स्वास्थ्य

अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस: कोविड महामारी के बाद भारत में दोगुने हुए बाल विवाह के मामले

DTE Staff

सोहा मोइत्रा

पिछले साल जुलाई महीने में कोविड-19 महामारी चरम पर थी। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के दालपत गांव से बनारस की एक गैर सरकारी संस्थान को यह खबर मिली कि रमाशंकर (परिवर्तित नाम) अपनी 12 वर्षीय बेटी का बाल विवाह एक मंदिर में करने जा रहे हैं।

यह सूचना मिलते ही शंभुनाथ रिसर्च फाउंडेशन के कार्यकर्ता बनारस प्रशासन के कुछ अफसरों को साथ लेकर बाल विवाह रोकने के लिए गांव के आसपास के हर मंदिर में उसकी खोजबीन करने निकल पड़े, लेकिन बच्ची का कोई पता नहीं चल सका।

इसके बाद पड़ोसी राज्य बिहार के सिवान जिले में खोजबीन शुरू की गई। यहां के चंदनीया माता मंदिर में बच्ची और उसकी बड़ी बहन का एक साथ विवाह होते हुए पाया गया।

प्रशासन ने तत्परता दिखाते हुए विवाह में उपस्थित हर व्यक्ति के खिलाफ केस दर्ज किया। साथ ही, बच्ची के सभी हितों को ध्यान में रखते हुए आगे की कार्रवाई शुरू की। पूछताछ के दौरान यह पता चला कि रोजगार न होने के चलते हो रही आर्थिक तंगी की वजह से रमाशंकर को दोनों बेटियों का विवाह एक साथ करने के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझा।

महामारी के बीते 3 सालों में इस तरह के कई मामले सामने आए हैं। रोजगार छिन जाने की वजह से परिवार में हो रही आर्थिक तंगी और वंचित तबके से आने वाले बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और बाल संरक्षण तक उनकी पहुंच सीमित होने के कारण बाल विवाह और भी बढ़ गया है। 

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) -2021 के आंकड़े भी यह बताते हैं कि देश में पिछले 3 सालों में बाल विवाह के दो गुना मामले दर्ज किए गए।

वर्ष 2019 में बाल विवाह के 521 मामले दर्ज किए गए थे, जो 2021 में  बढ़कर 1045 हो गए हैं। वहीं अगर हम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों पर गौर करें तो देश में आज भी 20-24 वर्ष की ऐसी 23% महिलायें हैं, जिनका बाल विवाह हुआ था।

हालांकि, बाल विवाह पर काम करने वाले विशेषज्ञों एवं कार्यकर्ताओं की मानें तो असल स्थिति इससे कई गुना ज्यादा बदतर है।

समाज मे पनप रहे बाल विवाह जैसे अपराध को न स्वीकारना बेटियों के साथ अन्याय

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो -2021 की रिपोर्ट के अनुसार उत्तरी भारत के ऐसे राज्य (राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि) जहां समाज में बाल विवाह की जड़े गहराई तक मोजूद हैं, वहां बाल विवाह के दर्ज मामलों की संख्या बहुत कम (11, 6, 4) दिखाई देती है, जबकि इन राज्यों में काम कर रहीं चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) की साथी संस्थाओं के जमीनी अनुभवों के अनुसार इन राज्यों में बाल विवाह की स्थिति काफी गंभीर है।

ज्यादातर बाल विवाह के मामलों को लेकर न तो प्रशासन और न ही गैर सरकारी संस्थानों को भनक लग पाती है। खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में जहां सामाजिक स्तर पर बाल विवाह जैसी कुरीति को पूरी तरह समर्थन दिया जाता रहा है। दुख की बात यह है कि इन तथ्यों के बारे जागरूक होने के बावजूद हम इन मामलों को सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज नहीं करवा पा रहे हैं, बल्कि राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्तर पर इसे नकारने पर तुले हुए हैं।   

यह साफ तौर पर दर्शाता है कि हमारा सिस्टम कहीं न कहीं इस सत्य को स्वीकार करने में झिझकता है कि आज भी बाल विवाह की प्रथा समाज में प्रचलित है। बच्चे खासतौर पर बेटियां इसका शिकार हो रही हैं। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि बाल विवाह जैसे अपराध को न स्वीकारना भी बच्चों के साथ अन्याय करना होगा।

बाल विवाह के रोकथाम के लिए शिक्षा सबसे शक्तिशाली रणनीति

बाल विवाह को समाप्त करने के लिए शिक्षा को सबसे शक्तिशाली रणनीति में से एक माना गया है। बेटियों को शिक्षित करना समाज की बेहतरी में एक प्रमुख भूमिका निभाता है। एक शिक्षित लड़की भविष्य में एक मजबूत महिला साबित होती है और बाल विवाह जैसी कुरीति के खिलाफ मजबूती से खड़े होने में अधिक सक्षम होती है।

हाल ही में क्राई द्वारा एक कोरिलेशन स्टडी की गई है, जिसमें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-21) के आंकड़ों का उपयोग करते हुए बाल विवाह के प्रतिशत की तुलना महिला साक्षरता और स्कूली शिक्षा के प्रतिशत से की गई है।

इस विश्लेषण में महत्वपूर्ण तथ्य सामने आए हैं, जिसके अनुसार बाल विवाह उन जिलों में काफी कम दर्ज किया गया, जहां 10 साल से अधिक औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं का प्रतिशत अधिक था। यह इस तथ्य को स्थापित करता है कि शिक्षा लैंगिक असमानता को चुनौती देने के लिए लड़कियों के कौशल, ज्ञान और शक्ति को मजबूत करने का एक शक्तिशाली मार्ग है।

ऐसे बेहतर बजटीय आवंटन की जरूरत है, जो शिक्षा के साथ-साथ केवल जागरूकता पर केंद्रित न होकर एक मजबूत सुरक्षा तंत्र तैयार करने पर भी आधारित हो। साथ ही हम बाल विवाह रोकने की प्रक्रिया को केवल जागरूकता तक सीमित न करें बल्कि सामुदायिक स्तर पर हर प्रभावशाली व्यक्ति जैसे पंचायत, धार्मिक गुरु इत्यादि की जिम्मेदारी तय करें।

आमतौर पर बाल विवाह जैसे मामलों मे बेटियों की आवाज को पूरी तरह से नजरंदाज किया जाता रहा है एसे मे यह बेहद जरूरी है कि हम बेटियों को उनकी बात और इच्छाएँ निडर रूप से समाज और परिवार के सामने व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करें।

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कोविड-19 महामारी ने बाल विवाह के रोकथाम के लिए किए जा रहे वर्षों के प्रयासों पर नकारात्मक प्रभाव डाला है, लेकिन यह चर्चा का विषय है कि जिस देश में 94 वर्ष पहले बाल विवाह के खिलाफ पहला कानून लाया गया हो, उस देश में इतने वर्षों बाद भी बेटियों को इस कुरीति में जबरन धकेला जा रहा है।

ऐसे में यह सवाल उठता है कि 21वीं सदी के भारत में क्या बेटियों को बाल विवाह से बचाना इतना मुश्किल है?

लेखिका चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई, उत्तर क्षेत्र) की निदेशक हैं