इस देश में 24 मार्च, 2020 को सूरज डूबने के बाद का अंधियारा अब भी कई जिदंगियों के लिए खत्म नहीं हुआ है। 25 मार्च, 2020 की सुबह जब सूरज निकला तो संपूर्ण भारत अपने घरों में पूरी तरह से कैद हो चुका था। यह समूची पीढ़ी के लिए एक नए और डराने वाले सुबह के अनुभव का दिन था। उन लोगों के लिए और भी जो मेहनत और मजदूरी पर आश्रित थे। यह डर अब भी करोड़ों श्रमिकों के मन में गुथा और समाया है। करीब एक बरस बाद भी उनकी जिंदगी वापस पटरी पर ठीक से लौट नहीं पाई है। कैंलेडर पर 2021 लिखा है लेकिन जिंदगी में अनिश्चितिता का डर वही का वही है। डाउन टू अर्थ ने एक वर्ष पहले लॉकडाउन के भुक्तभोगी हुए
श्रमिकों के साथ पैदल यात्रा की थी अब उनसे एक वर्ष बाद बातचीत की है। जानिए क्या खोया और क्या पाया :
दुनिया में सबसे कड़ा लॉकडाउन (25 मार्च-31 मई 2020) भारत में लगाया गया। करीब एक साल पहले अप्रैल, 2020 में यह टिप्पणी ऑक्सफोर्ड के एक वरिष्ठ विश्लेषक ने की थी। केंद्र सरकार के मुताबिक एक करोड़ श्रमिकों को अपने घर-गांव लौटना पड़ा था। इनमें 50 फीसदी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार की थी।
एक बार फिर कोरोना संक्रमण के बढ़ते हुए मामलों ने महाराष्ट्र, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में श्रमिकों के बीच लॉकडाउन की सुगबुगाहट को तेज कर दिया है। दोबारा से लॉकडाउन की मंद आवाजें कर्ज और पारिवारिक जिम्मेदारी से लदे हुए श्रमिकों के मन में किसी हथौड़े की चोट के मानिंद गूंज रही हैं। आप इस बात से अंदाजा लगाएं कि लॉकडाउन का डर कुछ ऐसा था कि कुछ श्रमिकों ने काम न मिलने पर अपने पड़ोसी देश नेपाल को कर्मक्षेत्र बना लिया। स्नातक तक की शिक्षा लेने के बावजूद अब भी मजदूरी करना ऐसे श्रमिकों की नियति बन गई है।
प्रवासी श्रमिक लवकुश कुमार गौतम उत्तर प्रदेश के बहराइच जिल में महसी तहसील के पिपरी मोहन गांव में रहते हैं। अभी वह अपने गांव में ही हैं और होली त्यौहार का इंतजार कर रहे हैं। लॉकडाउन के दर्मियान काम खत्म होने के कारण मई 2020 में उनको पंजाब के जालंधर से वापस अपने गांव लौटना पड़ा था।
लवकुश कुमार गौतम ने डाउन टू अर्थ से बताया कि नेपाल-भारत सीमा (रूपईडिहा) के पार नेपाल सीमा में कई ईंट-भट्ठे हैं जहां सैकड़ों भारतीय श्रमिकों को न सिर्फ पक्का काम मिल जाता है बल्कि अच्छे पैसे भी मिल जाते हैं। उन्होंने बताया कि गांव से ठेकेदार सैकड़ों श्रमिकों को एकत्र करके नेपाल सीमा पर छोड़ देता है जहां से भट्ठा मालिकों की गाड़ियां श्रमिकों को सीधे ईंट-भट्ठे पर पहुंचा देती हैं।
आखिर भारत के ईंट-भट्ठों को छोड़कर नेपाल जाने की जरूरत क्यों है? लवकुश बताते हैं कि नेपाल के ईंट-भट्ठों के मालिक न सिर्फ एडवांस मेहनताने की राशि हमें देते हैं बल्कि काम करने के दौरान थोड़ी स्वतंत्रता भी देते हैं। दूसरा फायदा होता है कि वहां हमें ज्यादा काम ठेके पर मिल जाते हैं जिसमें पैसे काफी बच जाते हैं।
नेपाल के व्यावसायिक व्यवहार का यह आकर्षण कई प्रवासी मजदूरों को पसंद आया है। इसीलिए कई मजदूर लॉकडाउन के दर्मियान राज्यों के बजाए नेपाल में काम करना पसंद कर रहे हैं। हालांकि, सबकी स्थिति ऐसी नहीं है। कुछ ने फिर से वही रास्ता पकड़ा है जिसे वो छोड़कर आए थे। इन प्रवासी श्रमिकों की जिंदगी लॉकडाउन के बाद बेहद कठिन हो गई है। काम नहीं मिल रहा और आय भी घटकर आधी हो चुकी है।
स्थायी निवासी ः रत्नपुर कुंडा, पुआयां तहसील, उत्तर प्रदेश
लॉकडाउन के दौरान, एक वर्ष पहले की स्थिति : लॉकडाउन के दौरान गांव में मनरेगा का काम दूसरे जॉबकार्ड से किया लेकिन मनरेगा जॉब कार्ड नहीं बन पाया। काम के लिए फिर से गांव छोड़ना पड़ा। ठेकेदार हमारे गांव से कृषि मजदूरी के लिए हरियाणा और पंजाब ले गया था।
लॉकडाउन के एक बरस बाद की स्थिति : लॉकडाउन के दौरान गांव में मनरेगा का काम तो किया लेकिन कुछ नहीं मिला। हरियाणा के रेवाड़ी के आगे जरथल गांव में कृषि मजदूरी के लिए एक ठेकेदार ने हमें काम दिलवाया था। हमें गेहूं काटना है इसके लिए प्रति एकड़ 2700 रुपए मजदूरी तय हुई थी। हालांकि अभी होली है और सभी लोग घर जाना चाहते हैं ,मालिक हमारा पैसा नहीं दे रहा है। हम फंस गए हैं, खेत के बीच एक मकान है और हम 17-18 लोग उसी में ठहरे हैं।
जोगिंदर सिंह ः मिस्त्री और सब्जी ढ़ोने का काम
स्थायी निवासी - सुदामा चौक गांव, देवरिया, उत्तर प्रदेश
लॉकडाउन के दौरान, एक वर्ष पहले की स्थिति :
लॉकडाउन का तीसरा चरण था और काम छिन चुका था। गाजियाबाद ओखला मंडी से काम छोड़कर करीब 1000 किलोमीटर दूर वापस उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला अपने सब्जी ढ़ोने वाले ठेले से ही निकल गए। अमरोहा से पहले बृजघाट पर जोगिंदर का ठेला पुलिस वालों ने जब्त कर लिया। जोगिंदर ने कहा कि बिना ठेले के वे गांव में भूखे मर जाएंगे। किसी तरह ठेले के साथ मई, 2020 महीने में वे अपने गांव पहुंच गए।
लॉकडाउन के एक वर्ष बाद की स्थिति :
जोगिंदर को करीब 9 महीने बाद गांव से वापस फिलहाल गाजियाबाद लौटना पड़ा है। काम की तलाश में आए जोगिंदर जब शहर पहुंचे हैं तो उनके सिर पर 28 हजार रुपए का कर्ज चढ़ चुका है। लॉकडाउन में आनन-फानन में वो भागे तो कमरा छोड़ नहीं पाए थे, मकानमालिक ने 10 महीने का किराया मांगा है। फिलहाल अब वे गाजियाबाद में चुनाई का काम कर रहे हैं। उनकी ठेलिया गांव में है।
वे डाउन टू अर्थ से कहते हैं " बहुत बदल गया है शहर। काम ही नहीं है। पहले जबरदस्ती 2 से 3 दिन की छुट्टी करनी पड़ती थी। महीने की आय 20 से 25 हजार रुपये तक हो जाती थी अब यह घटकर आधी हो गई है। महज 14- 15 हजार रुपए ही जुटते हैं। महीने में करीब 12 दिन खाली चले जाते हैं।
नाम - राम गोपाल, उम्र 38 वर्ष
स्थायी निवास: संभल जिला, गुरसुरी गांव, चंदौली तहसील, उत्तर प्रदेश
लॉकडाउन में स्थिति, करीब एक साल पहले : लॉकडाउन के चलते दिहाड़ी का काम खत्म हो गया था। लॉकडाउन के दौरान तीसरे चरण (मई, 2020) के दौरान पूरे परिवार समेत गांव को लौटना पड़ा। जिस गाड़ी को इन्होंने 20 हजार रुपए दिए थे वह बृजघाट पर रास्ते में ही उतार कर भाग गया था। पूरे परिवार को खुले मैदान में भूखे-प्यासे रात बितानी पड़ी थी।
अब करीब एक साल बाद : पंजाब के मोहाली में ईटा-गारा ढ़ोने का काम करते हैं। तीन बेटियां और दो बेटे हैं। माता का देहांत हो गया है इसलिए अभी घर आया हूं। बिना काम किए कहां गुजारा होता है। सिर पर 2 फीसदी ब्याज के साथ करीब 15 हजार का कर्ज था, अब 3 से 4 हजार रुपए देना रह गया है। लॉकडाउन के बाद काम मिलना काफी कम हो गया है। होली के बाद फिर से घर जाना होगा।
नाम ः रमेश कुमार गौतम, राजमिस्त्री
स्थायी निवास ः पिपरी मोहन गांव, बहराइच, उत्तर प्रदेश
लॉकडाउन में स्थिति, करीब एक साल पहले : लॉकडाउन के लंबे चरण में काम की तलाश में वहीं बैठे रहे। लगा था कि लॉकडाउन खुल जाएगा। हालांकि, जब पैसे खत्म हो गए तो 13 मई, 2020 को पंजाब के जालंधर से हम वापस गांव को लौटे। गांव आए तो एक बीघा खेत गिरवी रखकर 15 हजार रुपए कर्ज लेना पड़ा।
लॉकडाउन के करीब एक वर्ष बाद : इसी वर्ष हमने बीए की फाइनल परीक्षा पास की है। मजदूरी जारी है। हम अगस्त, 2020 में ही वापस काम की तलाश में पंजाब के जालंधर लौट आए। तबसे राजमिस्त्री का काम कर रहे हैं। जब तक पैसा वापस नहीं होगा तब तक हमारा खेत जोतने और बोने के लिए साहूकार के पास ही रहेगा। कोशिश कर रहे हैं कि यह कर्ज जल्द उतर जाए।