स्वास्थ्य

कहां जाएं असामान्य रोगों के मरीज, सरकार के पॉलिसी के खेल में फंसे

असामान्य रोगों के लिए बनी पॉलिसी पहले खत्म कर दी जाती है और जब अदालत में तारीख आती है तो एक दिन पहले पॉलिसी का ड्राफ्ट जारी किया जाता है, लेकिन इसमें भी 'खेल' है

Banjot Kaur

असामान्य रोगों से पीड़ित मरीजों में लिए एक साथ 15 लाख की सहायता राशि देना केंद्र सरकार के लिए आर्थिक बोझ होगा, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के इस बयान के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने 14 जनवरी को हुए सुनवाई में केंद्र से पिछले पांच साल का बजट और खर्चे का हिसाब मांगा है।

स्वास्थ्य मंत्रालय ने 13 जनवरी को स्वास्थ्य को लेकर एक राष्ट्रीय नीति का मसौदा प्रकाशित किया। पहली बार वर्ष 2017 में इस तरह की नीति दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद सामने आई थी। असामान्य रोगों से पीड़ित मरीज बच्चों के माता-पिता ने अदालत में इस नीति के खिलाफ याचिका लगाई हुई है।

उनका कहना है कि इलाज का खर्च वो वहन करने में असमर्थ हैं। सरकार ने 2017 की नीति 30 नवंबर 2018 को यह कहते हुए वापस ले ली थी कि इस नीति में अभी कई बदलावों की जरूरत है। पहले की नीति और वर्तमान मसौदे के बीच मुख्य अंतर यह है कि पूर्व में उपचार, रोकथाम, निदान, अनुसंधान और विकास के लिए 100 करोड़ रुपये के कोष के गठन की परिकल्पना की गई थी।

नए मसौदे में यह सब खत्म हो गया है, और अब केवल एक बार की वित्तीय सहायता की बात कही गई है।

इस बात को ध्यान में रखते हुए कि नई व्यवस्था कारगर नहीं है, अदालत ने बदलावों को लेकर सवाल उठाए हैं। अदालत ने पूछा कि सहायता किस प्रकार प्रदान की जाएगी?

यह मसौदा असामान्य रोगों को तीन प्रकार से वर्गीकृत करता है। पहले श्रेणी में वह रोग आते हैं जिसमें एक बार ही इलाज की जरूरत होती है। दूसरे श्रेणी में वो रोग आते हैं जिसमें ताउम्र इलाज की जरूरत होती है लेकिन इलाज महंगा नहीं होता है। तीसरी श्रेणी में वैसे रोग रखे गए हैं जिनका इलाज ताउम्र चलने के साथ महंगा भी होता है।

मसौदा कहता है कि पहले श्रेणी के मरीजों को ही आर्थिक मदद दी जाएगी। 40 फीसदी लोग जिन्होंने प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के लिए पंजीयन कराया है, इस मसौदे के तहत सरकारी अस्पताल में इलाज कराने के लिए पात्र होंगे। दूसरे और तीसरे श्रेणी में आने वाले मरीज किसी भी तरह को सहायता के पात्र नहीं होंगे।

अब हम क्या करें? यह सवाल है ऐसे ही एक मरीज का जिनका रोग तीसरी श्रेणी में आता है। मरीजों के हक में काम करने वाली संस्था क्योर एसएमए फाउंडेशन की अर्चना पांडा बताती हैं कि मरीज को रीढ़ की हड्डी में कोई असाध्य समस्या है। इस रोग के इलाज में दवाई का सालाना खर्च ही 7,50,000 डॉलर का ही। रुपए में यह खर्च तकरीबन 5 करोड़ प्रति वर्ष होगा। अर्चना पांडा इस मामले में याचिकाकर्ता भी हैं। वो कहती हैं कि सरकार ने पहली नीति खारिज कर दूसरा मसौदा लाने में 13 महीनों का वक्त लिया। इसी दौरान नीति के न होने की वजह से 37 बच्चों की मौत हो गई।

रेयर डिजीज ऑफ इंडिया के सह संस्थापक और कार्यकारी निदेशक प्रसन्ना शिरोल ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में बताया कि उनकी संस्था ने सरकार से कहा था कि 200 से अधिक मरीजों का क्या होगा, जिन्होंने पुरानी नीति के तहत आर्थिक सहायता के लिए आवेदन दिया था।

इस दूसरे मसौदे में किसी भी चीज के लिए कोई समयसीमा नहीं है। न तो वित्तीय सहायता के लिए और न ही डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए जिसे वे डेटाबेस बनाने के लिए स्थापित करना चाहते हैं। ऐसा उन्होंने पहले ड्राफ्ट में किया था। 100 करोड़ रुपये के कोष के लिए एक भव्य प्रस्ताव रखा गया था। कोई समय सीमा नहीं दी गई थी। इसे कभी शुरू ही नहीं किया गया, और अंत में इसे वापस ले लिया गया। अब ऐसा दोबारा नहीं होगा इस बात पर यकीन न करने का हमारे पास क्या कारण है।”शिरोल ने बातचीत में बताया।

14 जनवरी को हुई सुनवाई में अदालत ने सरकार को जनता की राय जानने के बाद फिर से अदालत में आने को कहा है। हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील अशोक अग्रवाल कहते हैं कि सुनवाई की अगली तारीख 28 अप्रैल रखी गई है। 

कौन से हैं असामान्य रोग?

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक वे बीमारियां जो अकसर उम्र भर चले और प्रति हजार व्यक्ति पर किसी एक को हो, असामान्य (रेयर) रोग की श्रेणी में आ सकती है। हालांकि, अलग-अलग देश ने अपने अलग मापदंड बनाए हुए हैं। नए मसौदे में असामान्य बीमारी को परिभाषित नहीं किया गया है। भारत में सिर्फ 450 असामान्य माने जाने वाली बीमारियों को तीसरे स्तर के अस्पतालों द्वारा पहचाना गया है। जिनमें सबसे आम हीमोफिलिया, थैलेसीमिया, सिकल-सेल एनीमिया हैं।

राज्य सरकार की भागीदारी

इस मसौदे में दूसरा बड़ा बदलाव राज्य सरकारों की भागीदारी को लेकर है। जहां पिछली नीति में खर्चों में 40 फीसदी भागीदारी राज्य की थी, नया मसौदा कहता है कि राज्य आर्थिक रूप से इलाज में और मरीजों के लिए विशेष तरह के खानपान की व्यवस्था में सहयोग कर सकता है।

मसौदे में क्राउड फंडिंग जैसी व्यवस्था बनाने की बात भी है। अर्चना पांडा ने सुझाव दिया कि केंद्र सरकार राज्यों का साथ क्यों नहीं ले रही। साथ में सामाजिक दायित्व के तहत बड़े कॉरपोरेट भी आर्थिक रूप से सरकार की मदद कर सकते हैं।