दुनिया भर में गर्भाशय ग्रीवा या सर्वाइकल कैंसर महिलाओं में चौथा सबसे आम कैंसर है, जिसमें 2022 में लगभग 6,60,000 नए मामले सामने आए।  फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, साइंटिफिक एनिमेशन
स्वास्थ्य

भारतीय वैज्ञानिकों का नया मॉडल लगाएगा गर्भाशय कैंसर का शीघ्र और सटीक पता, उपचार में मिलेगी मदद

Dayanidhi

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक, दुनिया भर में गर्भाशय ग्रीवा या सर्वाइकल कैंसर महिलाओं में चौथा सबसे आम कैंसर है, जिसमें 2022 में लगभग 6,60,000 नए मामले सामने आए। उसी साल गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से होने वाली 3,50,000 मौतों में से लगभग 94 फीसदी कम और मध्यम आय वाले देशों में हुई। गर्भाशय ग्रीवा कैंसर के मामलों और मृत्यु दर की सबसे अधिक दर उप-सहारा अफ्रीका, मध्य अमेरिका और दक्षिण-पूर्व एशिया में है।

गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के मामलों में क्षेत्रीय अंतर टीकाकरण, जांच और उपचार सेवाओं तक पहुंच में असमानताओं, एचआईवी प्रसार सहित खतरों और लिंग, लिंग पूर्वाग्रह और गरीबी जैसे सामाजिक और आर्थिक निर्धारकों से संबंधित हैं।

एचआईवी से पीड़ित महिलाओं में सामान्य आबादी की तुलना में गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के विकसित होने के आसार छह गुणा अधिक होती है और सभी गर्भाशय ग्रीवा कैंसर के मामलों में से लगभग पांच फीसदी एचआईवी के कारण होते हैं। गर्भाशय ग्रीवा का कैंसर असमान रूप से युवा महिलाओं को प्रभावित करता है।

अब इस समस्या के निदान के लिए, भारतीय वैज्ञानिकों ने एक नए कम्प्यूटेशनल मॉडल की परिकल्पना की है जो सर्वाइकल डिसप्लेसिया अथवा गर्भाशय की सतह पर असामान्य कोशिकाओं के विकास की जांच में सुधार कर सकता है।

इसकी मदद से गर्भाशय या सर्वाइकल कैंसर का शीघ्र और सटीकता से पता लगाया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने शोध में कहा है कि सर्वाइकल सेल डिसप्लेसिया की जांच और प्रबंधन के लिए सटीक पैटर्न की पहचान और उसका वर्गीकरण करना जरुरी होता है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के एक स्वायत्त संस्थान, इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी (आईएएसएसटी) के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा मॉडल विकसित करने की योजना बनाई है जो वास्तविक दुनिया की स्थिति में व्यावहारिक रूप से लागू किया जाएगा। इस मॉडल में समय की गणना करने की बेजोड़ सटीकता होगी।

प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से डॉ. लिपि बी. महंत ने बताया की उनकी टीम ने एक शक्तिशाली मशीन लर्निंग (एमएल) ढांचे को विकसित करने के लिए अलग-अलग तरह के रंगों का प्रयोग किया है। उन्होंने बताया कि उन्होंने बदलाव करने वाली तकनीकों, फीचर प्रतिनिधित्व योजनाओं और वर्गीकरण विधियों के साथ इसका प्रयोग भी किया। इस व्यापक विश्लेषण और प्रयोग का उद्देश्य सर्वाइकल डिसप्लेसिया का पता लगाने के लिए कम समय में सटीकता से इसकी पहचान करना है।

शोधकर्ताओं ने शोध में बताया कि मॉडल के प्रदर्शन का परीक्षण दो डेटासेट पर किया गया जिसमें से पहला भारत में स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों से एकत्र किया गया और दूसरा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटासेट था।

छवि में बदलाव की एक विधि का उपयोग करना- बिना नमूने कंटूरलेट ट्रांसफॉर्म (एनएससीटी) और वाईसीबीसीआर के रंग मॉडल, जो किसी छवि में रंगों के माध्यम से पहचानने का का एक तरीका है, इस नए मॉडल ने इसमें 98.02 फीसदी की औसत सटीकता हासिल की।

शोधकर्ताओं ने एमडीपीआई द्वारा 'मैथमेटिक्स' पत्रिका में प्रकाशित निष्कर्षों में सर्वाइकल डिसप्लेसिया का पता लगाने में क्रांति लाने के लिए उनके कम्प्यूटेशनल मॉडल की क्षमता पर प्रकाश डाला।