बेंगलुरु के भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि, कैसे भारतीय उपमहाद्वीप में पिछले कुछ दशकों में डेंगू का प्रकोप बढ़ा है। अध्ययन के मुताबिक डेंगू एक मच्छर से फैलने वाली संक्रामक बीमारी है जो पिछले 50 वर्षों में लगातार बढ़ी है। डेंगू का प्रकोप मुख्य रूप से दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में सबसे अधिक देखा जा रहा है।
अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि भारत में हर साल डेंगू के एक लाख से अधिक मामले सामने आते हैं और देश की लगभग आधी आबादी में डेंगू वायरस के विशिष्ट एंटीबॉडी होते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि, डेंगू अब कई नए रूपों में सामने आने लगा है। फिर भी, देश में डेंगू वायरस के विकास का कोई व्यवस्थित विश्लेषण नहीं किया गया है।
अध्ययनकर्ता तथा एसोसिएट प्रोफेसर राहुल रॉय ने कहा कि, भारत में डेंगू के उपचार के लिए कोई स्वीकृत टीके नहीं हैं, हालांकि कुछ टीके अन्य देशों में विकसित किए गए हैं। हम यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि भारतीय वेरिएंट अन्य से कितने अलग हैं। हमने पाया कि वे टीकों को विकसित करने के लिए इस्तेमाल किए गए मूल वेरिएंट से बहुत अलग हैं, रॉय, आईआईएससी में केमिकल इंजीनियरिंग विभाग (सीई) के एसोसिएट प्रोफेसर हैं।
रॉय और उनके सहयोगियों ने वर्ष 1956 से 2018 के बीच संक्रमित रोगियों से भारतीय डेंगू के सभी उपलब्ध 408 अनुवांशिक सिक्वेंसिंग या अनुक्रमों की जांच की, जो अन्य लोगों के साथ-साथ स्वयं टीम द्वारा एकत्र किए गए थे।
डेंगू वायरस की चार व्यापक श्रेणियां एक, दो, तीन और चार, सीरोटाइप हैं। कम्प्यूटेशनल विश्लेषण का उपयोग करते हुए, अध्ययनकर्ताओं की टीम ने पता लगाया कि इनमें से प्रत्येक सीरोटाइप अपने पैतृक सिक्वेंसिंग से, एक दूसरे से और अन्य वैश्विक सिक्वेंसिंग से कितना अलग है। रॉय ने कहा, हमने पाया कि सिक्वेंसिंग बहुत ही जटिल तरीके से बदल रहे हैं।
अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि, 2012 तक, भारत में प्रमुख वेरिएंट डेंगू एक और तीन थे। लेकिन हाल के वर्षों में, डेंगू दो पूरे देश में अधिक प्रभावी हो गया है, जबकि डेंगू चार - जिसे कभी सबसे कम संक्रामक माना जाता था अब दक्षिण भारत में अपनी जगह बना रहा है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम ने इस बात की भी जांच की कि कौन से कारक तय करते हैं कि किसी भी समय कौन सा वेरिएंट प्रभावी होता है। एंटीबॉडी निर्भर संवर्धन (एडीई) हो सकता है। कभी-कभी, लोग पहले एक सीरोटाइप से संक्रमित हो सकते हैं और फिर एक अलग सीरोटाइप के साथ एक दूसरा संक्रमण विकसित कर सकते हैं, जिसके अधिक गंभीर लक्षण हो सकते हैं।
अध्ययनकर्ता ने कहा कि, हम जानते थे कि एडीई गंभीरता को बढ़ाता है लेकिन हम जानना चाहते थे कि क्या वह डेंगू वायरस के विकास को भी बदल सकता है।
किसी भी समय, संक्रमित आबादी में प्रत्येक सीरोटाइप के कई वेरिएंट मौजूद होते हैं। अध्ययन में दावा किया गया है कि शुरुआती संक्रमण के बाद मानव शरीर में उत्पन्न एंटीबॉडी लगभग दो-तीन वर्षों तक सभी सेरोटाइप से पूर्ण सुरक्षा प्रदान करते हैं।
समय के साथ, एंटीबॉडी का स्तर गिरना शुरू हो जाता है और क्रॉस-सीरोटाइप सुरक्षा गायब हो जाती है। अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि अगर शरीर इस समय के आसपास एक समान संक्रमित वेरिएंट से संक्रमित होता है, तो एडीई इस नए वेरिएंट को बड़ा फायदा पहुंचाता है, जिससे यह आबादी में प्रमुख वेरिएंट बन जाता है। ऐसा फायदा कुछ और वर्षों तक बना रहता है, जिसके बाद एंटीबॉडी का स्तर इतना कम हो जाता है कि इस पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
अध्ययनकर्ता ने कहा डेंगू वायरस और मानव आबादी की प्रतिरक्षा के बीच पहले किसी ने भी इस तरह की आपसी निर्भरता नहीं दिखाई है। इस तरह की जानकारी भारत जैसे देशों में जीनोमिक की निगरानी के साथ बीमारी का अध्ययन करने से ही संभव है, क्योंकि यहां संक्रमण दर ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक रही है और एक बड़ी आबादी में पिछले संक्रमण के कारण एंटीबॉडी मौजूद हैं।
अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक, भारत में 2002 के बाद से 2018 में दर्ज डेंगू के मामलों में 25 गुना से अधिक की वृद्धि हुई है। उन्होंने कहा कि भारत के सभी चार भौगोलिक क्षेत्र, अर्थात- उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम-मध्य भारत, डेंगू के मामलों में समय-समय पर वृद्धि के साथ-साथ दो से चार वर्षों में होने वाली मौतों में भी बढ़ोतरी देखी जा रही है। यह अध्ययन जर्नल पीएलओएस पैथोजेन्स में प्रकाशित हुआ है।