स्वास्थ्य

डॉक्टरों ने कहा हड़ताल रही सफल, जानिए क्या है एनएमसी बिल का विवाद

Banjot Kaur

राज्यसभा में विवादित राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक, 2019 के पेश किए जाने से एक दिन पहले ही द फेडरेशन ऑफ रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन और रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन ने यह घोषणा की थी कि यदि यह विधेयक जस का तस ही राज्य सभा में पेश किया जाएगा तो वे आपात सेवाओं के साथ स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह बंद कर देंगे। वहीं, विधेयक के खिलाफ भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल किया। 29 जुलाई को इस विधेयक को लोकसभा से पास किया गया था। हालांकि, दिल्ली में इस विरोध का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा और एम्स व अन्य अस्पतालों में डॉक्टर काम पर रहे। आइएमए की ही दिल्ली शाखा ने शुरुआत में इस बिल को समर्थन दिया था। 

आईएमए के सचिव डॉक्टर आरवी असोकन ने कहा कि दिल्ली में इस हड़ताल का आंशिक प्रभाव रहा लेकिन दूसरे राज्यों में डॉक्टरों ने सिर्फ आपात सेवाएं दीं। हमारा विरोध अन्य राज्यों में सफल रहा। इस विधेयक के कई  प्रवाधानों को लेकर डॉक्टरों का पूरे वर्ष हड़ताल जारी रहा है। इस विधेयक में मेडिकल शिक्षा और पेशे को नियंत्रित करने वाले मौजूदा भारतीय चिकित्सा परिषद को खत्म कर इसकी जगह पर 25 सदस्यीय राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग गठित करने की बात है। इस आयोग का अध्यक्ष केंद्र सरकार की गठित समिति के जरिए नियुक्त किया जाएगा। वहीं, सरकार के पास ही अध्यक्ष व सदस्य को हटाने के अधिकार भी होंगे। इसका एक सचिवालय भी होगा। अब भी सचिव सरकार के जरिए नियुक्त किए जाते हैं।

स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉक्टर टी सुंदररमण  ने बताया कि यह स्वास्थ्य शिक्षा के संघ और स्वायत्ता पर हमला है। केंद्र सरकार हर एक अहम संस्थाओं में अपने व्यक्ति बिठाना चाहती है जो कि सामंजस्य करने वाला हो या फिर उसे आसानी से हटाया जा सके। ब्यूरोक्रेसी ही सर्वोच्च होगी। कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जिससे विभिन्न संस्थाओं में मुख्य पदों का चुना जाए। यह बेहद डरावना है।

इस विधेयक में एक चिकित्सा सलाहकारीय परिषद भी बनाने की बात है जो कि आयोग को सलाह देगी। इस परिषद में एक सदस्य राज्य और केंद्र का होगा। डॉक्टर टी सुंदररमण ने कहा कि राज्यों की भागीदारी महज सलाह की रह जाएगी। क्यों आयोग के हर सदस्य को सलाहकार बोर्ड के पदेन सदस्य होने की आवश्यकता क्यों है, सिर्फ इसलिए कि वे केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। यह शक्ति के केंद्रीकरण का पागलपन है। वहीं, आईएमए का कहना है, “इस सलाहकार परिषद में आयोग के 24 सदस्यों सहित 103 सदस्य होंगे। ऐसे में इतने बड़े निकाय के साथ क्या कभी किसी मुद्दे पर सर्वसम्मति संभव हो पाएगी। यह शीर्ष निर्णयों को प्रभावित करेगा।

डॉ सुंदररमण ने कहा कि विधेयक की एक और गंभीर चिंता यह है कि आयोग केवल 50 प्रतिशत निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस के निर्धारण के लिए दिशानिर्देशों को तैयार करेगा। हालांकि, इस बारे में लोकसभा में बोलते हुए, डॉ हर्षवर्धन ने कहा कि चिकित्सा शिक्षा 'समवर्ती विषय' में है, राज्य सरकार निजी मेडिकल कॉलेजों में 100 प्रतिशत सीटों पर निर्णय के लिए स्वतंत्र है, यह राज्य निकायों द्वारा निर्धारित किया जाता है। यह अपनी गेंद राज्यों की अदालतों के पाले में डालने जैसा है। यह संभावना नहीं है कि राज्य शेष सीटों पर निर्णय लेंगे। यदि वे ऐसा करेंगे तो भी यह कानूनी जांच नहीं होगी। यह निजी कॉलेजों के लिए अनियंत्रित स्थितियों को जन्म देगी जो कि बेहद भयावह है।

विधेयक के चौथे चैप्टर में राष्ट्रीय एग्जिट टेस्ट (एनईएक्सटी) के बारे में कहा गया है। यह स्नातक यानी एमबीबीएस के बाद प्रेक्टिस के लिए लाइसेंस लेने से संबंधित है। 29 जुलाई को लोकसभा में कहा गया कि यह परास्नातक (पीजी) स्तरीय प्रवेश परीक्षाओं के लिए भी इस्तेमाल होगा। सरकार ने कई भ्रम के बिंदु छोड़ दिए हैं।

आईएमए का कहना है कि यह खतरनाक स्थिति पैदा कर देगा “ ऐसा प्रतीत होता है कि जो परीक्षा को पास नहीं करेंगे, उन्हें चिकित्सा अभ्यास करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, यह संख्या काफी बड़ी है।  पिछले ही साल, 1.15 लाख छात्रों ने पीजी प्रवेश परीक्षा दी, लेकिन इनमें केवल 80,000 योग्य निकले। अन्य अभी भी एमबीबीएस डॉक्टर के रूप में प्रैक्टिस कर रहे हैं। यह विधेयक अन्याय है। इससे चिकित्सकों की तीव्र कमी को बढ़ावा मिलेगा। हमारे देश में पहले से ही चिकित्सकों कमी को झेल रहा है।

डॉ सुंदररमण ने कहा कि एमबीबीएस छात्र पहले ही अंतिम वर्ष में काफी कड़ी परीक्षा का सामना करते हैं। यदि सभी के लिए एक एक्जिट परीक्षा दी जानी थी, तो इसे स्वैच्छिक और ग्रेड-आधारित बनाया जाना चाहिए था। इसलिए यदि एमबीबीएस प्रैक्टिशनर ग्रेड-मान्यता प्राप्त करना चाहता है है तो वह इसे ले सकता है, जैसा कि कुछ देशों में है।

 अब तक अनुमोदन के लिए मेडिकल कॉलेजों का निरीक्षण एमसीआई द्वारा किया जाता था, जो अब मेडिकल एसेसमेंट और रेटिंग बोर्ड द्वारा किया जाएगा। वहीं, विधेयक कहता है कि मेडिकल कॉलेजों का न केवल बोर्ड के सदस्य निरीक्षण कर सकते हैं बल्कि बोर्ड "किसी अन्य तृतीय पक्ष एजेंसी या व्यक्तियों को निरीक्षण करने के लिए नियुक्त और अधिकृत कर सकता है।" आईएमए का कहना है कि यह उसी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा जिसका आरोप एमसीआई पर लगा है। हालांकि, डॉ सुंदररमण इस तर्क से असहमत हैं।

उन्होंने कहा कि यह तय होगा कि जांच करने वाली एक प्रशिक्षित टीम ही ऐसा करेगी तो यह खराब प्रावधान नहीं हो सकता। क्योंकि डॉक्टर्स वाली संस्थाएं यदि ऐसा करेंगी तो यह बेहतर हो सकता है। हमें इसे देखना चाहिए और इंतजार करना चाहिए।  डॉ सुंदररमण ने कहा कि विधेयक के एक और प्रावधान पर चिंता जताई जा रही है कि इसमें सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को ही सीमित स्तर पर डॉक्टर की भूमिका दी जाएगी। हालांकि सरकार यह स्पष्ट तौर पर नहीं बता सकी है कि वे कौन होंगे जिन्हें डॉक्टर की सीमित भूमिका दी जाएगी। आईएमए इसका भी विरोध कर रही है। हालांकि, इस तरह की प्रैक्टिस कुछ राज्यों और दूसरे देशों में चल रही है, जहां पर नर्स और जूनियर स्टॉफ को ही ग्रामीण स्तर पर चिकित्सा देने की अनुमित है। यदि डॉक्टरों की कमी को देखें तो यह एक अच्छा कदम हो सकता है। हालांकि इसे समग्र दृष्टि के साथ नियंत्रित करना होगा। यह भी देखना होगा कि सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र के लोग ही ऐसा करें। यदि निजी क्षेत्रों को बढावा दिया जाता है तो इससे न सिर्फ भ्रष्टाचार बढ़ेगा बल्कि इसका मकसद भी खत्म हो जाएगा। इस संबंध में जो भी अस्पष्ट बिंदु हैं पहले वे स्पष्ट होने चाहिए। उन्होंने यूजी, पीजी स्तरीय स्वास्थ्य शिक्षा, मेडिकल एसेसमेंट एंड रेटिंग बोर्ड, एथिक्स एंड मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड आदि को सराहा भी। यह सब पहले एमसीआई के साथ नहीं जुड़े थे।

 बहरहाल एक तरफ डॉ हर्षवर्धन ने लोकसभा में कहा कि यह विधेयक मील का पत्थर साबित होगा जबकि डॉ सुंदररमण का कहना है कि ऐसा नहीं है। इस विधेयक का सबसे खराब भाग यह है कि अहम संस्थाओं में डॉक्टरों के चयन का कोई प्रावधान नहीं है।