स्वास्थ्य

50 फीसदी से भी कम प्रभावी रह गई हैं बच्चों को संक्रमण के लिए दी जाने वाली कई एंटीबायोटिक दवाएं

रिसर्च से पता चला है कि भारत सहित दुनिया के कई देशों में बच्चों और शिशुओं को निमोनिया, सेप्सिस और मेनिनजाइटिस जैसे संक्रमण के लिए दी जाने वाली कई एंटीबायोटिक दवाएं अब 50 फीसदी से भी कम कारगर रह गई

Lalit Maurya

क्या हो यदि आपको पता चले की जिन दवाओं को आप अपने बच्चों को जल्दी स्वस्थ होने के लिए दे रहे हैं, वो पहले जितनी प्रभावी नहीं रह गई हैं। खबर आपको परेशान कर सकती है, लेकिन सच है।

जर्नल द लैंसेट रीजनल हेल्थ-साउथईस्ट एशिया में प्रकाशित एक नई रिसर्च से पता चला है कि भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में बच्चों और शिशुओं को निमोनिया, सेप्सिस और मेनिनजाइटिस यानी दिमागी बुखार जैसे आम संक्रमणों के लिए दी जाने वाली कई एंटीबायोटिक दवाएं अब 50 फीसदी से भी कम कारगर रह गई हैं।

यह वो दवाएं हैं जिनकी सिफारिश स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी की है। सिडनी विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए इस अध्ययन के मुताबिक इसके लिए बढ़ता एंटीबायोटिक प्रतिरोध (एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेन्स) जिम्मेवार है, जो भारत सहित दूसरे देशों में तेजी से पैर पसार रहा है। इतना ही नहीं शोध के अनुसार एशिया-प्रशांत क्षेत्र में स्थिति बेहद चिंताजनक है, जहां बैक्टीरिया तेजी से इन दवाओं के प्रति प्रतिरोधी होते जा रहे हैं।

वहीं दक्षिण-पूर्व एशिया और प्रशांत क्षेत्र के साथ-साथ इंडोनेशिया और फिलीपींस में स्थिति सबसे ज्यादा खराब है, जहां एंटीबायोटिक प्रतिरोध के चलते हर साल हजारों बच्चों की मौतें हो जाती है।

गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही एंटीबायोटिक प्रतिरोध को दुनिया के सामने मौजूद स्वास्थ्य से जुड़े दस सबसे बड़े खतरों में शुमार कर चुका है। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 2017 में जारी आंकड़ों को देखें तो सेप्सिस के करीब आधे मामले बच्चों में सामने आए थे। आंकड़े दर्शाते हैं कि उस वर्ष में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में इस गंभीर संक्रमण के दो करोड़ मामले सामने आए थे। इतना ही नहीं इनमें से हर साल करीब 29 लाख बच्चों की असमय मौत हो जाती है।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि हर साल करीब 30 लाख नवजात सेप्सिस का शिकार बन जाते हैं, जिनमें से करीब 570,000 नवजातों की मौत हो गई थी। विडम्बना देखिए की इनमें से कई मौतें इसलिए हो गई थी क्योंकि हमारे पास प्रतिरोधी बैक्टीरिया के खिलाफ कारगर एंटीबायोटिक्स दवाएं नहीं हैं।

अध्ययन इस बात के बढ़ते सबूतों की ओर भी इशारा करता है कि बच्चों में सेप्सिस और मेनिनजाइटिस जैसे गंभीर संक्रमण पैदा करने वाले बैक्टीरिया अक्सर सामान्य एंटीबायोटिक्स पर प्रतिक्रिया नहीं कर रहे हैं। शोधकर्ताओं ने इस बात पर भी जोर दिया गया है कि एंटीबायोटिक्स दवाओं के उपयोग के लिए जारी वैश्विक दिशानिर्देश अब पुराने हो चुके हैं और उन्हें अपडेट करने की आवश्यकता है। बता दें कि इस सन्दर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन के सबसे नवीनतम दिशानिर्देश 2013 में प्रकाशित हुए थे।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 11 अलग-अलग देशों से लिए बैक्टीरिया के 6,648 नमूनों का विश्लेषण किया है। उन्होंने यह पता लगाने के लिए एक विशेष मॉडल का उपयोग किया कि विभिन्न एंटीबायोटिक्स इन बैक्टीरिया के खिलाफ कितने कारगर हैं।

सेप्सिस और मेनिनजाइटिस के आधे से भी कम मामलों में प्रभावी रह गया है जेंटामाइसिन

इस रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि एंटीबायोटिक सेफ्ट्रिएक्सोन, नवजात शिशुओं में सेप्सिस या मेनिनजाइटिस के हर तीन में से केवल एक मामले में प्रभावी रह गया है। बता दें कि ऑस्ट्रेलिया में यह एंटीबायोटिक बड़े पैमाने पर बच्चों में होने वाले अन्य संक्रमण जैसे निमोनिया आदि के लिए दिया जाता है। इसी तरह दूसरा एंटीबायोटिक जेंटामाइसिन को लेकर आशंका है कि वो बच्चों में सेप्सिस और मेनिनजाइटिस के आधे से भी कम मामलों (45 फीसदी) में प्रभावी रह गया है।

जेंटामाइसिन को अक्सर अमीनोपेनिसिलिन के साथ दिया जाता है, लेकिन पता चला है कि एमिनोपेनिसिलिन भी शिशुओं और बच्चों में रक्तप्रवाह से जुड़े संक्रमण के इलाज में बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं रह गया है। नवजात शिशुओं में होने वाले संक्रमण सेप्सिस और मेनिनजाइटिस के लिए दिया जाने वाला एमिनोपेनिसिलिन भी केवल 26 फीसदी मामलों में कारगर था।

यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर फोबे विलियम्स भी बच्चों में बढ़ते रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) को लेकर चिंतित हैं। उनका कहना है कि वैश्विक स्तर पर बच्चों में विभिन्न दवाओं के प्रति प्रतिरोधी जीवाणु संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं। उनका कहना है कि, "हम इस समस्या से अछूते नहीं हैं, रोगाणुरोधी प्रतिरोध हमारे दरवाजे पर खड़ा है।"

उनके मुताबिक वयस्कों की तुलना में बच्चों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि नई एंटीबायोटिक दवाओं का परीक्षण और बच्चों के लिए उपलब्ध कराए जाने की संभावना कम रहती है। उन्होंने चेताया है कि, "हम इस मुद्दे को और नजरअंदाज नहीं कर सकते, एंटीबायोटिक प्रतिरोध जितना हम समझ रहे हैं उससे कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में आक्रामक मल्टीड्रग-प्रतिरोधी संक्रमणों से निपटने और हर साल हजारों बच्चों की होने वाली मौतों को जिन्हें टाला जा सकता था, रोकने के लिए तत्काल नए समाधान खोजने की आवश्यकता है।"

डॉक्टर विलियम्स ने इस बात पर भी जोर दिया है कि बच्चों में एंटीबायोटिक प्रतिरोध से निपटने का सबसे प्रभावी तरीका विशेष रूप से बच्चों और नवजात शिशुओं के लिए डिजाईन किए नए एंटीबायोटिक उपचारों पर शोध के लिए वित्त पोषण को प्राथमिकता देना है।

उनके मुताबिक एंटीबायोटिक को लेकर की जा क्लिनिकल रिसर्च में वयस्कों पर ध्यान केंद्रित रहता है और अक्सर बच्चों और नवजात शिशुओं को छोड़ दिया जाता है। इसका मतलब है कि हमारे पास नए उपचार के लिए बहुत सीमित विकल्प और आंकड़े हैं। यह अध्ययन एएमआर की मौजूदा स्थिति की निगरानी के लिए उच्च गुणवत्ता वाले आंकड़ों की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालता है ताकि इसके उपचार के लिए जारी किए जाने वाले दिशानिर्देशों में समय पर बदलाव किए जा सकें।

भारत सहित पूरी दुनिया में तेजी से पैर पसार रहा है रोगाणुरोधी प्रतिरोध

वहीं संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी नई रिपोर्ट "ब्रेसिंग फॉर सुपरबग" से पता चला है कि आने वाले 27 वर्षों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध से मरने वालों का आंकड़ा बढ़कर दोगुणा हो जाएगा। गौरतलब है कि 2019 में रोगाणुरोधी प्रतिरोध से मरने वालों की संख्या करीब 50 लाख थी, जिसके 2050 तक बढ़कर सालाना एक करोड़ हो जाने की आशंका जताई जा रही है। देखा जाए तो यह आंकड़ा 2020 में कैंसर से होने वाली मौतों के लगभग बराबर है।

जर्नल लैंसेट में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक रोगाणुरोधी प्रतिरोध हर साल मलेरिया और एड्स से भी ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। गौरतलब है कि 2019 में वैश्विक स्तर पर एड्स से 6.8 लाख लोगों की जान गई थी। वहीं मलेरिया 6.3 लाख लोगों की मौतों की वजह था। यदि संक्रमण से होने वाली मौतों को देखें तो इस लिहाज से एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का नंबर कोविड-19 और ट्यूबरक्लोसिस (टीबी) के बाद आता है। इसी तरह आंकड़े दर्शाते हैं कि 2000 से 2018 के बीच मवेशियों में पाए जाने वाले जीवाणु तीन गुना अधिक एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स हो गए हैं, जोकि एक बड़ा खतरा है, क्योंकि यह जीवाणु बड़े आसानी से मनुष्यों के शरीर में भी प्रवेश कर सकते हैं।