वैज्ञानिकों को पहली बार इंसान के रक्त में माइक्रोप्लास्टिक की उपस्थिति के सबूत मिले हैं, जो हैरान कर देने वाले हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि दुनिया में आज कोई भी जगह ऐसी नहीं है जो प्लास्टिक प्रदूषण से बची हुई है। गौरतलब है कि इससे पहले गहरे समुद्रों से लेकर पहाड़ की ऊंचाइयों तक पर इसके होने के सबूत मिल चुके हैं। ऐसे में रक्त में इसका पाया जाना एक बड़ी चिंता का विषय है।
इससे जुड़ा शोध आज जर्नल एनवायरनमेंट इंटरनेशनल में प्रकाशित हुआ है। गौरतलब है कि वैज्ञानिकों द्वारा जांच किए गए लगभग 77 फीसदी लोगों के रक्त में माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े मिले हैं। रक्त में इनका पाया जाना एक बात और स्पष्ट करता है कि माइक्रोप्लास्टिक के यह कण शरीर में एक जगह से दूसरी जगह जा सकते हैं। साथ ही शरीर के अंगों में जमा हो सकते हैं।
अपने इस शोध में वैज्ञानिकों ने नीदरलैंड में 22 लोगों के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया था। यह सभी लोग व्यस्क और स्वस्थ थे। रिसर्च में इनमें से 17 लोगों के रक्त में माइक्रोप्लास्टिक के कण पाए गए थे। इनमें से आधे नमूनों में पीईटी प्लास्टिक (पॉलीइथाइलीन टेरीप्थेलेट) पाया गया, जिसका उपयोग आमतौर पर पेय पदार्थों की बोतलों को बनाने और कपड़ों में किया जाता है।
वहीं करीब एक तिहाई (36 फीसदी) नमूनों में पॉलिस्ट्रीन पाया गया था, जिसका उपयोग खाद्य पदार्थों और अन्य उत्पादों की पैकेजिंग के लिए किया जाता है। जबकि करीब एक चौथाई नमूनों (23 फीसदी) में पॉलीइथाइलीन मिला था। हालांकि यह स्वास्थ्य को किस तरह प्रभावित कर सकते हैं इसका खुलासा अभी नहीं हो सका है।
क्या होता है माइक्रोप्लास्टिक
प्लास्टिक के बड़े टुकड़े जब टूटकर छोटे-छोटे कणों में बदल जाते हैं, तो उन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहते हैं। साथ ही कपड़ों और अन्य वस्तुओं के माइक्रोफाइबर के टूटने पर भी माइक्रोप्लास्टिक्स बनते हैं। सामान्यतः प्लास्टिक के 1 माइक्रोमीटर से 5 मिलीमीटर आकार के टुकड़ों को माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है।
गौरतलब है कि 1907 में पहली बार सिंथेटिक प्लास्टिक 'बेकेलाइट' का उत्पादन शुरू किया गया था, जोकि प्लास्टिक इंडस्ट्री की शुरुवात थी| देखा जाए तो 1950 से लेकर अब तक हम 830 करोड़ टन से ज्यादा प्लास्टिक उत्पादित कर चुके हैं। जिसके 2025 तक दोगुना हो जाने का अनुमान है।
2015 में प्लास्टिक का वार्षिक उत्पादन करीब 35 करोड़ टन था जोकि 1950 के मुकाबले 200 गुना ज्यादा है। चूंकि प्लास्टिक को टूटने और नष्ट होने में बहुत ज्यादा लम्बा वक्त लगता है, इसलिए इसका बहुत बड़ा हिस्सा लम्बे समय तक वातावरण में मौजूद रहता है।
स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक हो सकता है यह माइक्रोप्लास्टिक
इससे पहले भी मानव शरीर में माइक्रोप्लास्टिक के होने के सबूत पाए जा चुके हैं। जर्नल एनवायरनमेंट इंटरनेशनल में प्रकाशित एक अन्य शोध में अजन्मे शिशुओं के प्लेसेंटा (गर्भनाल) में माइक्रोप्लास्टिक का पता चला था।
शोधकर्ताओं का मानना है कि माइक्रोप्लास्टिक के यह कण भ्रूण के विकास को प्रभावित कर सकते हैं। साथ ही शिशुओं के इम्यून सिस्टम पर भी असर डाल सकते हैं, जिससे भविष्य में उनके रोगों से लड़ने की क्षमता पर असर पड़ सकता है।
इसी तरह फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी द्वारा किए एक अन्य अध्ययन में सामने आया था कि शरीर में पहुंचकर माइक्रोप्लास्टिक कोशिकाओं की कार्यप्रणाली को प्रभावित कर सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार एक बार जब माइक्रोप्लास्टिक सांस या किसी अन्य माध्यम से शरीर में पहुंच जाता है, तो वो कुछ दिनों में ही फेफड़ों की कोशिकाओं के मेटाबॉलिज्म और विकास पर असर डाल सकता है और उसकी रफ्तार को धीमा कर सकता है। इतना ही नहीं यह कोशिकाओं के आकार को भी प्रभावित कर सकता है।
वहीं जर्नल ऑफ हैजर्डस मैटेरियल्स लेटर्स में प्रकाशित शोध में सामने आया था कि हमारी रोजमर्रा की चीजों जैसे टूथपेस्ट, क्रीम आदि से लेकर हमारे भोजन, हवा और पीने के पानी तक में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक के कण बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स को 30 गुणा तक बढ़ा सकते है।
इतना तो स्पष्ट है कि जिस तरह से दुनिया भर में प्लास्टिक का उत्पादन और उपयोग बढ़ रहा है, वो पर्यावरण के लिए बड़ी समस्याएं पैदा कर रहा है। ऊपर से जिस तरह शरीर में इसके मिलने के नित नए सबूत सामने आ रहे हैं, वो बड़े खतरे की ओर इशारा करते हैं। ऐसे में इससे निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई करने की जरुरत है।