स्वास्थ्य

जीबीएस आउटब्रेक: विशेषज्ञों ने कहा- यह मानव जनित महामारी, 100 मामलों का मतलब 5000 से ज्यादा हुए होंगे संक्रमित 

एक बैक्टीरिया के संक्रमण प्रसार ने स्थानीय प्रशासन की नाकामी की पोल खोल दी। एक्सपर्ट्स ने कहा कि यह दर्शाता है कि सैनिटेशन सिस्टम को ठीक नहीं रखा जा रहा है

Vivek Mishra

महाराष्ट्र का पुणे इन दिनों एक महामारी जैसी स्थिति से जूझ रहा है। 100 से अधिक लोगों में असमान्य माने जाने वाले  गुरियल बरै सिंड्रोम (जीबीएस) की पुष्टि हो चुकी है। वहीं, इस सिंड्रोम के कारण दो लोगों को जान गंवानी पड़ी जबकि 17 लोग वेंटिलेटर पर हैं। इस आउटब्रेक की क्या वजह है? और क्यों यह पुणे में फैला ? देश के शीर्ष विषाणुविज्ञानी और न्यूरो चिकित्सकों ने कहा यह भविष्य में और भी इस तरह के संक्रमणों के प्रसार का संकेत है। 

दशकों तक रहस्यमयी रोगों के प्रकोपों की निगरानी करने वाले विषाणुविज्ञानी और वेल्लोर स्थित क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के पूर्व प्रोफेसर टी जैकब जॉन ने कहा कि पुणे में जीबीएस आउटब्रेक दरअसल एक मानव जनित महामारी जैसा है। रिपोर्ट्स बता रही हैं कि वहां के पेयजल स्रोतों के नमूनों में ई कोली बैक्टीरिया का उच्चस्तरीय संक्रमण मिला है तो इसका सीधा मतलब है कि वहां के पेयजल स्रोतों में मानव या जानवर के मल की मौजूदगी है और वह उपभोग लायक सुरक्षित नहीं है। इस बात की पूरी आशंका है कि इसी दुषित पेय जल स्रोत के चलते ही बड़ी संख्या में लोगों को कैंपिलोबैक्टीरिया इंफेक्शन हुआ हो और जो अंततः गुलियन बरै सिंड्रोम (जीबीएस) आउटब्रेक में तब्दील हुआ।  

जीबीएस एक दुर्लभ ऑटोइम्यून स्थिति है जिसमें प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर के परिधीय तंत्रिका तंत्र (पेरिफेरल नर्वस सिस्टम) पर हमला करती है। यह शरीर में सुन्नता और मांसपेशियों की कमजोरी का कारण बनता है। जीबीएस के अधिकांश मामलों में मानव और पोल्ट्री व मवेशियों के आंत में रहने वाला कैम्पिलोबैक्टर जेजुनाई बैक्टीरिया प्रमुख कारण बनता है। 

जयपुर में स्थित सवाई मान सिंह मेडिकल कॉलेज से प्रशिक्षित और जीबीएस पर रिसर्च करने वाले न्यूरोलॉजिस्ट डॉ राजेंद्र कुमार पांडेय डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि उनके पास इस विंटर सीजन में 15 से 16 मामले आए और उनमें जो संक्रमण था वह अलग-अलग स्रोतों से था। पुणे का मामला बिल्कुल अलग है। इस तरह का आउटब्रेक नहीं देखा गया है। 

पुणे में उभरी इस तरह की स्थिति पर जैकब एक ऐसा तथ्य रखते हैं जो बेहद चिंताजनक है, "पुणे के 100 लोगों से अधिक की संख्या में जीबीएस का पाया जाना यह स्पष्ट तौर पर बताता है कि 5000 से भी अधिक लोगों को कैम्पिलोबैक्टर इंफेक्शन हुआ होगा। हालांकि, सामान्य तौर पर सारे कैंपिलोबैक्टर इंफेक्शन के मामले जीबीएस में तब्दील नहीं होते।" 

अब सवाल है कि पुणे में इतनी बड़ी संख्या में कैम्पिलोबैक्टर जेजुनी का संक्रमण कैसे हुआ होगा, जिसने जीबीएस को ट्रिगर किया? 

जैकब के मुताबिक दो रास्तों से यह मानव शरीर में पहुंच कर उसे जीबीएस का शिकार बना सकता है। मसलन, किसी रेस्त्रां या गंदी जगह से चिकन या मवेशी का मीट खाया गया हो और वह उपभोग योग्य न हो। ऐसी स्थिति में इतना बड़ा आउटब्रेक संभव नहीं है। आउटब्रेक की स्थिति के लिए ऑर्गेनिज्म को ट्रांसमिशन होने का रास्ता चाहिए। निश्चित ही मानव या मवेशी मल से दूषित वाटर सप्लाई कैम्पिलोबैक्टर जेजुनाई के प्रसार का माध्यम बना होगा। यह बात भी स्पष्ट है कि जीबीएस के शुरुआती मामलों में मरीजों में इसी बैक्टीरिया के संक्रमण की पुष्टि हुई। 

डॉक्टर पांडेय कहते हैं कि जीबीएस का ट्रिगर कई कारणों से हो सकता है। मसलन, खासतौर से बरसात या सर्दियों के मौसम में जीबीएस के मरीज उनके पास आते हैं। हालांकि, यह पुणे के मामले से इसलिए अलग है क्योंकि ऐसे सारे मरीज किसी न किसी इंफेक्शन के बाद ऑटोइम्यून होते हैं। मसलन, उन्हें हाल ही में किसी तरह का बुखार हुआ हो या फिर किसी दवा के कारण उनका इम्यून कमजोर हो गया हो। ट्यूबरक्यूलोसिस के मरीजों में इम्यून सप्रेस होता है, ऐसी स्थिति में भी जीबीएस ट्रिगर हो सकता है।

जैकब पुणे के केस में कहते हैें कि यह भारत में पब्लिक हेल्थ सिस्टम के न होने का दुष्परिणाम है क्योंकि ऐसा आउटब्रेक बेहद असामान्य है।  रिकॉर्ड्स के अभाव में हम यह नहीं बता सकते कि इससे पहले ऐसा आउटब्रेक भारत में कब हुआ था।

फरीदाबाद में स्थित अमृता हॉस्पिटल के न्यूरो विभाग के प्रमुख डॉ संजय पांडे कहते हैं कि यदि दिल्ली के हर अस्पताल में जीबीएस के मरीजों की संख्या जोड़ी जाए तो यहां भी संख्या 100 के पार हो सकती है। वह बताते हैं कि अकेले हर महीने 5 से 6 मरीजों का इलाज कर रहे हैं। हालांकि, डॉ संजय भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि यह मरीज ऑटोइम्यून हैं और अलग-अलग स्रोतों से संक्रमित हैें।

जीबीएस प्रसार के बारे में एम्स से प्रशिक्षित न्यूरोलॉजिस्ट और गुड़गांव में प्राइवेट प्रेक्टिस करने वाली डॉक्टर प्रियंका शेहरावत बताती हैं कि भारत में इस तरह का आउटब्रेक दुर्लभ है। हालांकि, हर महीने दो से तीन मरीजों में जीबीएस की पुष्टि उनके यहां होती है। इसलिए इस सेंस में यह बहुत ही दुर्लभ भी नहीं है। 

डॉक्टर शेहरावत कहती हैं कि कोविड की वैक्सीन के बाद काफी इम्यून संबंधी बीमारियां मिली थी, हालांकि ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम थी। उस वक्त युवाओं में जीबीएस ट्रिगर हुआ था। हालांकि, इस वक्त पुणे में फैले इस आउटब्रेक में इसकी कोई भूमिका नहीं है।  

पुणे में फैला जीबीएस प्रसार एक बात की ओर इशारा करता है कि इसे पहचानने में काफी देर की गई। डॉक्टर्स के मुातबिक जीबीएस मरीजों की यदि देरी से इलाज मिले तो वह उनके लिए जानलेवा साबित हो सकता है। शायद जिन दो लोगों की मौत हुई और जो लोग वेंटिलेटर पर पहुंचे। इसी देरी का परिणाम है। डॉ संजय पांडे कहते हैं कि यह तब और खतरनाक हो जाता है जब मरीज के फेफड़े इसमें शामिल हो जाते हैं। 

डॉ शेहरावत के मुताबिक यदि मरीज की दो हफ्तों के भीतर इलाज हो जाता है तो इलाज के सबसे अच्छे परिणाम सामने आते हैं। इलाज के लिए आईवीआईजी इजेंक्शन जिसे इम्यूनोग्लोबिनिन भी कहते हैं, पांच दिन दिया जाता है। इस एक इजेंक्शन की कीमत 10 से 12 हजार रुपए तक ही होती है। वहीं दूसरा तरीका प्लाज्मा फेरेसिस होता है, जिसमें खून की शुद्धि की जाती है। 

उन्होंने आगे कहा कि जीबीएस मरीज के बैक्टीरियल टेस्ट के अलावा नर्व कंडक्शन स्टडी के द्वारा यह पता किया जाता है कि मरीज के नसों में किस तरह की समस्याएं आई हैं।  

बहरहाल दूषित पानी और भोजन हमें अतीत में लौटा देता है जब कालरा और मीजल्स जैसे प्रसार भारत में होते थे। क्या ऐसा ही है?

जैसे ही पहले मामले में कैंम्पिलोबैक्टर संक्रमण का पता चला था तत्काल वाटर सप्लाई को बंद किया जाना चाहिए था और साफ जल उपलब्ध कराया जाना चाहिए था, लेकिन पुणे में जीबीएस मरीजों की इतनी बड़ी संख्या यह बताती है कि स्थानीय प्रशासन ऐसा करने में नाकाम रहा। 

जैकब के मुताबिक, "पश्चिमी देशों में जीबीएस के शुरुआती तीन मामले ही आउटब्रेक मान लिए जाते हैं और उनका पब्लिक हेल्थ सिस्टम संबंधित प्रभावित क्षेत्र में एक बड़ी खोज-बीन करता है। यहां सरकारी अस्पतालों को ही पब्लिक हेल्थ मान लिया गया है। यह डॉक्टर में हितों का टकराव पैदा करता है। वह मरीज का इलाज करने के लिए है न कि बाहर फील्ड में जाकर स्रोतों का पता लगाने के लिए। "

हेल्थ मैेनेजमेंट सिस्टम में पब्लिक हेल्थ एक बड़ी और अहम विंग का तरह होता है, यदि डॉक्टर अपनी जांच-पड़ताल में एक गलती करेगा तो उससे एक मौत होगी लेकिन पब्लिक हेल्थ सिस्टम के ऐसा गलती करने पर बड़ी संख्या में लोगों की जान जा सकती है। 

वह कोविड संक्रमण के दिनों संकट की याद दिलाते हैं, "कोविड संक्रमण के दौरान नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एजेंसी (एनडीएमए) को इसके रोकथाम की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, पुणे में जैसा आउटब्रेक है तो आज यह एनडीएमए कहां है? यह दर्शाता है कि हम गंभीर से गंभीर संक्रमण को पब्लिक हेल्थ के अभाव में अवैज्ञानिक तरीके से हैंडल करते हैं। देश में कोई भी एजेंसी ऐसे प्रकोपों और प्रसार की रोकथाम के लिए सक्षम नहीं है।"

डॉक्टर शेहरावत कहती हैं कि पुणे के आउटब्रेक में दूषित भोजन और पानी ही संक्रमण का स्रोत है। वह कहती हैं कि पहले के जमाने में कॉलरा और मीजल्स के मामले ज्यादा इसलिए मिलते थे क्योंकि शुद्ध पेयजल और सीवेज सिस्टम की कमी थी। लेकिन अब इनमें सुधार हुआ है फिर भी ऐसे आउटब्रेक आ रहे हैं तो यह सोचने योग्य है। वह एक नए बिंदु पर ध्यान दिलाती हैं कि ज्यादातर लोग अब रेस्त्रां में खाने जा रहे हैं और वहां जबरदस्त भीड़ होती है। सफाई से समझौता इस तरह के संक्रमण को भविष्य में और बढाएगा। डॉक्टर शेहरावत कहती हैं कि  इम्यूनिटी से बचाव के लिए इस वक्त साफ भोजन और शुद्ध पानी ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए।