैमिंग मास”

आठ महीने तक उद्योग में काम करने वाले मजदूरों को भी हो सकता है सिलिकोसिस

Samit Kumar Carr

22 साल पहले जब रैमिंग मास और इसके उत्पादक उद्योगों के बारे में कोई नहीं जानता था, तब मैंने अपने पिता की सलाह पर सिलिकोसिस पर काम शुरू किया। मेरे पिता जानते थे कि सिलिकोसिस घातक व लाइलाज पेशागत बीमारी है क्योंकि कोलकाता और ओसाका (जापान) में उनके पिता यानी मेरे दादा की फैक्ट्री कार ग्लास वर्क्स में इस बीमारी के कारण श्रमिकों की मौत हुई थी।

पिताजी के प्रोत्साहन पर हमने झारखंड में काम करने का निश्चय किया क्योंकि सिलिकोसिस से मौत की खबर पहली बार 2002 में स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई थी। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के गांव तेरेंगा के तालडीह टोला में बादल सोरेन की 23 नवंबर 2002 और तेरेंगा के खरियाडीह के प्रधान हेम्ब्रम की 14 मई 2003 को सिलिकोसिस से मृत्यु हो गई थी। दोनों 1998 में उत्पादन शुरू करने वाली रैमिंग मास इकाई के.के. मिनरल्स में काम करते थे। इसी बीच 3 अगस्त 2007 तक सिलिकोसिस से 20 अन्य मजदूरों की मौत हो गई और मोनो करमाकर नामक शख्स भी 6 मई 2009 को सिलिकोसिस से चल बसा जो मजदूर भी नहीं था। 20 अप्रैल 2005 को मुसाबनी ब्लॉक के चिकित्सकों के एक दल द्वारा आठ सिलिकोसिस आक्रांत मजदूरों को चिन्हित किया गया।

2008 में बेलूर ईएसआई अस्पताल में उन सभी लोगों के एक्स-रे प्लेट की जांच की गई जिससे सिलिकोसिस से आक्रांत होने की पुष्टि हुई। उत्पादन प्रक्रिया शुरू होने के पांच वर्षों में सभी 20 मजदूर करीब 33 वर्ष की उम्र में अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। उनमें से अधिकांश में सिलिकोसिस की पहचान ओडीडीसी (ऑक्युपेशनल डिसीज डिटेक्शन सेंटर)-ओएसएचएजे से जुड़े डॉक्टरों द्वारा छाती के एक्स-रे प्लेटों की जांच आईएलओ रेटिंग द्वारा पहले ही कर ली गई थी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निर्देश पर जून 2014 में सरकारी डॉक्टरों द्वारा 30 सिलिकोसिस मृतक, 27 सिलिकोसिस आक्रांत मजदूरों को चिन्हित एवं 12 मजदूरों को संभावित सिलिकोसिस प्रभावितों के रूप में चिन्हित किया गया। श्रमिकों की मेडिकल रिपोर्ट आयोग को हलफनामे के साथ संलग्न की गई थी। इन सभी और बाद में जानलेवा सिलिकोसिस से मरे मजदूरों के परिजनों को आयोग के निर्देशानुसार आर्थिक राहत प्रदान की गई। लेकिन अभी तक सरकार द्वारा चिन्हित 39 मजदूरों को आर्थिक राहत नहीं मिली है।

श्रमिकों के पेशेगत और क्लिनिकल इतिहास से पता चला कि सिलिका धूल के संपर्क में आने वाली जगह पर उन्होंने औसतन तीन साल तक बारह घंटे काम किया और फिर वे अपने घर लौट जाते थे। लेकिन पश्चिम बंगाल के प्रवासी श्रमिक जो काम के लिए फैक्ट्री परिसर के अंदर रहते थे, वे आठ से बारह महीनों के भीतर सिलिकोसिस से पीड़ित हो गए क्योंकि वे चौबीसों घंटे सिलिका धूल को सांसों से अंदर ले रहे थे। ऐसा ही कुछ हमें तब देखने को मिला, जब हमने उत्तर 24 परगना जिले के मिनखां और संदेशखाली के श्रमिकों के साथ काम करना शुरू किया जो पश्चिम बंगाल के पश्चिम बर्दवान जिले के आसनसोल उपखंड की तीन रैमिंग मास इकाइयों में काम करने गए थे।

पेशागत इतिहास, शारीरिक कष्टों और मौतों पर आधारित इन सभी अवलोकनों ने हमें इस तथ्य को समझने और अवधारणा बनाने में मदद की कि सभी राज्यों के श्रमिक ऐसे सिलिका धूल युक्त उद्योग में काम करते थे, जहां धूल का सांद्रण (घनत्व) स्तर बहुत अधिक था। धूल में सिलिकॉन डाईऑक्साइड का प्रतिशत अन्य कार्यस्थलों की तुलना में सर्वाधिक 98.99 से 99.50 प्रतिशत था जिससे श्रमिकों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई थी।

ऑक्युपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ असोसिएशन ऑफ झारखंड (ओएसएचएजे) ने सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सिलिकोसिस की परिभाषा से अपनी असहमति व्यक्त की जिसमें कहा गया है कि सिलिकोसिस लंबे समय तक सिलिका धूल के सांस लेने के कारण होता है। यह परिभाषा सिलिकोसिस की सामान्य परिभाषा नहीं हो सकती है और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है, खासकर जब चट्टान/पत्थर की प्रकृति और विशेष रूप से चट्टान/पत्थर में सिलिकॉन डाईऑक्साइड की मात्रा, उत्पादन प्रक्रिया, धूल की सांद्रता का स्तर और श्रमिकों की रोग प्रतिरोध क्षमता की स्तर ज्ञात हो।

सिलिकोसिस की नई परिभाषा : ओएसएचएजे की परिभाषा के अनुसार, सिलिकोसिस न्यूमोकोनियोसिस का एक विशिष्ट रूप है जो वायुजनित क्रिस्टलीय सिलिका धूल के अल्पकालिक और दीर्घकालिक सांस के कारण होता है और एल्वियोली में जमा हो जाता है। धूल के कणों के चारों ओर रेशेदार ऊतक का निर्माण होता है जो ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड के आसान आदान-प्रदान को बाधित करता है जिससे सांस लेने में बाधा उत्पन्न होती है। सिलिकोसिस की तीव्रता और गंभीरता कुछ कारकों पर निर्भर करती है, जैसे धूल में निहित सिलिकॉन डाईऑक्साइड का प्रतिशत और इसकी सांद्रता, धूल से ग्रस्त कार्यस्थल पर मजदूर द्वारा किए गए कार्य की अवधि और उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने 1995 से 2025 तक सिलिकोसिस की पहचान और उन्मूलन के लिए एक वैश्विक योजना बनाई। लेकिन भारत में सिलिकोसिस की पहचान और उन्मूलन के लिए सरकार और उसके संस्थानों द्वारा की गई पहल पर्याप्त नहीं थी। राज्य और केंद्र सरकारों के पास सिलिकोसिस का कोई डेटाबेस नहीं है। वैश्विक उन्मूलन कार्यक्रम के सभी कदम और उपाय कुछ अध्ययनों व कुछ कार्यशालाओं और सेमिनारों के आयोजन तक ही सीमित थे।

हम रैमिंग मास उद्योग में काम करने वाले श्रमिकों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बोलते रहे हैं और एनएचआरसी द्वारा आयोजित कार्यशाला और सेमिनार में बात करते रहे हैं, लेकिन किसी ने हमारी नहीं सुनी। हालांकि, उक्त कारखानों के श्रमिकों की पीड़ा सामने आई है और उम्मीद है कि सरकार सिलिका धूल के शून्य उत्सर्जन के लिए इंजीनियरिंग उपकरणों द्वारा संयंत्र और मशीनरी को उन्नत करने के लिए कानून लाकर कारखाने के कार्यस्थल में सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपाय करेगी। ऐसे कदम कार्यस्थलों पर श्रमिकों के स्वास्थ्य और जीवन की रक्षा करने और सिलिकोसिस को निर्मूल करना समय की मांग बन गए हैं। यह इसलिए भी जरूरी है कि 2015-16 में भारत में अनुमानित 1.15 करोड़ श्रमिक सिलिका धूल से जुड़े पेशा में कार्यरत थे, यह संख्या 2025-26 तक 5.2 करोड़ तक बढ़ने की उम्मीद है।

रैमिंग मास उद्योग : रैमिंग मास गैर धात्विक खनिज है जिससे 5 माइक्रोन से कम धूल और कण बनाए जाते हैं। इन्हें हाथ से तोड़कर, बालमिल का उपयोग कर मिलिंग, तुड़ाई, छानकर और मिश्रण (2/3 माइक्रोन के पाउडर एवं भिन्न-भिन्न आकार 8,16,40 माइक्रोन के धूलकण) मिलाकर रैमिंग मास उत्पादन किया जाता है। लोहा उत्पादन के लिए ब्लास्ट फर्नेस में प्रतिरोधी लाइनिंग हेतु फायर ब्रिक्स, बिजली के खंभों में लगने वाले इनसुलेटर, कांच और सिलिकॉन होस पाइप इन्हीं से बनते हैं। भारत में धातु उद्योगों की आवश्यकताओं के कारण तीन प्रकार के रैमिंग मास का उत्पादन किया जाता है, जैसे प्रीमिक्स, एसिडिक और न्यूट्रल।

रैमिंग मास के उत्पादन और औद्योगिक उत्पादों की उत्पादन प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में धूल उत्सर्जित होती है। इस धूल की सघनता 99.9 प्रतिशत तक होती है, जो इस उद्योग में काम करने वाले मजदूरों के लिए जानलेवा साबित होती है। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम की चार रैमिंग मास इकाइयों में लगभग 6,000 श्रमिक काम करते थे। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम में 1,000 से अधिक श्रमिकों की सिलिकोसिस से मृत्यु हुई है और 700 श्रमिक सिलिकोसिस से पीड़ित हैं। जबकि कोल्हान कमिश्नरी (सरायकेला-खरसावां, पश्चिमी सिंहभूम) में 5,000 से ज्यादा मौत हो चुकी है। सिलिकोसिस से निपटने के लिए सरकारी नीति अव्यवहारिक है। पिछले 21 वर्षों की जद्दोजहद के बावजूद झारखंड एवं बंगाल के सिलिकोसिस से मृतकों के आश्रितों एवं आक्रान्त मजदूरों के लिए 13 करोड़ 62 लाख रुपए ही आर्थिक सहायता प्रदान कराना संभव हो सका। ट्रेड यूनियन एवं अन्य संस्थाएं इन मुद्दों पर अभी भी चुप्पी साधे हुए हैं। रैमिंग मास का निर्माण झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक में किया जाता है।

(लेखक ऑक्युपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ असोसिएशन ऑफ झारखंड (ओएसएचएजे) के संस्थापक महासचिव हैं)