भारत में पहाड़ों पर अधिक ऊंचाई पर रहने वाले बच्चों के नाटे रह जाने का खतरा कहीं ज्यादा होता है। लेकिन ऐसा क्यों होता है, क्या पोषण की कमी, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा का आभाव, कठोर जलवायु परिस्थितियां और कम पैदावार इसके लिए जिम्मेवार है
शोधकर्ता भी इस बात से सहमत हैं कि भारत भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक ऊंचाई पर रहने वाले बच्चों में विकास के अवरुद्ध होने का खतरा कहीं ज्यादा होता है। इसकी पुष्टि भारतीय शोधकर्ताओं ने अपने एक नए अध्ययन में भी की है। इस अध्ययन के मुताबिक समुद्र तल से 2,000 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई पर रहने वाले बच्चों में नाटे रह जाने की आशंका कहीं ज्यादा होती है, जो 1,000 मीटर या उससे कम ऊंचाई पर रहने वाले बच्चों की तुलना में 40 फीसदी अधिक थी।
इतना ही नहीं रिसर्च से यह भी पता चला है कि ऊंचाई और नाटेपन के बीच यह संबंध ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बच्चों में कहीं अधिक स्पष्ट था। मतलब की कहीं न कहीं जिन बच्चों के घर समुद्र तल से 2,000 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई पर हैं, उनमें कुपोषण का खतरा कहीं ज्यादा है। ऐसे में शोधकर्ताओं ने देश के पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में पोषण कार्यक्रमों को बढ़ावा देने पर जोर दिया है।
यह जानकारी इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज, मुंबई, यूनिवर्सिटी ऑफ लदाख, मणिपाल टाटा मेडिकल कॉलेज से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल बीएमजे न्यूट्रिशन प्रिवेंशन एंड हेल्थ में प्रकाशित हुए हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत में कई पहलों के बावजूद कुपोषण की वजह से होने वाला नाटापन भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक गंभीर मुद्दा है, जो पांच वर्ष या उससे कम उम्र के एक तिहाई बच्चों को प्रभावित कर रहा है। हालांकि अन्य देशों में किए अध्ययनों से पता चला है कि अधिक ऊंचाई पर रहने वाले बच्चों और नाटेपेन के बीच सम्बन्ध है, लेकिन भारत में इसको लेकर अब भी अनिश्चितता बनी हुई है।
भारत में एक बड़ी आबादी समुद्र तल से 2500 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई पर रहती है। यही वजह है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस मुद्दे पर ध्यान दिया है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ऊंचाई और नाटेपन के बीच संबंधों का विश्लेषण करने के लिए 2015-2016 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) के आंकड़ों का सहारा लिया है। अध्ययन के दौरान पांच वर्ष या उससे कम आयु के 167,555 बच्चों से जुड़े आंकड़ों का अध्ययन किया गया। साथ ही अध्ययन के दौरान बच्चों की घरेलु परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा गया था।
वो बच्चे कितनी ऊंचाई पर रहते हैं इसके लिए जीपीएस से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली गई। साथ ही स्टंटिंग को परिभाषित करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों का उपयोग किया गया।
इनमें से 98 फीसदी (164,874) बच्चों का घर समुद्र तल से 1,000 मीटर या उससे नीचे था। वहीं 1.4 फीसदी बच्चों का घर एक हजार से 1,999 मीटर के बीच, जबकि महज 0.2 फीसदी यानी 335 बच्चे 2,000 मीटर या उससे ऊपर रह रहे थे। अध्ययन किए गए दस में से सात बच्चे ग्रामीण थे।
क्या कारण रहे जिम्मेवार
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक अध्ययन किए गए 36 फीसदी बच्चे नाटेपन (स्टंटिंग) का शिकार थे। वहीं 18 से 59 महीनों के बच्चों में यह समस्या बेहद आम थी, इस आयु वर्ग के 41 फीसदी बच्चे नाटेपन से प्रभावित थे। वहीं 18 महीने से कम आयु के बच्चों में यह दर 27 फीसदी थी।
रिसर्च से यह भी पता चला है कि तीसरे या उसके बाद के भाई-बहन के रूप में जन्मे बच्चें को इस समस्या ने कहीं ज्यादा प्रभावित किया था। इन बच्चों में से 44 फीसदी नाटेपन का शिकार थे। वहीं पहले बच्चे में यह आंकड़ा 30 फीसदी दर्ज किया गया। इसी तरह जो बच्चे जन्म के समय छोटे या बहुत छोटे थे उनमें से 45 फीसदी इस समस्या से पीड़ित थे। यदि इससे जुड़े दूसरे कारकों पर गौर करें तो माओं की शिक्षा ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
रिसर्च में माओं की शिक्षा के स्तर में वृद्धि के साथ स्टंटिंग के मामलों में कमी दर्ज की गई थी। गौरतलब है कि उच्च शिक्षा प्राप्त माओं की तुलना में अनपढ़ माओं के बच्चों में नाटेपन की दर दुगने से भी अधिक थी। बता दें कि जिन बच्चों की माओं ने स्कूल नहीं देखा था, उनके 48 फीसदी बच्चे नाटेपन से जूझ रहे थे, वहीं शिक्षित महिलाओं में यह दर 21 फीसदी रही।
शोधकर्ताओं के मुताबिक इसके लिए कई अन्य कारक भी जिम्मेवार थे, जैसे प्रसवपूर्व देखभाल, जिसमें जन्म से पहले क्लिनिक का दौरा, टेटनस टीकाकरण और आयरन एवं फोलिक एसिड की खुराक शामिल हैं। इसी तरह स्वास्थ्य सुविधाओं से दूरी, किसी विशेष जाति या मूल जनजाति से जुड़ाव ने भी नाटेपन की दर को प्रभावित किया था।
शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि अधिक ऊंचाई पर लंबे समय तक रहने से भूख कम हो सकती है, इससे ऊतकों तक ऑक्सीजन के पहुंचने में बाधा आ सकती है, और पोषक तत्वों का अवशोषण सीमित हो सकता है।
इसी तरह ऊंचाई बढ़ने के साथ खाद्य असुरक्षा भी बढ़ जाती है, क्योंकि साधन सीमित होते जाते हैं। इस ऊंचाई पर फसलों की पैदावार कम होती है और जलवायु कहीं अधिक कठोर होती है। इसी तरह, इन क्षेत्रों में पोषण कार्यक्रमों सहित स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करना और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच अधिक चुनौतीपूर्ण होती है।
इस पर भी करें गौर: पोषण की दरकार: अपनी उम्र के लिहाज से ठिगने हैं 31.7 फीसदी भारतीय बच्चे, इस मामले में भी है देश अव्वल
ऐसे में शोधकर्ताओं ने उन क्षेत्रों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करने की बात कही है, जहां यह समस्या कहीं ज्यादा गंभीर है। उनके मुताबिक ऐसे क्षेत्रों में नाटेपन की इस समस्या से निपटने के लिए स्वास्थ्य और पोषण क्षेत्र में ठोस प्रयासों की दरकार है।
देखा जाए तो पहाड़ी क्षेत्रों में कुपोषण को लेकर कहीं ज्यादा जटिलताएं मौजूद हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं ने एक व्यापक रणनीति की आवश्यकता पर जोर दिया है, जो प्रजनन स्वास्थ्य पर ध्यान देने के साथ-साथ महिलाओं में पोषण, शिशु और छोटे बच्चों के लिए संतुलित आहार, और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण पर जोर देती हो।
शोधकर्ताओं ने इस दिशा में साक्ष्य-आधारित नीतियों और केंद्रित प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए किए जा रहे शोधों के महत्व पर भी प्रकाश डाला है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि भारत का हर बच्चा स्वस्थ रूप से विकसित हो सके यह सुनिश्चित करना बेहद महत्वपूर्ण है।
इस बारे में ग्लोबल इंस्टीट्यूट फॉर फूड, न्यूट्रिशन एंड हेल्थ के कार्यकारी निदेशक प्रोफेसर सुमंत्र रे ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, "हाल के वर्षों में, भारत ने सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े प्रयासों में पोषण संबंधी मुद्दों को सफलतापूर्वक संबोधित किया है। इनमें आयोडीन की कमी शामिल है जो अक्सर अधिक ऊंचाई पर रहने से जुड़ी होती है।
भारत को पोषण की है दरकार
यह सही है कि भारत में नाटेपन की समस्या पहाड़ी क्षेत्रों में कहीं ज्यादा विकट है, लेकिन इससे देश के दूसरे राज्य भी सुरक्षित नहीं हैं। गौरतलब है कि भारत में पोषण की जो स्थिति है वो किसी से छिपी नहीं है। यहां लाखों लोगों को पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता, और जिनको मिल भी रहा है उनके भोजन में पोषण की भारी कमी है। इसका खामियाजा बच्चों को भुगतना पड़ रहा है।
देश में कुपोषण की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश में 18.7 फीसदी बच्चे बेहद पतले हैं। वहीं 15 से 24 वर्ष की 58.1 फीसदी बच्चियां खून की कमी का शिकार हैं ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2023 में भी भारत को 125 देशों की सूची में 111वें पायदान पर रखा है, जो देश में बढ़ती भुखमरी और कुपोषण की गंभीर स्थिति को दर्शाता है।
इसी तरह संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी रिपोर्ट में "लेवल्स एंड ट्रेंड इन चाइल्ड मालन्यूट्रिशन 2023" को भारत में कुपोषण की गंभीर स्थिति को उजागर करते हुए जो आंकड़े जारी किए थे उनके मुताबिक देश में पांच वर्ष या उससे कम उम्र के 31.7 फीसदी बच्चे नाटेपन (स्टंटिंग) का शिकार हैं।
मतलब की यह बच्चे अपनी उम्र के लिहाज से ठिगने हैं। हैरानी की बात है कि वैश्विक स्तर पर पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में व्याप्त स्टंटिंग के मामले में भारत की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुनिया का हर चौथा स्टंटिंग प्रभावित बच्चा भारतीय है। यानी की दुनिया में जितने भी पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे नाटेपन का शिकार हैं उनमें से 24.6 फीसदी भारतीय हैं।
इंपीरियल कॉलेज लंदन द्वारा भारत में बच्चों की लम्बाई को लेकर किए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि देश में किशोर बच्चों की लम्बाई कई अन्य देशों के बच्चों की तुलना में काफी कम है। इस रिसर्च के मुताबिक भारतीय किशोर, नीदरलैंड के समान आयु वर्ग के बच्चों की तुलना में 15.2 सेमी ठिगने हैं। आज देश में चुनावी माहौल है, लेकिन इन सभी के बीच स्वास्थ्य से जुड़े यह अहम मुद्दे कहीं न कहीं नदारद हैं, जिनपर गंभीरता से गौर किए जाने की जरूरत है, क्योंकि भारत का आने वाला भविष्य इन्हीं बच्चों पर निर्भर है।
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