स्वास्थ्य

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष: महिला कृषि श्रमिकों के अधूरे अधिकार

महिला कृषि श्रमिकों की मजदूरी और न्यूनतम आय का मसला कभी भी कृषि सुधारों की मुख्यधारा का प्रासंगिक पक्ष नहीं बन पाया।

Ramesh Sharma

भारत की जनगणना (2011) के अनुसार लगभग 10 करोड़ महिलाएं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कृषि श्रमिकों और कृषकों के रूप में कार्यरत हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 84 फीसदी महिलायें अपनी आजीविका और परिवार के भरण-पोषण के लिए कृषि और संबंधित उपक्रमों पर ही निर्भर हैं।

यह जनसंख्या भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिये इसलिए महत्वपूर्ण है कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों में यही बहुसंख्यक जनसमूह है, जो कृषि उत्पादन को संभव और सफल बनाता है। लेकिन आज तक महिला कृषि श्रमिकों को समान मजदूरी के सनातन सवाल और उसके आधे-अधूरे जवाब, समाज और सरकारों के समक्ष मुंह बायें खड़ा है।

कृषि तंत्र में महिला कृषि श्रमिकों के उल्लेखनीय योगदान के बावजूद भी उनके मजदूरी को सुनिश्चित करने की दिशा में अब तक कोई भी विशेष वैधानिक अथवा राजनैतिक प्रयास नहीं हुये हैं।

पुष्पा देवी, बिहार के कृषि संपन्न नालंदा जिले की महिला कृषि मजदूर है। एक भूमिहीन परिवार से होने का स्थायी दंश और अस्थायी मजदूरी के सहारे जिंदा रहने की चुनौती, उसके जैसे ही भोजपुर की ममता और खगड़िया जिले की जानकी देवी का भी फलसफा है।

बिहार के इस अन्नदा क्षेत्र में महिला कृषि श्रमिकों को निर्धारित से कम मजदूरी का भुगतान उन लगभग 10 करोड़ अधिकार विहीन कर दिये गये आधी आबादी का यथार्थ है, जो अब तक तो सरकार और समाज दोनों की प्राथमिकताओं में दर्ज नहीं है।

आज पुष्पा, ममता और जानकी देवी उस दोयम सामाजिक मानसिकता और अक्षम प्रशासनिक तंत्र के ख़िलाफ खड़े हुये हैं - जो आधी आबादी को उनके समानता के अधिकारों से वंचित रखने के लिये जवाबदेह रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व खाद्य और कृषि संगठन का नवीनतम शोध (2017) कहता है कि - महिला कृषि श्रमिकों की सम्मानजनक मजदूरी और महिला किसानों के रूप में उनके अधिकार, परिवार और समाज निर्माण की बुनियादी इकाई है।

उनकी आय में महज 12 फीसदी की बढ़ोत्तरी ही - परिवार सुरक्षा सहित बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका जैसे मानवीय आवश्यकता को औसत रूप से पूरा करने में सक्षम हैं। इसका अर्थ यह भी है कि - महिला कृषि श्रमिकों की निर्धारित आय सुनिश्चित होना पूरे परिवार और समाज के स्वस्थ्य विकास के लिये महत्वपूर्ण माध्यम हो सकता है। लेकिन सरकारें और उसकी जवाबदेह संस्थायें अब तक इस सरल सत्य से अनजान ही रही हैं।

भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट (2018-19) में भी महिला कृषि श्रमिकों के अधिकारों के विषय में कोई जानकारी दर्ज नहीं हैं - गोया वो इस आधी आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा ही नहीं है और न ही उनकी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा, (तथाकथित) विकास की मुख्यधारा का कोई बुनियादी मानक है।

सवाल यह है कि क्या हमारे अपने महिला आयोग भी इन विषयों को महत्वहीन मानते हैं ? या ऐसा मान लिया गया है कि महिला कृषि श्रमिकों की परिस्थितियां, लिखे-समझे जाने योग्य ही नहीं हैं ?

विगत कुछ बरसों में ग्रामीण कृषि के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी उत्तरोत्तर बढ़ती रही है, जो कृषि और कृषकों से जुड़े संस्थाओं की प्राथमिकता सूची में होना था। वर्ष 2021 में लोकसभा में प्रस्तुत जानकारी के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में क्रियाशील पुरुष मजदूरों की संख्या में लगातार गिरावट और महिला (कृषि) मजदूरों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है।

वर्ष 1987-88 में पुरुष तथा महिला कार्यशील मजदूरों का अनुपात 74.5 तथा 84.7 था, जो वर्ष 2020 तक 55.4 तथा 75.7 फीसदी रह गया है। अर्थात भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि तंत्र मुख्य रूप से महिलाओं के कंधों पर आ गया है। इसके परिणामस्वरूप, ग्रामीण महिला कृषि श्रमिकों का पारिश्रमिक भी आनुपातिक रूप से अधिक होना चाहिये था - लेकिन हुआ ठीक विपरीत।

नेशनल सैंपल सर्वे संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट (2017) के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि कार्यों में संलग्न पुरुषों की औसत मजदूरी 264 रुपए तथा महिलाओं की 205 रुपए है। अर्थात खेतिहर महिलाओं की मजदूरी, पुरुषों की तुलना में लगभग 22 फीसदी कम है। इसे समाज और सरकार की समग्र असफलता ही मानना चाहिये कि वे महिला - पुरुष समानता के संवैधानिक मूल्यों और उसके आर्थिक पक्षों को स्थापित कर पाने में अक्षम रहे।

मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल श्योपुर-कराहल क्षेत्र के गांवों से प्रतिवर्ष जीरे की फसल काटने जैसलमेर जाने वाली रज्जो बाई और उसके महिला साथियों की औसत दैनिक मजदूरी मात्र 165 रुपए है। मणिपुर के थोबल जिले की सरला देवी को धान के खेतों में 10 घंटे मेहनत के एवज में महज 170 रुपए मिलते हैं।

बिहार के नवादा जिले की फागुनी देवी को अपने ही गांव में खेती के लिये 175 रुपए की मजदूरी ही मयस्सर होती है। तेलंगाना के वारंगल की वासंती को फसल बुआई-कटाई के दौरान केवल 180 रुपए हाथ में मिलते हैं।

यह औसत मजदूरी यह दर्शाती है कि महिला कृषि श्रमिकों की दशा, आज आजादी के सात दशकों के बाद भी औसत ही रह गयी है। रज्जो बाई, सरला देवी, फागुनी देवी और वासंती उस बहुसंख्यक महिला कृषि श्रमिकों की इकाइयां हैं जिसका समुच्चय - अपने ही गांव, राज्य और देश में दूसरे दर्जे का मान लिया गया।

न्यूनतम मजदूरी क़ानून सहित तमाम श्रम क़ानूनों और नीतियों के कागजी दावों में महिला कृषि श्रमिकों की साख लगातार मिटाई जा रही है। श्रम क़ानूनों के इससे बड़े अवमानना की कोई दूसरी मिसाल नहीं है जहाa लगभग 10 करोड़ महिला कृषि श्रमिकों को बेपनाह छोड़ दिया गया हो।

बिहार के कृषि क्षेत्र में कार्यरत श्रमशक्ति में 80 फीसदी से अधिक भागीदारी महिलाओं की है। लेकिन वास्तविकता यह है कि मात्र 4 फीसदी महिला ही भूमिधारक अर्थात (परिभाषा के अनुसार) किसान हैं। इसका अर्थ यह भी है कि शेष महिलाओं की स्थिति उन दैनिक मजदूरों की है, जिनके मुट्ठी भर मजदूरी से पूरे परिवार का भरण पोषण होता है।

इसीलिये इन महिला कृषि श्रमिकों को भूमि अधिकार सुनिश्चित करते हुये महिला कृषक के मुक़ाम तक ले जाना वास्तविक अर्थों में पूरे कृषि तंत्र का सबसे सार्थक सुधार होगा।

यह महज संयोग नहीं है कि भारत सरकार द्वारा वर्ष 2012 में ‘भूमि सुधारों के लिये गठित कार्यबल’ की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि में महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी को देखते हुये उन्हें भी भूमि अधिकार देकर महिला किसान होने का सम्मान दिया जाना चाहिये।

लेकिन यह संभव हुआ नहीं - इसलिये नहीं कि आधी आबादी के लिये यह सार्थक समाधान नहीं था, बल्कि इसलिये कि यह सरकार की नजर में समाधान ही नहीं था।

दरअसल, महिला कृषि श्रमिकों की मजदूरी और न्यूनतम आय का मसला कभी भी कृषि सुधारों की मुख्यधारा का प्रासंगिक पक्ष नहीं बन पाया। भारत में किसानों की आय दुगुनी करने हेतु संभावित उपाय सुझाने के लिये गठित समिति के रिपोर्ट में भी महिला कृषि श्रमिकों के असमान मजदूरी को सुनिश्चित करने के विषय में विशेष वैधानिक अथवा राजनैतिक प्रस्ताव नहीं हैं।

वास्तव में कृषकों की आय दुगुनी करने के 'ऐतिहासिक कृषि सुधारों' की दिशा में महिला कृषि श्रमिकों की मजदूरी (अथवा आय) भी दुगुनी करना, एक परिवर्तनकारी और निर्णायक कदम हो सकता था। वर्ष 2022-23 तक (पुरुष) कृषकों की आय दुगुनी होने की सीमा रेखा के पीछे, लगभग 10 करोड़ महिला कृषि श्रमिकों का साथ और हाथ होगा इस सत्य के बावजूद भी उनकी भूमिका को कमतर बनाये रखना - संपूर्ण कृषि व्यवस्था की सनातन त्रासदी है।

हालाँकि, वर्ष 2019 में घोषित 'प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि' के निर्धारित मानकों अंतर्गत सभी भूमि स्वामी किसानों को 6000 रुपए प्रतिवर्ष प्रदान करना, एक महत्वपूर्ण पहल जरूर कहा गया लेकिन तब भी जाने अनजाने बहुसंख्यक महिला कृषि श्रमिकों को संभावित लाभों के दायरों से परे रखा गया। कुल मिलाकर महिला कृषि श्रमिकों के मजदूरी के सवालों का कोई भी स्पष्ट उत्तर न होना, एक ऐसा अभिशाप बन चुका है जिसके लिये समाज और सरकार दोनों ही अपने आपको दोषी नहीं मानते।

वर्ष 2011 में जब डॉ स्वामीनाथन द्वारा भारत की संसद में 'महिला कृषक हक़दारी क़ानून' प्रस्तुत किया गया था - तब से अब तक कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी लगभग 4 फीसदी और बढ़ गयी। पुष्पा, फागुनी, जानकी और वासंती उस तीसरी पीढ़ी के खेतिहर मजदूर हैं जिनके पूर्वजों को यह उम्मीद थी कि एक दिन उन्हें भी पुरुषों के बराबर मजदूरी मयस्सर होगी और शायद वे अपनी जमीनों के मालिक भी होंगे।

लेकिन अब भी उनकी उम्मीदें, शेष समाज और सरकार को उनकी अक्षम्य असफलताओं के लिये शर्मसार नहीं करतीं। स्वाधीनता के 75 बरसों के बाद महिला कृषि श्रमिकों के विरूद्ध जारी यह ऐतिहासिक अन्याय समाप्त होनी ही चाहिये - आज और अभी।

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)