सिलिकोसिस मजदूरों के लिए काम कर रहे गैर लाभकारी संगठन ऑक्युपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ असोसिएशन ऑफ झारखंड (ओशाज) इंडिया ने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भेजे ज्ञापन में कहा है कि 2 मई 2022 को सरकार द्वारा तैयार “कारखाना सिलिकोसिस लाभुक सहायता योजना, 2021” के प्रावधानों को संशोधित करने की आवश्यकता है क्योंकि सिलिकोसिस पीड़ितों और सिलिकोसिस मृतकों के आश्रितों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है। ज्ञापन में कहा गया है कि इस योजना को लोग मजदूर विरोधी और छलावा के रूप में देख रहे हैं।
ज्ञापन के अनुसार, यह सच्चाई तब उभरकर सामने आई जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप व जिला कार्यालय के आदेश पर एमजीएम अस्पताल के अधीक्षक ने ने मेडिकल बोर्ड का गठन किया एवं ओशाज इंडिया द्वारा धालभूमगढ़ के मजदूरों की एक्सरे प्लेट की 166 डिजिटल इमेज अस्पताल के अधीक्षक को उनके ईमेल के जरिए 15 नवंबर 2023 को भेजी गई जिसमें से केवल दो मजदूरों कुणाल कुमार और जगन्नाथ पातर को चिन्हित किया जा सका जिनके पास “कारखाना मजदूर” होने का प्रत्यक्ष प्रमाण था। इन दोनों मजदूरों का कृष्णा एंड कृष्णा उद्योग द्वारा ईएसआई एक्ट के तहत निबंधन कराया गया था लेकिन कंपनी द्वारा ईएसआई कॉरपोरेशन में रकम जमा नहीं कराने पर उन्हें ईएसआई अस्पताल में इलाज की सुविधा नहीं मिल सकी। इस कारण ये मजदूर सरकारी एजीएम अस्पताल में भर्ती हुए थे।
ओसाज के अनुसार, सरकार कारखाना मजदूर होने का प्रमाण रहने के बावजूद योजना के तहत सहायता योजना का लाभ नहीं देना चाहती थी। मेडिकल रिपोर्ट में इसे टीबी लिखा जाता रहा है। मामला मीडिया में आने पर एक चिकित्सक ने सिलिको टीबी लिखा। आरोप है कि रांची रिम्स ने भी कुणाल कुमार को भ्रामक रिपोर्ट दी। रांची से लौटकर जब वह एमजीएम अस्तपाल में भर्ती हुए तब फिर से मेडिकल रिपोर्ट में सिलिको टीबी की जगह रिम्स की तरह भ्रामक रिपोर्ट लिखी गई। 19 सितंबर 2023 को कुणाल की मृत्यु हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सिलिकोसिस की पुष्टि हुई। मामले को ठंडा करने के लिए उस वक्त अस्पताल में भर्ती जगन्नाथ पातर को भी मेडिकल बोर्ड ने जांच कर सिलिकोसिस से प्रमाणित कर दिया जो दो साल से नहीं किया जा रहा था।
ओसाज इंडिया का कहना है कि योजना की घोषणा के बाद पूर्वी सिंहभूम के सिर्फ कुणाल कुमार के आश्रित को चार लाख रुपए एवं जगन्नाथ पातर को जीवित रहते समय 1 लाख रुपए की मदद दी गई। यह सिलिकोसिस पीड़ित मजदूरों के अभियान और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप के कारण हुआ, लेकिन मरने के बाद उनके आश्रितों को बकाया रकम अब तक नहीं मिली है। ज्ञापन के अनुसार, जिन मजदूरों के पास कारखाना मजदूर होने का प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, उनकी जांच ही नहीं की जा रही है।
ओसाज इंडिया के महासचिव समित कुमार कार का कहना है कि यह योजना सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारी से मुकरने का स्पष्ट उदाहरण है। उनका कहना है कि पुनर्वास योजना बनाते समय योजना के नाम के आगे “कारखाना” लिखा गया है। योजना के नाम ही मजदूर विरोधी क्योंकि 99 प्रतिशत से अधिक सिलिकोसिस से मृतक मजदूरों एवं पीड़ित मजदूरों के पास ऐसा कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है जिससे यह प्रमाणित हो सके कि वे कारखाना श्रमिक हैं। इसलिए उन मजदूरों को योजना का लाभ नहीं दिया जा रहा है।
ओसाज इंडिया द्वारा मुख्यमंत्री को भेजे ज्ञापन में मांग की गई है कि योजना नाम संशोधित कर “झारखंड कारखाना, खदान एवं असंगठित क्षेत्र सिलिकोसिस चिन्हितकरण एवं लाभुक सहायता योजना” या “झारखंड राज्य सिलिकोसिस चिन्हितकरण एवं लाभुक सहायता योजना” रखा जाए। योजना में रेखांकित परिभाषा में कारखाना को साथ खदान एवं असंगठित क्षेत्र को भी जोड़ा जाए। साथ ही योजना में रेखांकित बिंदु पात्रता व शर्त में कारखाना अधिनियम 1948 के साथ खदान अधिनियम 1952 एवं असंगठित क्षेत्र को भी जोड़ा जाए। इतना ही नहीं पात्रता व शर्त बिंदु 2 में किसी भी सरकारी मान्यता प्राप्त अस्पताल, नर्सिंग होम, संस्था एवं लाइसेंस प्राप्त चिकित्सक समूह द्वारा इलाज एवं निर्गत प्रमाण पत्र के आधार पर सहायता योजना का लाभ दिया जाए।
ओसाज इंडिया का कहना है कि योजना में रेखांकित बिंदु “देय सहायता राशि” में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा निर्देशित हरियाणा सरकार की तर्ज पर आर्थिक सहायता राशि प्रदान की जाए। इसमें मुख्य रूप से सिलिकोसिस होने पर 5 लाख रुपए की मदद, मृत्यु होने पर 1 लाख रुपए, सिलिकोसिस पीड़ित मजदूर को 6,000 रुपए की मासिक पेंशन, सिलिकोसिस से मृतक मजदूर के आश्रित को हर महीने 5,500 रुपए, सिलिकोसिस पीड़ित परिवार की लड़की की शादी के लिए 75,000 रुपए, सिलिकोसिस से मृत्यु होने पर अंतिम क्रिया कर्म के लिए 25,000 रुपए जैसी सहायताएं शामिल है। इसके अलावा सिलिकोसिस पीड़ित परिवार की बच्चों की शिक्षा के लिए वित्तीय सहायता भी दी जाए।
समित कुमार का कहना है कि पिछले 20 वर्षों में कोल्हान कमिश्नरी में सिर्फ रमिंग मास इकाई के 5,000 से अधिक मजदूर बहुत कम उम्र में मर चुके हैं। इसके फलस्वरूप मजदूरों के बच्चों और विधवाओं को अवर्णनीय कष्ट झेलने पड़े हैं। इसकी जिम्मेदारी से सरकार और जन प्रतिनिधि मुकर नहीं सकते।