स्वास्थ्य

एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस : एंटीबायोटिक दवाएं हो रही बेअसर, मामूली संक्रमण भी हों जाएंगे लाइलाज

Lalit Maurya

पिछले कुछ दशकों से दुनिया भर में रोगाणुरोधी प्रतिरोध यानी एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेन्स (एएमआर) बड़ी तेजी से पैर पसार रहा है। जो स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। यदि स्वास्थ्य के लिहाज से देखें तो एंटीबायोटिक दवाएं किसी मरीज की जान बचाने में अहम भूमिका निभाती है, पर जिस तरह से स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्र में इनका धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है उसने एक नई समस्या को जन्म दे दिया है, जिसे रोगाणुरोधी प्रतिरोध के रुप में जाना जाता है।

हालांकि स्वास्थ्य के लिए बेहद गंभीर खतरा होने के बावजूद इसके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। आइए जानते हैं इस 'साइलेंट किलर' से जुड़े कुछ बुनियादी सवालों के जवाब:

क्या होता है रोगाणुरोधी प्रतिरोध या एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेन्स (एएमआर)?

रोगाणुरोधी प्रतिरोध तब पैदा होता है, जब रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, कवक, वायरस, और परजीवी, एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। सरल शब्दों में कहें तो लगातार इन दवाओं के संपर्क में आने के कारण यह रोगजनक अपने शरीर को इन दवाओं के अनुरूप ढाल लेते हैं।

शरीर में आए इन बदलावों के चलते वो धीरे-धीरे इन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। नतीजतन, यह एंटीबायोटिक दवाएं उन पर बेअसर हो जाती है। जब ऐसा होता है तो इंसानी शरीर में लगा संक्रमण जल्द ठीक नहीं होता। ऐसे में रोगाणुरोधी प्रतिरोध विकसित करने वाले इन रोगाणुओं को कभी-कभी "सुपरबग्स" भी कहा जाता है।

स्वास्थ्य के लिहाज से कितना बड़ा है रोगाणुरोधी प्रतिरोध का खतरा?

स्वास्थ्य के लिहाज से देखें तो वैश्विक स्तर पर रोगाणुरोधी प्रतिरोध एक बड़ा खतरा बन चुका है। इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स हर साल सीधे तौर पर 12.7 लाख लोगों की जान ले रहा है। यह महामारी हर दिन औसतन 13,562 लोगों की जान ले रही है।

इन आंकड़ों के मुताबिक 2019 में 49.5 लाख लोगों की मौत के लिए कहीं न कहीं रोगाणुरोधी प्रतिरोध जिम्मेवार था। देखा जाए तो यह आंकड़ा सालाना एड्स और मलेरिया से होने वाली कुल मौतों से भी कहीं ज्यादा है। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि इसपर अभी ध्यान न दिया गया तो अगले 27 वर्षों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध से होने वाली मौतों का आंकड़ा बढ़कर सालाना एक करोड़ पर पहुंच जाएगा।

गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी रोगाणुरोधी प्रतिरोध को स्वास्थ्य के दस सबसे बड़े खतरों में से एक के रूप में चिन्हित किया है।

क्या भारत पर भी मंडरा रहा है रोगाणुरोधी प्रतिरोध का खतरा?

यह सही है कि भारत भी रोगाणुरोधी प्रतिरोध के बढ़ते खतरे की जद से बाहर नहीं है। दुनिया भर में जिस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं का दुरूपयोग हो रहा है, भारत भी उसमें पीछे नहीं है। अनुमान के मुताबिक, भविष्य में इससे होने वाली कुल मौतों में से 90 फीसदी एशिया और अफ्रीका में होंगी। इससे पता चलते है कि विकासशील देशों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा, जिसमें भारत भी शामिल है।

यही वजह है कि लम्बे समय से सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) और डाउन टू अर्थ लम्बे समय से लोगों को इसके बढ़ते खतरे से चेताता रहा है। हालांकि आज भी लोगों में इसको लेकर जागरूकता का आभाव है। यही वजह है कि हर साल 18 से 24 नवंबर को वैश्विक एएमआर जागरूकता सप्ताह के रूप में मनाया जाता है।

क्या स्वास्थ्य के साथ-साथ अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है असर?

विश्व बैंक द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक रोगाणुरोधी प्रतिरोध के इलाज की भागदौड़ में 2030 तक और 2.4 करोड़ लोग गरीबी के गर्त में समा सकते हैं। इतना ही नहीं बढ़ते प्रतिरोध की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) द्वारा जारी नई रिपोर्ट "ब्रेसिंग फॉर सुपरबग" में सामने आया है कि हर गुजरते दिन के साथ रोगाणुरोधी प्रतिरोध कहीं ज्यादा बड़ा खतरा बनता जा रहा है।

अनुमान है कि यदि अभी ध्यान न दिया गया तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को इससे अगले कुछ वर्षों में हर साल 281.1 लाख करोड़ रूपए (3.4 लाख करोड़ डॉलर) से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ सकता है।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक इसकी वजह से स्वास्थ्य के साथ-साथ सतत विकास के लक्ष्यों और अर्थव्यवस्था पर भी खासा असर पड़ने की आशंका है।

इंसानों के साथ-साथ जानवरों में क्यों बढ़ रहा है रोगाणुरोधी प्रतिरोध?

देखा जाए तो जिस तरह से स्वास्थ्य क्षेत्र में धड़ल्ले से एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग बढ़ रहा है वो इसके बढ़ते खतरे की सबसे बड़ी वजहों में से एक है। जर्नल द लैंसेट इन्फेक्शस डिजीज में  प्रकाशित एक अध्ययन से पता चल है कि 2000 से 2010 के बीच एंटीबायोटिक की बढ़ती मांग के 76 फीसदी के लिए ब्रिक्स देश ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जिम्मेवार थे।

वहीं इसमें 23 फीसदी हिस्सेदारी केवल भारत की थी। यह सही है कि आय बढ़ने से एंटीबायोटिक पहले से कहीं ज्यादा लोगों की जद में आ रहे हैं। इससे लोगों की जान तो बच रही है, लेकिन साथ ही एंटीबायोटिक  दवाओं की उचित और अनुचित दोनों तरह से खपत बढ़ रही है।

ऐसा नहीं है कि यह समस्या सिर्फ इंसानों में बढ़ रही है। आज जिस तरह से पशुओं से प्राप्त होने वाले प्रोटीन की मांग दिनों-दिन बढ़ रही है, उसकी वजह से इन पर भी धड़ल्ले से एंटीबायोटिक दवाओं का प्रयोग किया जा रहा है। नतीजन इन पशुओं में रोगाणुरोधी प्रतिरोध तेजी से विकसित हो रहा है। इसका खामियाजा भी इनका सेवन करने वालों आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। जानवरों को दी जा रही एंटीबायोटिक दवाएं लौटकर इंसानों के शरीर में पहुंच रही हैं।

आंकड़े दर्शाते हैं कि 2000 से लेकर 2018 के बीच मवेशियों में पाए जाने वाले जीवाणु तीन गुणा अधिक एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स हो गए हैं, जोकि एक बड़ा खतरा है, क्योंकि यह जीवाणु बड़े आसानी से इंसानों के शरीर में भी प्रवेश कर सकते हैं।

गौरतलब है कि कुछ समय पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने भी अपने अध्ययन में चेताया था कि पोल्ट्री इंडस्ट्री में एंटीबायोटिक दवाओं के बड़े पैमाने पर होते अनियमित उपयोग के चलते भारतीयों में भी एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के मामले बढ़ रहे हैं। 

यह समस्या कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुनिया भर में बेची जाने वाले करीब 73 फीसदी एंटीबायोटिक्स दवाओं का उपयोग उन जानवरों में किया जा रहा है, जिन्हे भोजन के लिए पाला जाता है। वहीं बाकी 27 फीसदी एंटीबायोटिक्स को मनुष्यों की दवाओं और अन्य जगहों पर प्रयोग किया जाता है।

सीएसई ने अपनी एक रिपोर्ट में भारत के पोल्ट्री फार्मों में बढ़ते एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को लेकर चिंता जाहिर कर चुका है। जहां न केवल मुर्गियों को बीमारियों से बचाने बल्कि उनके वजन में इजाफा करने के लिए भी इन दवाओं का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का खतरा बढ़ रहा है।

इसी तरह सीएसई की रिपोर्ट में कृषि, शहद और मछलियों में भी एंटीबायोटिक पाए गए थे।

क्या है इस समस्या का समाधान?

रोगाणुरोधी प्रतिरोध की यह बढ़ती समस्या एंटीबायोटिक दवाओं के जरूरत से ज्यादा उपयोग और दुरुपयोग से जुड़ी है। साथ ही जिस तरह से संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण के लिए इन दवाओं का उपयोग किया जा रहा है यह समस्या गहरा रही है। ऐसे में इससे निपटने के लिए समाज के सभी स्तरों पर कदम उठाने की जरूरत है।

यह डॉक्टरों, नीति निर्माताओं, ड्रग निर्माताओं, स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्र, के साथ आम लोगों की भी जिम्मेवारी है कि वो इन एंटीबायोटिक के बढ़ते दुरूपयोग को रोकने में अपना सहयोग दें।

"ब्रेसिंग फॉर सुपरबग" रिपोर्ट के मुताबिक रोगाणुरोधी प्रतिरोध की चुनौती पर पार पाने के लिए विविध क्षेत्रों में जवाबी कार्रवाई की जरूरत होगी। ऐसा करते समय आम लोगों, पशुओं, पौधों और पर्यावरण के स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखना जरूरी है। देखा जाए तो इन सभी का स्वास्थ्य आपस में गहराई से जुड़ा है और यह सभी एक दूसरे पर निर्भर है।

इसी को ध्यान में रखते हुए यूनेप, एफएओ, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वन हेल्थ फ्रेमवर्क जारी किया है। रिपोर्ट में पर्यावरण को होते नुकसान और पैदा होते रोगाणुरोधी प्रतिरोध को रोकने के लिए जो समाधान प्रस्तुत किए गए हैं उनमें साफ-सफाई की खराब व्यवस्था, सीवर, कचरे से होने वाले प्रदूषण से निपटने और साफ पानी जैसे मुद्दों से कारगर तरीके से निपटने की वकालत की गई है।

सीएसई ने भारत में स्वास्थ्य पर रोगाणुरोधी प्रतिरोध के पडते प्रभावों और उसे रोकने एवं नियंत्रित करने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा क्या कदम उठाए जा सकते हैं उसको लेकर एक नई रिपोर्ट भी जारी की है। रिपोर्ट के अनुसार इस संकट से निपटने के लिए स्वास्थ्य, पशुधन, मत्स्य पालन, फसल और पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में एकजुट प्रयासों की दरकार है।