दिसंबर 2019 में राजस्थान के कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत के बाद देश में एक बार फिर से यह बहस खड़ी हो गई कि क्या बड़े खासकर सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए भर्ती हो रहे बच्चे क्या सुरक्षित हैं? डाउन टू अर्थ ने इसे न केवल आंकड़ों के माध्यम से समझने की कोशिश की, बल्कि जमीनी पड़ताल करते हुए कई रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार की है। सीरीज की पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि अस्पतालों में औसतन हर मिनट में एक बच्चे की मौत हो रही है। इसके बाद जमीनी पड़ताल शुरू की गई। इसमें आपने पढ़ा, राजस्थान के कुछ अस्पतालों की दास्तान कहती ग्राउंड रिपोर्ट । अब पढ़ें, अगली कड़ी-
मध्यप्रदेश के शहडोल जिला अस्पताल में नए साल के पहले महीने में 8 बच्चों की मौत हो गई। इनमें से 6 बच्चों की मौत 12 घंटे के दौरान ही हो गई। इस मामले ने पूरे देश का ध्यान मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सुविधाओं की तरफ खींचा। सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर के मामले में देश में सबसे आगे (47 बच्चे प्रति 1000 जन्म) है।
शहडोल में मरने वाले सभी बच्चे आदिवासी समाज से ताल्लुक रखते थे। इस मामले के सामने आने के बाद पता चला कि अस्पताल में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी है। अस्पताल में शिशु रोग विभाग में कोई विशेषज्ञ है ही नहीं और विभाग के प्रभारी सिविल सर्जन होने की वजह से इलाज से अधिक प्रशासनिक काम में व्यस्त रहते हैं। सरकार ने पूरे मामले पर जांच के आदेश दिए हैं। चिकित्सकों की कमी से पूरा प्रदेश जूझ रहा है। प्रदेश में विशेषज्ञों के 3278 पदों में अभी 1029 कार्यरत हैं। प्रदेश में करीब 400 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र व कुछ सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र बिना डॉक्टर के हैं।
राजधानी में भी बुरा हाल
प्रदेश में दूर दराज के सरकारी अस्पताल की हालत तो खस्ता है ही, बड़े शहरों के अस्पताल भी बच्चों की जान बचाने में फिसड्डी हैं। दिसंबर महीने में राज्य में सबसे ज्यादा नवजातों ने भोपाल में दम तोड़ा। हमीदिया और जेपी अस्पताल में अकेले दिसंबर महीने में 79 बच्चों की मौत इलाज के दौरान हुई है। दोनों अस्पतालों में एक जनवरी से 31 दिसंबर 2019 के बीच नवजात बच्चों की मौत का आंकड़ा 920 है। यह खुलासा सिक न्यूबोर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) में भर्ती नवजात बच्चों की मौत के आंकड़ो की जांच में हुआ है।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल है गांधी मेडिकल कॉलेज का हमीदिया अस्पताल। यहां शिशु रोग विभाग में प्रदेश के कोने-कोने से बच्चे आते हैं। अस्पताल के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में अस्पताल में 4 हजार से अधिक बच्चों की भर्ती हुई, जिसमें से लगभग 22 फीसदी (800) बच्चों की जान नहीं बचाई जा सकी। हालांकि अस्पताल के चिकित्सक इस स्थिति को सामान्य बताते हैं। अस्पताल के मुताबिक हमीदिया अस्पताल के शिशु रोग विभाग में बच्चे प्रदेशभर से रेफर होकर आते हैं और पहले ही उनकी हालत काफी बदतर होती है। अस्पताल में आधे से अधिक बच्चे मेडिकल कॉलेज के महिला अस्पताल सुल्तानिया अस्पताल से आते हैं और आधे दूसरे अस्पतालों से। भोपाल के दूसरे बड़े अस्पताल जेपी अस्पताल में भी बच्चों की जान बचाने में काफी पीछे है। 1 जनवरी से 31 दिसंबर 2019 के दौरान 1246 बच्चों को भर्ती कराया गया। इसमें से 120 से ज्यादा बच्चों ने दम तोड़ दिया।
बच्चों की मौत पर नेशनल हेल्थ मिशन मध्यप्रदेश के चाइल्ड हेल्थ के डिप्टी डायरेक्टर डॉ. मनीष सिंह ने कहा कि बच्चों की मौत का कोई भी आंकड़ा गंभीर है और इसकी राज्य स्तर पर निगरानी के वक्त तीन बातों का ध्यान रखा जाता है। बच्चों को इलाज मिलने में तीन तरह की देरी होती है। सबसे पहले कम्यूनिटी के स्तर पर देरी होती है, जब बच्चों के माता-पिता बच्चों के बीमारी का लक्षण ने समझकर अस्पताल तक लाने में देरी करते हैं। दूसरे स्तर की देरी अस्पताल के द्वारा रेफरल स्तर पर होती है, जिसमें जल्दी से जल्दी सही अस्पताल में बच्चों को पहुंचाना शामिल है। तीसरे स्तर की देरी होती है अस्पतालों में भीड़ की वजह से इलाज मिलने की देरी।
आंकड़ों के बारे में डॉ. मनीष बताते हैं कि नवजात बच्चों में कम वजन और अंगों के विकसित न होने की वजह से बड़े अस्पतालों में 25 से 35 प्रतिशत तक मृत्यु दर दर्ज किया जाता है। इसमें इनबॉर्न यानि अस्पताल में ही जन्मे बच्चों का मृत्यु दर कुछ कम है। मध्यप्रदेश में एक वर्ष से कम उम्र के नवजात की मृत्यु दर 45 है यानि प्रति हजार जन्म पर 45 मृत्यु। वहीं एक से पांच साल तक के बच्चों में यह दर मात्र 7 है।
मनीष बताते हैं कि एक वर्ष की उम्र से बड़े बच्चों में डायरिया, निमोनिया जैसी बीमारियों के मामले सबसे अधिक आते हैं। राज्य सरकार हर स्तर पर लगातार मृत्यु दर को कम करने की कोशिश में है। अस्पतालों में मिलने वाली सुविधाएं काफी बढ़ी हैं और स्थिति पहले के मुकाबले अच्छी होती जा रही है।
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