स्वास्थ्य

जीवन भक्षक अस्पताल-1: देश के अस्पतालों में हर एक मिनट पर एक नवजात शिशु की मौत

देश के अस्पतालों में औसत 1452 नवजात शिशुओं की मृत्यु एक दिन में होती है। वहीं एक घंटे में 60 और एक मिनट में एक नवजात शिशु की मृत्यु अस्पतालों में होती है।

Banjot Kaur, Vivek Mishra

इस देश में जच्चा-बच्चा कैसे सुरक्षित रह सकते हैं, जब स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर अस्पताल तक लोगों को समय से उपचार नहीं मिल रहा। संस्थागत प्रसव के बाद एक भी बच्चे की मौत तक व्यवस्था पर सवाल जिंदा बना रहेगा। रोजाना जन्मने वाले कुल शिशुओं मे 50 फीसदी की हिस्सेदारी अकेले आठ ईएजी राज्य करते हैं। यहां स्थितियां बेहद जर्जर हैं। वहीं अन्य राज्यों में भी स्थिति को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। राज्यों के जरिए आम जन को समय से स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की चुनौती हो या फिर बुनियादी संरचनाओं का अभाव। यह कमियां मिलकर जीवन रक्षक अस्पतालों को जीवन भक्षक बना रहे हैं। पढ़िए स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर दहलीज पर नवजीवन कैसे दम तोड़ता है:

देश के सरकारी अस्पतालों में 2017 में करीब 529,976 नवजात शिशुओं की मौत हुई है। यह अब तक का उपलब्ध सरकारी आंकड़ा है। इस आंकड़े का विश्लेषण और ग्राउंड चेक यही बताता है कि जच्चा-बच्चा को संभालने वाला सरकारी स्वास्थ्य तंत्र अब भी जर्जर हैं। खासतौर से किसी भी राज्य के जिले में मुख्य अस्पताल समेत सभी सरकारी स्वास्थ्य केंद्र सुरक्षित तरीके से बच्चे को जन्म देने और 28 दिनों के भीतर उसे बचाने की बड़ी चुनौती का सामना करने में नाकाम हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गुजरात के सरकारी अस्पतालों में बच्चों की मौत के हाल-फिलहाल जो आंकड़े सामने आए और जिन्होंने वैश्विक सुर्खियां बटोरी हैं, वह चिंताजनक जरूर हैं लेकिन यह एक राज्य का नहीं देश के सभी अस्पतालों में हो रही बच्चों की मौत का गंभीर मामला है और इसे टुकड़ों में नहीं देखा जा सकता। बड़े फलक पर डाउन टू अर्थ का विस्तृत अध्ययन और विश्लेषण इन राज्यों की बड़ी और जमीनी तस्वीर पेश कर रहा है।

2019, फरवरी में राज्यसभा के एक जवाब में सरकार की ओर से नवजात शिशुओं की मृत्युदर के आंकड़े दिए गए थे। इन आंकड़ों के मुताबिक देश में नवजात (नियो-नटल) शिशु मृत्यु दर प्रति हजार में 24 है। एक महीने से कम 28 दिनों की उम्र वाले शिशुओं को नवजात कहा जाता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक 2017 में 2,2104,418 जीवित बच्चों के जन्म पंजीकृत किए गए। शिशुओं के पंजीकृत किए गए जीवित जन्म (लाइव बर्थ) में अस्पताल और घर पर होने वाले प्रसव दोनों शामिल हैं। हालांकि, जटिलता यहीं से शुरू होती है। डाउन टू अर्थ ने एक निश्चित समय में होने वाले नवजात शिशु मृत्यु दर के आंकड़े को समझने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के एक्सपर्ट से संपर्क साधा और अपने विश्लेषण में पाया कि सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जिसमें स्पष्ट और आधिकारिक तौर पर नवजात की मृत्यु के आंकड़े को अलग-अलग करके यह बताया जा सके कि अस्पताल में और अस्पताल से बाहर कितने नवजात शिशुओं की मौते हुई हैं।

स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि देशभर में संस्थागत प्रसव में बढ़ोत्तरी हुई है और अस्पताल से बाहर घरों व अन्य जगहों पर होने वाले प्रसव में काफी कमी आई है। इसलिए नवजात शिशु की मृत्युदर के आंकड़ों का विश्लेषण हमें अस्पताल में होने वाली शिशु मृत्यु के स्पष्ट आंकड़ों के सबसे ज्यादा करीब लेकर जाता है। इन आंकड़ों के साथ हमने विभिन्न राज्यों की ग्राउंड रिपोर्ट भी की है जो आगे आपको बारी-बारी पढ़ने को मिलेगी।

नवजात शिशु मृत्यु के मामले पर इंडियन एकेडमी ऑफ पेडियाट्रिसियन्स के सचिव रमेश कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताया कि नवजात शिशुओं की अधिकांश मृत्यु अस्पतालों में ही होती है।  महज 0.1 फीसदी नवजात शिशुओं की मौत ही अस्पताल से बाहर होती है। वे कहते हैं अधिकांश परिस्थितियों में अभिभावक नवजात को लेकर अस्पताल तक पहुंचने में सक्षम होते हैं। स्थितियां इससे भिन्न हो सकती हैं। इसलिए नवजात शिशु के अस्पतालों में मृत्यु का आंकड़ा ही स्पष्ट गणना के ज्यादा करीब पहुंचाता है। वहीं, एक अन्य एक्सपर्ट का कहना है कि संस्थागत प्रसव दर में बढ़ोत्तरी हुई है और इसका मौका बहुत कम है कि जन्म के 28 दिन के भीतर किसी शिशु को कोई बीमारी होती है तो उसके माता-पिता बच्चे को उस स्वास्थ्य केंद्र पर न ले जाएं जहां वह कुछ ही दिन या हफ्ते पहले जन्मा है।

यदि 2017 में नवजात शिशु की कुल 530,506 मृत्यु संख्या दर्ज हुई। इनमें यदि 0.1 फीसदी अस्पताल से बाहर होने वाले नवजात शिशुओं की मृत्यु संख्या को निकाल दिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि 2017 में 529,976 नवजात शिशुओं की मृत्यु अस्पतालों में हुई। इन आंकड़ों का मतलब है कि देश के अस्पतालों में औसत 1452 नवजात शिशुओं की मृत्यु एक दिन में होती है। वहीं एक घंटे में 60 और एक मिनट में एक नवजात शिशु की मृत्यु अस्पतालों में होती है। इनमें इन्फेंट और पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की मौतों का आंकड़ा शामिल नहीं है। यह सिर्फ 28 दिन की उम्र वाले शिशुओं की मौत का विश्लेषण है।

बच्चों पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था सेव द चिल्ड्रेन ने बताया कि हॉस्पिटल में होने वाली बच्चों की मृत्युदर को निश्चित करना बहुत जटिल है। इसमें कई कारक शामिल होते हैं जैसे अस्पतालों के स्तर , मरीज का प्रकार, रोग की गंभीरता, निजी और सरकारी अस्पताल आदि। अस्पतालों के आंकड़े एचएमआईएस से जुटाए जाते हैं। लेकिन डाटा की गुणवत्ता जांच एक बड़ी चिंता का विषय है। निजी अस्पतालों के आंकड़े जुटाने का कोई तंत्र नहीं है। बहरहाल 0.1 फीसदी शिशुओं की मृत्यु को अस्पताल से बाहर करने के बाद देशभर के अस्पतालों में नवजात शिशुओं की मृत्यु का आंकड़ा बेहद चिंताजनक है।

झारखंड और राजस्थान में एक वर्ष की उम्र वाले बच्चों की मृत्युदर सुधरी लेकिन... 

यदि हम हम नवजात (28 दिन की उम्र) से ऊपर 1 वर्ष की उम्र वाले इन्फेंट बच्चों की बात करें तो सशक्त कार्रवाई समूह (ईएजी) राज्यों में शामिल कुल आठ राज्यों में हाल-फिलहाल की सुर्खियों के विपरीत यह बात सामने आती है कि उत्तराखंड को छोड़कर झारखंड और  राजस्थान व अन्य राज्यों ने बच्चों की मृत्यु दर पर लगाम लगाने में सुधार किया है। यह विश्लेषण दर्शाता है कि राज्यों में सुधार की प्रवृत्ति है लेकिन बहुत मंद : इसे सारिणी में देखिए 

केंद्र सरकार ने मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और उत्तराखंड को ईएजी राज्य बनाया है। इन आठ राज्यों में देश के पचास फीसदी बच्चे जन्म लेते हैं। यदि ध्यान से देखिए तो ईएजी में शामिल राजस्थान ही अकेले शामिल नहीं है। 2019 में राजस्थान के कोटा के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत का मामला छाया था। सारिणी में देखकर यह समझ आता है कि 2013 में राजस्थान में इंफेंट मोर्टेलिटी रेट प्रति 1000 बच्चों पर 47 था वहीं 2017 में यह घटकर प्रति 1000 बच्चों पर 38 हो गया है। 19.1 फीसदी बदलाव शिशु मृत्यु दर में आया है।

अस्पतालों में नवजात शिशुओं की मौते क्यों हो रही हैं? इस सवाल पर गैर सरकारी संस्था सेव द चिल्ड्रेन के डिप्टी डायरेक्टर, हेल्थ एंड न्यूट्रिशन राजेश खन्ना ने बताया कि भारतीय अस्पतालों में नवजात शिशुओं की मृत्युदर की प्रमुख वजह घर पर ही बच्चों के रोग की पहचान में देरी, उपचार के लिए स्वास्थ्य केंद्र से रेफर या परिवहन में होने वाली परेशानी है। इसके अलावा विशिष्ट कारणों में समयपूर्व जन्म, निमोनिया, अंत: प्रसव संक्रमण जटिलताएं व अन्य कारक जिम्मेदार हैं।

देखिए इस मानचित्र में, राज्यों की हालत :

 इन आंकड़ों के विश्लेषण से निकालकर हम आपको इन आंकड़ों की जमीनी सच्चाई के लिए राज्यों के कुछ अस्पतालों की रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे।