स्पीति क्षेत्र में पशुओं के साथ-साथ नीली भेड़ जैसे वन्यजीवों को चरते हुए देखना आम बात है। फोटो साभार: आईस्टॉक
स्वास्थ्य

वन्यजीवों की जगहों पर, घरेलू पशुओं को रखने से हानिकारक कीटों की भारी बढ़ोतरी का खतरा

उत्तर भारत में किए गए शोध के अनुसार, जिन क्षेत्रों में पशु चर रहे थे, वहां टिक्स और घुन की संख्या वन्यजीवों के लिए छोड़े गए क्षेत्रों की तुलना में अधिक पाई गई।

Dayanidhi

एक नए शोध में कहा गया है कि ऐसे वातावरण में कीटों द्वारा फैलने वाली बीमारियों के खतरे की अधिक निगरानी की जरूरत पड़ती है, जहां जानवर और लोग एक साथ रहते हैं।

शोध में शोधकर्ताओं ने पाया कि जंगली जानवरों की जगह घरेलू पशुओं को रखने से मकड़ियों और अन्य छोटे शिकारियों पर असर पड़ सकता है, जो खून चूसने वाले टिक्स और घुन और पत्ती खाने वाले टिड्डों को खाकर पारिस्थितिकी को संतुलित करते हैं।

यह अध्ययन 14 साल साल तक उत्तर भारत के स्पीति क्षेत्र के किब्बर गांव में किया गया। इसमें बाड़ और नियंत्रण भूखंडों में चींटियों, ततैयों, मधुमक्खियों, टिक्स, घुन या माइट्स, मकड़ियों, टिड्डों, भृंगों और अन्य आर्थ्रोपोड्स का अनुसरण किया गया। आर्थ्रोपोड्स जीवों का एक समूह है जिसके जोड़दार पैर और एक कठोर बाहरी आवरण होता है जिसे एक्सोस्केलेटन कहा जाता है।

विश्लेषण के अनुसार, जिन क्षेत्रों में पशु चर रहे थे, वहां टिक्स और माइट्स की संख्या वन्यजीवों के लिए छोड़े गए क्षेत्रों की तुलना में अधिक थी।

अध्ययन के अनुसार, टिक्स जंगली और पालतू दोनों तरह के पशुओं में बीमारी फैलाते हैं, जिससे दुनिया के 80 फीसदी से अधिक मवेशी प्रभावित होते हैं। वे लोगों के लिए भी खतरा पैदा करते हैं।

अध्ययन क्षेत्र में वन्यजीवों में भारल या नीली भेड़, जंगली याक, आइबेक्स और जंगली गधे के मिश्रित झुंड शामिल थे, जबकि घरेलू पशुओं में मवेशी, घोड़े, गधे, बकरियां और भेड़ें शामिल थीं। घरेलू पशुओं वाले क्षेत्रों में पत्ती खाने वाले टिड्डों की बहुतायत और उनका शिकार करने वाली मकड़ियों की कमी देखी गई।

शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया कि इसका मतलब यह है कि देशी वन्यजीवों की कीमत पर पशुधन विस्तार से आर्थ्रोपोड्स पर अलग-अलग प्रभावों के कारण पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ता है। ये अंतर बेहतर भूमि प्रबंधन और पशुपालन के लिए चुनौतियां और अवसर दोनों प्रदान करते हैं।

अध्ययन क्षेत्र में वन्यजीवों में भारल या नीली भेड़, जंगली याक, आइबेक्स और जंगली गधे के मिश्रित झुंड शामिल थे, जबकि घरेलू पशुओं में मवेशी, घोड़े, गधे, बकरियां और भेड़ें शामिल थीं।

इकोलॉजिकल एप्लीकेशन में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, टिड्डों की बहुतायत के कारण पशुओं के चरने के लिए उपयोग की जाने वाली वनस्पति नष्ट हो सकती है, जबकि टिक्स और माइट्स की अधिकता के कारण वेक्टर जनित रोगों का खतरा बढ़ जाता है।

वन हेल्थ दृष्टिकोण

शोधकर्ता के मुताबिक, इन प्रभावों के लिए योजनाबद्ध काम करें की जरूरत है, जो संयुक्त राष्ट्र के वन हेल्थ दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है। जिसका उद्देश्य लोगों, जानवरों और पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को संतुलित करना और जूनोसिस को नियंत्रित करना है, ऐसी बीमारियां जो जानवरों और मनुष्यों के बीच फैलती हैं

शोध के निष्कर्ष उन पारिस्थितिकी तंत्रों में वेक्टर जनित रोग के खतरों की निगरानी की जरूरत को सामने लाते हैं जहां जंगली जानवरों, घरेलू पशुओं और लोगों के बीच घनिष्ठ संबंध है।

मकड़ियां और अन्य आर्थ्रोपोडा पोषक चक्रण, परागण और बीज फैलाव जैसे पारिस्थितिकी कार्य करते हैं, साथ ही टिड्डे और टिक जैसे कीटों का शिकार भी करते हैं। चरने वाले जानवर सीधे आर्थ्रोपोड्स को उनके खाद्य संसाधनों को कम करके प्रभावित कर सकते हैं, साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पति को बदलकर भी प्रभावित कर सकते हैं।

अध्ययन में कहा गया है, शिकारियों के रूप में, मकड़ियां उसी तरह से सामग्री और ऊर्जा प्रवाह को प्रभावित करती हैं जैसे जंगल में भेड़िये और समुद्र में शार्क।

इस प्रकार, लोगों के द्वारा भूमि उपयोग से न केवल बड़े शरीर वाले शिकारियों के माध्यम से, बल्कि मकड़ियों जैसे छोटे शिकारियों के माध्यम से भी व्यापक प्रभाव पड़ सकता है।

अध्ययन में कहा गया है कि भारत के राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के फेलो और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के विशेषज्ञ वर्तमान अध्ययन सहित कोई भी अध्ययन निर्णायक रूप से यह नहीं बता पाया है कि पशुधन के अंतर्गत मकड़ियों की आबादी क्यों कम हो रही है। कौन सी विशेष प्रजातियां प्रभावित हैं और ऐसे कई अध्ययन हैं।

अध्ययन के आंकड़ों में मकड़ियों और कीट शिकारियों की घटती संख्या या पशुओं के चरने वाले क्षेत्रों में टिड्डों की संख्या में वृद्धि के बारे में बताया नहीं गया है। शोधकर्ताओं का सुझाव है कि वनस्पति में बदलाव मकड़ियों की अपने शिकार को पकड़ने की क्षमता पर असर डाल सकता है।

शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि स्पीति क्षेत्र में पशुओं के साथ-साथ नीली भेड़ जैसे वन्यजीवों को चरते हुए देखना आम बात है। पालतू पशु और जंगली चरने वाले स्तनधारियों के बीच बीमारी के संक्रमण के बारे में जानकारी नहीं है। न केवल टिक्स के फैलने को लेकर बल्कि गैस्ट्रो-आंत्र कृमियों के प्रसार को लेकर भी चिंताएं बरकरार हैं।

अध्ययन में कहा गया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी संरक्षण के हित में घरेलू पशुओं, वन्यजीव, वनस्पति, कीटों और मकड़ियों जैसे शिकारी आर्थ्रोपोड्स को जोड़ने वाले सटीक तंत्रों की खोज के लिए आगे और अधिक जांच-पड़ताल की जरूरत है।