स्वास्थ्य

क्या कोविड-19 टीके का किस्सा खत्म?

भारत का दावा है कि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में टीका अब कोई मुद्दा नहीं हैं, लेकिन कई विकासशील देश इससे असहमत होंगे

Latha Jishnu

कोविड -19 के खिलाफ लड़ाई में सबसे बड़ी खबर 17 जुलाई को आई, जब सरकार ने घोषणा की कि कोरोनावायरस के टीके की दो बिलियन खुराकें दी जा चुकी हैं। सरकार के लिए यह खुशी मनाने का अवसर न भी हो तो संतुष्टि का एक क्षण जरूर होगा क्योंकि दो बिलियन एक विशाल आंकड़ा है, खासकर तब जब भारत में कोरोनावायरस से हुई मौतें वैश्विक चिंता का विषय बन चुकी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के जनसांख्यिकी और महामारी विशेषज्ञों का मानना है कि जून 2020 और जुलाई 2021 के बीच कोरोनावायरस से अनुमानित 32 लाख भारतीयों की जानें गईं, जिनमें से अधिकांश पिछले साल दूसरी लहर के दौरान महामारी का शिकार हुए। उन्होंने भारत सरकार के आधिकारिक आंकड़ों को भी खारिज कर दिया है।

भारत अब सार्स-कोविड-2 वायरस के खिलाफ बेहतर ढंग से सुरक्षित प्रतीत होता है, क्योंकि हमारे देश में 210 करोड़ (पहली और दूसरी डोज को मिलाकर) टीके लगाए चुके हैं। आवर वर्ल्ड इन डेटा (जो कोरोनावायरस के संक्रमण पर नजर रखता है) के अनुसार, 73 प्रतिशत आबादी को देश में इस्तेमाल होने वाले दो-खुराक वाले टीकों का कम से कम एक जैब मिल चुका है, जबकि 67 प्रतिशत आबादी का पूर्ण टीकाकरण किया जा चुका है। वैश्विक आंकड़ों पर नजर डालने से यह साफ जाहिर होता है कि विकासशील दुनिया के अन्य हिस्सों में टीकाकरण दरों की तुलना में भारत ने इस मोर्चे पर काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। कम आय वाले देशों में टीकाकरण की स्थिति निराशाजनक है और केवल 21 प्रतिशत आबादी को एक खुराक मिली है। जैसा कि अनुमान लगाया जा सकता है, सबसे धीमी टीकाकरण दर अफ्रीका की है।

यह एक बार फिर से वैक्सीन इक्विटी और ब्रेटन वुड्स संस्थानों एवं विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा शासित वैश्विक व्यवस्था में निहित अन्याय से लड़ने के लिए विकासशील देशों की अक्षमता पर परेशान करने वाले प्रश्न उठाता है। यह विडम्बना ही है कि वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित सबसे कठिन लड़ाई इन व्यापारिक संगठनों के बीच लड़ी गई, जहां मुट्ठी भर देशों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि बहुसंख्यकों की इच्छा उनके सामने कोई मायने नहीं रखती। इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि भारत और दक्षिण अफ्रीका द्वारा बौद्धिक संपदा अधिकारों पर डब्ल्यूटीओ के कड़े नियंत्रण से छूट के लिए पेश किए गए प्रस्ताव (जिसे ट्रिप्स के नाम से जाना जाता है) को 100 से अधिक सदस्य देशों का समर्थन प्राप्त था। अंततः यह प्रस्ताव, जिसे पहली बार अक्टूबर 2020 में पेश किया गया था और जो करोड़ों जान बचा सकता था (63 लाख और 1.45 करोड़ के बीच), जून में जाकर पास हुआ और वह भी बीस महीने की देरी के बाद।

विश्व स्तर पर टीकाकरण की दर ने विकासशील देशों के समूह के भीतर जीवन रक्षक उपचारों तक पहुंच की अत्यधिक असमान दरों के बारे में बेचैनी पैदा कर दी है। उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका जो छूट प्रस्ताव का सह-प्रायोजक भी था, अपनी आबादी के केवल 32 प्रतिशत से थोड़ा अधिक, यानी 1.9 करोड़ लोगों को पूरी तरह से टीकाकरण करने में कामयाब रहा है। जैसा कि इस कॉलम में कई मौकों पर बताया गया है, भारत ने छूट के प्रस्ताव में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि यह स्पष्ट हो गया था कि डब्ल्यूटीओ केवल टीकों की अनुमति देगा, उपचार की नहीं।

हालांकि भारत सरकार की नीयत पर तभी सवाल उठ गए थे, जब हमने अपनी स्वयं की वैक्सीन विकसित कर ली थी। हमने डब्ल्यूटीओ में बौद्धिक संपदा (आईपी) अधिकारों की छूट का मुद्दा तो उठाया लेकिन भारत में विकसित कोवैक्सीन की तकनीकी जानकारी दुनिया से बांटने की दिशा में हमने कोई कदम नहीं उठाए। नरेंद्र मोदी सरकार का अपनी सार्वजनिक क्षेत्र की निर्माण इकाइयों को भी वैक्सीन का लाइसेंस देने से इनकार करना विशेष रूप से अक्षम्य था, क्योंकि इससे भारत को घरेलू स्तर पर ही नहीं बल्कि कम आय वाले देशों में आपूर्ति के लिए जरूरी टीकों की आपूर्ति बढ़ाने में भी मदद मिलती। आईपी विशेषज्ञों और शिक्षाविदों ने इस रुख की आलोचना की थी, क्योंकि यह बहुपक्षीय मंच पर रखी गई हमारी मांगों के बिलकुल विपरीत था।

इसके बजाय, हमने एस्ट्राजेनेका वैक्सीन कोविशील्ड के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे संयुक्त राष्ट्र-डब्ल्यूएचओ वैक्सीन साझाकरण सुविधा कोवैक्स पर संकट आ गया था। भारत में एस्ट्राजेनेका के अनुबंध निर्माता सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा निर्यात फिर से शुरू करने की अनुमति नवंबर, 2021 के अंत में जाकर दी गई थी। कुल मिलाकर, हमारी कूटनीति कमजोर रही है।

जून के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के दौरान ट्रिप्स छूट के सह-प्रायोजकों के साथ हुई बैठक में केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का बयान और भी आश्चर्यजनक था। समूह को अपनी मांगों पर दृढ़ रहने और पूर्ण छूट से कम पर समझौता नहीं करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए भी गोयल अन्य विकासशील देशों को यह बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे कि टीकों पर रियायत अब आर्थिकी अर्थ नहीं रखती। उनके बयान के मुताबिक, “वैक्सीन की कहानी लगभग खत्म हो चुकी है क्योंकि हमारे पास आवश्यकता से अधिक वैक्सीन हैं। आज हमारे पास भारत में आवश्यकता से अधिक टीके हैं और वे एक्सपायर हो रहे हैं। इसलिए, निवेशक नई परियोजनाओं में निवेश करने में उत्सुकता नहीं दिखाएंगे।” हालांकि वह यहीं नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा, “टीके पहले ही (अपनी ) प्रासंगिकता खो चुके हैं। अब बहुत देर हो चुकी है, ऐसी स्थिति भी नहीं है जहां आप कह सकें कि देर आए दुरुस्त आए। अब टीकों की कोई मांग नहीं है।”

यह सोचने वाली बात है कि इस तरह के बयान को उन लोगों ने कैसे लिया जिन्हें वह संबोधित कर रहे थे। ट्रिप्स छूट प्रस्ताव के सह-प्रायोजकों में अफ्रीका समूह, दि लीस्ट डेवलप्ड कंट्री ग्रुप , बोलीविया, फिजी, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, मंगोलिया, वानूअातू और वेनेजुएला जैसे देश शामिल थे। राजनयिक सूत्र यहां बताते हैं कि टीकों की नई क्षमता भारत के लिए अप्रासंगिक हो सकती है क्योंकि हमने चिकित्सा एवं डायग्नोस्टिक्स पर ध्यान दिया है लेकिन अफ्रीकी देशों के विशाल समूह के लिए यह संभव नहीं है।

इनमें से कई देश टीकों की घोर अपर्याप्त आपूर्ति का सामना कर रहे हैं, वह भी सामान्य से महंगी कीमतों पर। 22 जुलाई, 2022 की नवीनतम गणना में बुर्किना फासो, मलावी, माली, कैमरून, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और बुरुंडी जैसे देश अपनी छोटी आबादी के 10 प्रतिशत का भी टीकाकरण करने में कामयाब नहीं हुए थे। गोयल के ऐसे विचारों से सहयोगियों के अलग-थलग होने और विकासशील विश्व एकजुटता को नुकसान पहुंचने का अंदेशा है।

विश्लेषकों ने बताया कि खाद्य सब्सिडी और कृषि नीतियों पर नई दिल्ली के रुख ने हाल ही में जी-33 समूह को नाराज कर दिया था, जिसने भारत को जिनेवा मंत्रिस्तरीय सम्मलेन के लिए जारी किए गए एक बयान से बाहर करके अपनी नाराजगी स्पष्ट की। भारत के राजनयिकों द्वारा समूह के बहुसंख्यक हिस्से की चिंताओं को स्वीकार करने के त्वरित निर्णय ने संबंधों में दरार आने से बचाया।

इस बीच, दुनिया भर में एक और वायरस के प्रकोप के साथ एक और सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल मंडरा रहा है। मंकीपॉक्स के मामले 38 हजार को पार कर चुके हैं और कई देशों में फैल चुके हैं। ऐसी स्थिति में डब्ल्यूएचओ फिर से बैठक कर रहा है कि क्या इसे अंतरराष्ट्रीय चिंता का सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित किया जाए।