स्वास्थ्य

क्या बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का अधिकार देने के लिए समाज और सरकार तैयार है?

11 अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय नें हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून 2005 की पुनर्व्याख्या कर समाज के मानस को जिलाने का प्रयास किया है

Ramesh Sharma

जमीन, मिट्टी का केवल एक कतरा भर नहीं - बल्कि महिला  समाज के अपने पहचान, सम्मान और गौर का  पैमाना भी है। महिला समाज को उनके भूमि / संपत्ति के अधिकार से वंचित रखना वास्तव में उस आधी आबादी अथवा आधी दुनिया की अवमानना है- जो एक मां, बहन और पत्नी अथवा महिला किसान के रूप में दो गज जमीन और मुट्ठी भर संपत्ति की वाजिब हकदार है। भारत में महिलाओं के भूमि तथा संपत्ति पर अधिकार, केवल  वैधानिक अवमानना के उलझे सवाल भर नहीं हैं बल्कि उसका मूल, उस सामाजिक जड़ता में है जिसे आज आधुनिक भारत में  नैतिकता के आधार  पर  चुनौती दिया  ही जाना चाहिये। भारत, दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है जहां संवैधानिक प्रतिबध्दता और वैधानिक प्रावधानों  के बावजूद महिलाओं की आधी आबादी आज भी जमीन में कहीं अपनी जड़ों की सतत तलाश और तराश में है।  

11 अगस्त 2020 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय नें हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून 2005 की पुनर्व्याख्या करते हुये एक बार फ़िर समाज के उस जनमानस को जिलाने  का प्रयास किया है जो ऐतिहासिक कानून के बाद भी जड़हीन हो चुके ()सामाजिक मान्यताओं के मुगालते में जी रहा है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार पैतृक संपत्तियों पर बेटी का समान अधिकार है। उत्तराधिकार के वैधानिक प्रावधानों के परिधि में बेटी, जन्म के साथ ही पिता की संपत्ति में कानूनन बराबर की हकदार हो जाती है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि भले ही पिता की मृत्यु हिन्दू उत्तराधिकार  (संशोधन) कानून 2005 लागू होने के पहले हो गयी हो, फिर भी बेटियों का माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार रहेगा। अदालत नें तो यहां तक कहा कि बेटी, आजीवन हमवारिस (Coparecenor) ही रहेंगी, उनका यह अधिकार कभी छीना नहीं जा सकता।  

भारत के सर्वोच्च न्यायालय सहित विभिन्न न्यायालयों में संपत्ति के अधिकारों के जो लाखों विवाद बरसों से लंबित हैं और  जिसकी वजह से लाखों महिलायें  अब भी अपने हकों से मरहूम हैं, वह  समाज के जनमानस में बैठे  उस सामाजिक जड़ता  का प्रतीक है जिसे सदियों से समाज अपने अहंकार में ढो रहा है। इसका परिणाम ही है कि संपत्ति पर अधिकारों के लिये  महिलाओं के वैधानिक दावों और नैतिक अनुनयों के बावजूद अब तक मात्र 12 फ़ीसदी महिलाओं को उनका स्थापित अधिकार मिल पाया है। अदालतों में बरसों से लंबित तथाकथित विवादित प्रकरण, उस संकुचित मानसिकता का प्रमाण है जिसे आधी आबादी के अधिकार संपन्न होने से भय और असुरक्षा की आशंका होती है।

भारत के विभिन्न अदालतों में बरसों से लंबित लगभग दो-तिहाई मामले, संपत्ति और भूमि के विवादों से जुड़े हुये हैं। यह वैधानिक जटिलता के साथ-साथ उस सामाजिक मानसिकता और उसके अनिश्चित परिणामों को भी दर्शाता है जो आज भी संपत्ति को अपनें  सम्मान और अधिकार का विषय तो मानता है लेकिन उसे अपने ही माँ, बहन और पत्नी (अर्थात महिलाओं) के साथ साझा नहीं करना चाहता। समाज का यह दोहरा रवैया ही लाखों महिलाओं के अधिकारों को भय और कानून के जटिलताओं में उलझाकर उन्हें वंचित बनाये रखने के लिये जवाबदेह है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा संस्थान (भारत सरकार, 2016) द्वारा संपत्ति और भूमि पर महिलाओं के अधिकारों से संबंधित अध्ययन यह बताता है कि - विभिन्न राज्यों में पूरी भूमि राजस्व व्यवस्था को अब तक महिला भूमि/संपत्ति अधिकारों के अनुरूप ढाला  ही नहीं जा सका है। अर्थात भूमि अधिकारों के लिये जवाबदेह राज्यतंत्रों  की प्रशासनिक इकाइयां अब तक, संपत्ति और भूमि के अधिकारों को महिलाओं के लिये सार्थक बनाने की दिशा में आगे बढ़े ही नहीं हैं।

एकता परिषद द्वारा महिला भूमि अधिकारों को लेकर किया हुआ अध्ययन (2018) यह बताता है कि राज्यों के भूमि राजस्व तंत्र अर्थात प्रशासन में महिला अधिकारियों और कर्मचारियों का अनुपात औसतन  20 फ़ीसदी से भी कम है। प्रशासन में महिला कर्मचारियों और अधिकारियों का अभाव  कहीं कहीं महिलाओं के भूमि और संपत्ति के अधिकारों के अनुत्तरित सवालों के लिये जवाबदेह है।

वर्ष 2011 में जब तत्कालीन संसद सदस्य डॉ एम एस स्वामीनाथन जी के द्वारा 'महिला कृषक हकदारी कानून' का मसौदा संसद में प्राइवेट मेंबर बिल के बतौर सबके सामने रखा गया, तब भी राजनैतिक बिरादरी नें उसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। तब से लेकर महिला अधिकारों के लिये काम करने वाले संगठनों के तमाम अभियानों के बाद भी अब तक यह, राज्यों के राजनैतिक एजेंडा में शामिल नहीं हो  पाया  है। महिला सशक्तिकरण के नाम पर योजनाओं की डुगडुगी बजाने वाले सरकारों के लिये वैधानिक अधिकारों के बजाये, राजनैतिक योजनाओं को वरीयता देने का तार्किक अर्थ है कि महिलाओं के अधिकारों के लिये अभी लंबा संघर्ष शेष है।

विचित्र विरोधाभास है कि मातृशक्ति को आराध्य मानने वाले देश की संसद, सरकार और समाज ने एकजुट होकर आधी आबादी के अपने सपने को पूरी तरह खारिज कर दिया है।बरसों से एकता परिषद और मकाम जैसे अनेक जनसंगठनों नें पुरजोर तरीके से लगातार आंदोलन तो किये लेकिन तमाम नैतिक और राजनैतिक तर्कों के बावजूद, किसी भी सरकारों के द्वारा  महिलाओं के भूमि और संपत्ति के अधिकारों और महिला किसानों की हकदारी के लिये कोई मिसाल कायम नहीं की जा सकी।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि बेटी आजीवन हमवारिस हैं, वास्तव में बेहद महत्वपूर्ण है। महिलाओं के संपत्ति और भूमि के अधिकारों की यह नई वैधानिक व्याख्या उस पूरे समाज और सरकार के लिये वो आईना है जिसमें एक बार हम सबको अपना कद देखने का साहस होना ही चाहिये। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून अथवा मुस्लिम पर्सनल लॉ ने जिस वैधानिक रास्ते को बनाया है उस पर आगे बढ़ना, समाज का अपना मानवीय दायित्व है। और फिर सरकार को भी संबंधित प्रशासनिक तंत्र को उसके अनुरूप बनाते हुये यह प्रतिबद्धता प्रदर्शित करना ही चाहिये कि वह महिलाओं की समानता का पूर्ण पक्षकार है। ऐसा नहीं होने का सरल अर्थ यही मान लिया जायेगा कि आधी आबादी के हक-हुकूक उन्हें सुनिश्चित के लिये हम स्वघोषित तौर पर अयोग्य हैं। 

महात्मा गाँधी का मानना था कि भारत जैसे देश में लोकतंत्र की बुनियादी इकाई परिवार है और होनी भी चाहिये। महिलाओं के संपत्ति, भूमि और समानता के अधिकारों  की मान्यता और उससे उपजे सवालों  का प्रथम समाधान वास्तव में परिवार के बुनियादी और सबसे व्यवहारिक  इकाई में ही /भी संभव है। सरकार और अदालतें, महिलाओं के हकों के लिये नियम-अधिनियम तो बना और बता  सकती हैं, लेकिन जैसा सर्वोच्च न्यायालय के व्याख्या के निहितार्थ थे कि सामाजिक मान्यताओं का कायाकल्प भी होना चाहिये तभी कानून, महिलाओं के अधिकारों को हकीकत में बदल पायेगा। भारत में आधी आबादी के लिये सर्वोच्च न्यायालय का आदेश आज  एक नजीर बनना ही चाहिए, बशर्तें समाज और सरकार दोनों ही आईने के सामने खड़े हो कर अपना कद मापने के लिये तैयार हों महिलाओं के अधिकारों की पगडंडियां वहीं से शुरू होंगी।

(लेखक एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)