अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक्स महासंघ (आईएएएफ) ने पिछले वर्ष की शुरुआत में 800 मीटर में दक्षिण अफ्रीका की ओलंपिक पदक विजेता कैस्टर सेमेन्या और अन्य मध्यम दूरी के धावकों के लिए यौन विकास में अंतर से संबंधित नियम बनाए थे। टेस्टोस्टेरोन का स्तर उच्च पाए जाने पर ये नियम बनाए गए और उसे कम करने को कहा गया।
फरवरी, 2019 में सेमेन्या की कानूनी टीम ने दलील दी कि यह नीति अवैध है। लेकिन मई में खेल पंचाट (कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट) ने फैसला सुनाया कि खेलों में भेदभाव कानूनन सही है बशर्ते यह औचित्यपूर्ण हो। आईएएएफ ने सेमेन्या के मामले में जो रास्ता अपनाया है उससे गंभीर कानूनी और नैतिक चिंताएं पैदा होती हैं। इसमें केवल सेमेन्या ही शामिल नहीं है और न ही यह मामला सिर्फ लैंगिक विकास का है बल्कि उससे कहीं ज्यादा है। यह मनुष्य की गरिमा और विश्व प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले हर खिलाड़ी की निजता से जुड़ा मामला है।
इस निर्णय पर पहुंचने के लिए जो अनुसंधान किए गए हैं, उन्हें करने के तरीके से नैतिकता से जुड़ी चिंताओं ने जन्म लिया है। मूलभूत अधिकारों के गंभीर उल्लंघन को लेकर कानूनी चिंताएं सामने आई हैं, खासतौर से जिस तरह अनेक महिला खिलाड़ियों के साथ बर्ताव किया गया है, वह चिंताजनक है।
दो वर्ष पहले मैंने एक पेपर में लिखा था कि आप तब तक खेल सकते हैं जब तक जीत नहीं जाते। इसमें मैंने सेमेन्या के साथ दर्जनों अन्य महिलाओं के मामले से जुड़ी बड़ी नैतिक और कानूनी समस्याओं को समझाने की कोशिश की है।
मेरे विचार से कुछ महिलाओं को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वे अलग हैं। अगर सेमेन्या कुछ अलग होतीं, सुनहरे बालों वाली सुंदर लड़की होती या विजेता न होतीं तो आज हम यह चर्चा ही न कर रहे होते। मुझे ज्यादा चिंता इस बात की है कि अगर खेल पंचाट का फैसला बदला नहीं गया तो यह सोच और व्यवहार अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति को भी प्रभावित कर सकता है जो खेलों को विनियमित करने वाला बेहद महत्वपूर्ण निकाय है। परिणामस्वरूप यह इससे जुड़े सभी संगठनों पर भी प्रभाव डालेगा। इनमें राष्ट्रीय ओलंपिक समितियां और आईएएएफ और फीफा जैसे अंतरराष्ट्रीय महासंघ तथा उनके अधीन आने वाले राष्ट्रीय संघ शामिल हैं। यह बुनियादी तौर पर गलत है।
नैतिकता का सवाल
पहली समस्या तो विश्व एंटी-डोपिंग प्राधिकरण का बर्ताव है। विश्व एंटी-डोपिंग प्राधिकरण और राष्ट्रीय एंटी-डोपिंग प्राधिकरण अन्य खेल निकायों के समानांतर काम करते हैं और उनसे स्वतंत्र रूप से काम करने की आशा की जाती है। विश्व एंटी डोपिंग प्राधिकरण को बिलकुल अलग और स्वंतत्र निकाय होना चाहिए जो खेल महासंघों पर नजर रखते हैं ताकि वे एंटी डोपिंग उपायों का एक समान और सही तरीके से लागू होना सुनिश्चित करें।
लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता। यह कुछ अलग तरीके से काम करता है, जैसे यह विश्व एथलेटिक प्रतियोगिता जैसे आयोजनों में एंटी-डोपिंग जांच करने के लिए जिम्मेदार होगा। यह अपना खुद का एंटी-डोपिंग नियंत्रण केंद्र स्थापित करता है और नमूने इकट्ठे करता है।
प्रक्रिया के तहत जो भी खिलाड़ी विश्व एथलेटिक प्रतियोगिता में भाग लेने का करार करेगा, वह विश्व एंटी-डोपिंग प्राधिकरण को ये जांच करने के लिए सहमति भी देगा। इस सहमति में यह शर्त भी शामिल है कि नियमों के अनुसार ये नमूने 10 वर्ष तक बचाकर रखे जाएंगे। इनकी बाद में दोबारा जांच की जा सकती है और इन्हें एंटी डोपिंग मामलों में अनुसंधान के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है।
वर्ष 2011 और 2013 में आईएएएफ ने खिलाड़ियों को खून और मूत्र, दोनों के नमूने देने का निर्देश दिया। इसकी वजह यह बताई गई कि आईआईएएफ जैविक पासपोर्ट बना रहा है। यह खिलाड़ी का जैविक प्रोफाइल है जो एक लंबी अवधि के दौरान विकसित होता है। अचानक उत्पन्न हुई कोई विषमता यह नहीं बता सकती कि यह डोपिंग के कारण है अथवा किसी अन्य वजह से ऐसा हुआ है।
समस्या तब पैदा हुई जब आईएएएफ ने ये नमूने अपनी मेडिकल टीम, चिकित्सा आयोग को सौंप दिए जिसने खिलाड़ियों के हार्मोन स्तर का पता लगाने के लिए अपना ही अनुसंधान शुरू कर दिया।
आईएएएफ ने दलील दी कि यह डोपिंग के बारे में है। हालांकि एंटी डोपिंग एजेंसी ने निर्णय दिया कि हाइपर-एंड्रिओजीनिजम या यौन विकास में अंतर का एंटी डोपिंग से कोई लेना-देना नहीं है।
इससे यह सवाल खड़ा हुआ कि अगर किसी एक संस्था ने किसी विशेष प्रयोजन के लिए इकट्ठा किए गए नमूने किसी अन्य संस्था को अनुसंधान करने के लिए दिए, जिसकी सहमति नहीं ली गई थी, तो क्या ऐसे नमूने का इस्तेमाल कानूनन सही है?
यहां पढ़ें- क्या है दुत्ती चंद का मामला
आधुनिक जैविक अनुसंधान और चिकित्सा उपचार का नैतिक आधार हेलसिंकी घोषणा है। हालांकि यह अंतरराष्ट्रीय तौर पर कानूनी रूप से बाध्यकारी दस्तावेज नहीं है, फिर भी इसने दक्षिण अफ्रीका सहित कई देशों के लिए मानक तय किए हैं। दक्षिण अफ्रीका ने तो अपने जैव-चिकित्सा संबंधी कानून भी बनाए हैं।
दक्षिण कोरिया ने जहां ये परीक्षण हुए थे, हेलसिंकी घोषणा के परिणामस्वरूप जैव नैतिकता और सुरक्षा अधिनियम बनाया है। इस अधिनियम के अनुसार किसी भी प्रकार का जैव चिकित्सीय अनुसंधान करने के लिए उस व्यक्ति की सहमति लेना अनिवार्य है। मैंने इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले कई खिलािड़यों से बात की। इनमें से किसी को भी नहीं बताया गया था कि इन नमूनों का इस्तेमाल हार्मोन संबंधी अनुसंधान के लिए किया जाएगा।
कई देशों में इसी तरह के नियम हैं। उदाहरण के लिए मोनाको, जहां आईएएएफ स्थित है, में उचित सूचित सहमति लेने का कठोर नियम है।
इन सभी कानूनों में एक बात समान है और वह यह कि किसी भी समय यह सहमति वापस ली जा सकती है और इसके लिए कोई जुर्माना नहीं लगाया जाना चाहिए। इसके साथ ही, उचित सूचित सहमति न लेना अपराध माना जाता है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान आईएएएफ के समक्ष यह मामला बार-बार उठाया गया था लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
मैं अब भी यह देखना चाहता हूं कि क्या ऐसा कोई दस्तावेज या संकेत है कि किसी भी खिलाड़ी को इस अनुसंधान की प्रकृति, अनुसंधानकर्ता, इसके संभावित परिणामों, खिलाड़ियों के लिए इसके क्या मायने हैं तथा इस प्रक्रिया में उनकी पहचान को किस प्रकार गोपनीय रखा जाएगा, जैसे मुद्दों के बारे में उचित जानकारी दी गई है।
आईएएएफ इनमें से कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सका। फिर भी खेल पंचाट ने इन दलीलों को ठुकरा दिया तथा सूचित सहमति न होने के बावजूद इकट्ठा किए गए सभी सबूतों पर विचार किया।
मानवाधिकार
इससे जुड़ा दूसरा प्रमुख मसला मानवाधिकारों से जुड़ा है। मैं जिन अधिकारों की बात कर रहा हूं, वे यूरोपीय मानवाधिकार कन्वेेंशन में दिए गए हैं, विशेष रूप से अनुच्छेद 2 और 8 में इनका जिक्र किया गया है। मैं अनुच्छेद 8 से शुरू करता हूं जो इस मामले में लागू किया जाना चाहिए था और न्यायालय के समक्ष उठाया भी गया था। इसमें यह व्यवस्था है कि हर व्यक्ति को निजता और पारिवारिक जीवन के प्रति सम्मान का अधिकार है। उदाहरण के लिए सोलोमखिन बनाम यूक्रेन मामले में मानवाधिकार न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि किसी भी अनिवार्य चिकित्सा उपचार, चाहे वह मामूली ही क्यों न हो, को इस अधिकार में दखलंदाजी माना जाएगा।
एक स्वस्थ खिलाड़ी को हार्मोन संबंधी उपचार कराने के लिए मजबूर करना निश्चित रूप से अनिवार्य चिकित्सा उपचार है। वे कह सकते हैं कि सेमेन्या के पास विकल्प था, किंतु सच तो यह है कि उसके पास कोई विकल्प था ही नहीं।
यूरोपीय मानवाधिकार और बायोमेडिसिन कन्वेंशन के अनुच्छेद 2 में यह व्यवस्था है कि प्रत्येक मनुष्य का कल्याण समाज के हित से पहले है। यहां तक कि आईएएएफ के संविधान का अनुच्छेद 3 भी नैतिक मूल्यों के साथ मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करता है, जबकि ओलंपिक चार्टर किसी भी तरह के भेदभाव के खिलाफ है और खेलों सहित सभी क्षेत्रों में महिलाओं के विकास, महिलाओं एवं पुरुषों की बराबरी का समर्थन करता है। असलियत में ये सब खोखले वादे साबित हुए हैं।
(लेखक प्रीटोरिया विश्वविद्यालय में प्राइवेट लॉ प्रोफेसर हैं। यह लेख “द कन्वरसेशन” से विशेष अनुबंध के तहत प्रकाशित)