स्वास्थ्य

इकोसिस्टम में आ रही गिरावट का परिणाम हैं बढ़ती महामारियां: शोध

हम इंसानों द्वारा पर्यावरण का जिस तरह से विनाश किया जा रहा है, वो महामारियों के खतरे को और बढ़ा रहा है| साथ ही इकोसिस्टम में आ रही गिरावट इन बीमारियों से निपटना मुश्किल बना रही हैं|

Lalit Maurya

हम इंसानों द्वारा पर्यावरण का जिस तरह से विनाश किया जा रहा है, वो महामारियों के खतरे को और बढ़ा रहा है| साथ ही इकोसिस्टम में आ रही गिरावट इन बीमारियों से निपटना मुश्किल बना रही हैं| यह जानकारी हाल ही में किये गए एक शोध से सामने आई है| जोकि यूनिवर्सिटी ऑफ इंग्लैंड और एक्सेटर विश्वविद्यालय की ग्रीनपीस रिसर्च लेबोरेटरीज द्वारा किया गया है| इस शोध के अनुसार बीमारियों का खतरा जैवविविधता और प्राकृतिक प्रक्रियाओं जैसे जल चक्र आदि से जुड़ा होता है|

जिस तरह से जूनोटिक डिजीज बढ़ती जा रही है दुनिया के लिए वो एक बड़ी चिंता का विषय है| हाल ही में फैली महामारी कोविड-19 उसका एक प्रमुख उदाहरण है| इससे पहले भी सार्स, इबोला, हन्तावायरस पल्मोनरी सिंड्रोम, रेबीज, बैक्टीरिया कैम्पिलोबैक्टर जेजुनी, एवियन फ्लू, स्वाइन फ्लू जैसी न जाने कितनी बीमारियां जानवरों से इंसानों में फैली हैं| जो स्पष्ट तौर पर इंसानों के प्रकृति के साथ बिगड़ते रिश्तों का परिणाम हैं|

वैज्ञानिकों ने समाज और पर्यावरण के बीच के जटिल संबंधों और वो आपस में किस तरह एक दूसरे को प्रभावित करते है, इसे समझने के लिए एक फ्रेमवर्क का निर्माण किया है| जिसके द्वारा किये विश्लेषण के अनुसार एक पूरी तरह से विकसित इकोसिस्टम को बनाये रखना जरुरी है| साथ ही इससे जुड़े पर्यावरण और स्वास्थ्य सम्बन्धो को भी बरक़रार रखना जरुरी है, क्योंकि यह महामारियों को रोकने के लिए अहम् होते हैं|

महामारियों के प्रसार के लिए स्वयं ही जिम्मेदार है इंसान

लेकिन यदि पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) में किसी तरह की गिरावट आती है| तो वो इन संक्रामक बीमारियों के इंसानों तक पहुंचने के खतरे को बढ़ा सकती हैं| इकोसिस्टम में आ रही यह गिरावट कई तरह से हो सकती है- जैसे वनों की अंधाधुन्द कटाई, भूमि उपयोग में बदलाव करना, कृषि सघनता में वृद्धि और बदलाव करना, साथ ही पानी और अन्य संसाधनों की उपलब्धता को कम करना आदि, इन सभी के चलते बीमारियों का प्रसार आसान हो जाता है|

यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट इंग्लैंड में शोधकर्ता और इस अध्ययन के प्रमुख मार्क एवरर्ड ने बताया कि, "स्वाभाविक रूप से इकोसिस्टम इस तरह से काम करते हैं कि बीमारियां जानवरों से इंसानों में नहीं फैल सकती| पर जैसे-जैसे इकोसिस्टम में गिरावट आती जाती है, बीमारियों का इंसानों में फैलना आसान हो जाता है|" उनका मानना है कि इसके साथ ही इकोसिस्टम में गिरावट के कारण जल संसाधनों जैसे जरुरी तत्वों की उपलब्धता घट जाती है| जो इन बीमारियों को फैलने में मददगार होती है| यदि हाथ धोने और साफ सफाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं उपलब्ध होगा तो इन रोगों का फैलना आसान हो जाता है| उनके अनुसार बीमारियों के बढ़ते खतरे और प्राकृतिक संसाधनों और इकोसिस्टम में आ रही गिरावट को अलग नहीं किया जा सकता| यह सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं|

एक्सेटर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता और इस अध्ययन से जुड़े डेविड सेंटिलो ने बताया कि, "दुनिया भर में जिस तरह कोविड-19 से जुड़े स्वास्थ्य और आर्थिक खतरों से निपटने के लिए दुनिया के अनेक देशों ने प्रभावी कदम उठाये हैं| उससे एक बात तो साफ हो जाती है कि यदि राजनैतिक इच्छाशक्ति हो तो जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को हो रहे नुकसान जैसे खतरों से भी निपटा जा सकता है|

शोधकर्ताओं का कहना है कि यह महामारी हम सभी के लिए एक सबक है| हमें आज पारिस्थितिक तंत्रों को जो नुकसान हुआ है उसे ठीक करने की जरुरत है| साथ ही वैश्विक समाज को बेहतर बनाना होगा| आज पर्यावरण और आर्थिक नीतियों के निर्माण में प्रकृति और मानव अधिकारों को वरीयता देना जरुरी है| संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी 2021 से 2030 की अवधि को पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली और जैव विविधता की सुरक्षा का दशक माना है| जिससे हमारे और प्रकृति के बीच के बिगड़ते रिश्तों को सुधारा जा सके|