फिदेल कास्त्रो ने 1958 में बतिस्ता की सैन्य तानाशाही को उखाड़ फेंका था। इसके बाद से क्यूबा में और भी कई क्रांतियां हुईं। लेकिन, इस बार इस देश ने अब तक की सबसे शांत और सबसे हैरतअंगेज क्रांति को अंजाम दिया है।
बीते दशकों के दौरान इस छोटे से राष्ट्र में सार्वजनिक स्वास्थ्य, अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा सेवाओं (जहां डॉक्टरों को जरूरतमंद देशों में भेजा गया था) और खासतौर पर बायोटेक्नॉलजी के क्षेत्र में क्रांतियां होती रही हैं।
इन सबके बावजूद, कोविड-19 महामारी की वजह बने सार्स-कोविड-2 वायरस से जंग के लिए क्यूबा में 5 टीकों का विकास एक अद्वितीय उपलब्धि है। इनमें से 3 टीकों से देश की 93 फीसदी आबादी का टीकाकरण किया जा रहा है।
लेकिन, वैश्विक मीडिया ने काफी हद तक इस पर ध्यान नहीं दिया, जबकि वह फाइजर और तेजी से तरक्की करने वाली मॉडर्ना जैसी कंपनियों के बनाए नए व महंगे एमआरएनए टीकों पर नजरें टिकाए रहा, उनके मालिकों का स्तुति गान करता रहा।
साइंस जनरल नेचर उन पत्रिकाओं में से एक है, जिसकी निगाह क्यूबा के सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नॉलजी और फिनले इंस्टीट्यूट ऑफ वैक्सीन की सफलताओं पर सबसे पहले पड़ी।
2021 के मध्य में कुछ समाचार एजेंसियों ने हवाना से मिल रहीं अच्छी खबरों को रिपोर्ट करना शुरू किया। क्यूबा के कुछ देशों में वैक्सीन भेजने के बाद इसमें दिलचस्पी और बढ़ गई।
कैरेबियाई द्वीप जब कोविड-19 महामारी की चपेट में आया तो क्यूबा की स्वतंत्रता की भावना एक बार फिर उभरकर सामने आ गई, जो अमेरिका की ओर से 6 दशकों तक लगाए गए व्यापार प्रतिबंधों के दौरान प्रखर हुई थी।
लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के निम्न आय वाले देशों को वैक्सीन के लिए अमीर देशों पर निर्भर रहने का मतलब था एक लंबा इंतजार और जो संभवत: व्यर्थ भी जाता।
खुद के बूते पर महामारी से लड़ने का क्यूबा का फैसला दूसरे देशों, खासतौर पर भारत के लिए एक मिसाल पेश करता है, जिसके पास क्यूबा से 10 गुना ज्यादा वैज्ञानिक मानव शक्ति है और रिसर्च के लिए जरूरी इनपुट्स तक स्वतंत्र पहुंच और ज्यादा संसाधन हैं।
क्यूबा में शिक्षा व विज्ञान को लेकर गंभीरता के साथ ही वहां के लोगों की सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकताओं और अनुसंधान एवं विकास (आर एंड डी) के बीच सीधा संबंध यहां एक बुनियादी फर्क पैदा कर देता है। इस तरह से क्यूबा ने एक शानदार स्वास्थ्य जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र की स्थापना की है, जिसका पूरी दुनिया सम्मान करती है।
अपने संसाधनों और दुर्जेय अनुसंधान प्रतिभा का इस्तेमाल कर खुद की वैक्सीन विकसित करने का फैसला कर हवाना ने अपने गंभीर आर्थिक संकटों को दरकिनार करने के संकल्प का भी संकेत दिया। तेजी से बढ़ रहे कोविड-19 के मामलों के चलते तुरंत कदम उठाने की जरूरत थी, लिहाजा कई महत्वपूर्ण शोध परियोजनाओं को भी रोक दिया गया। साल भर तक हुईं कोशिशों के परिणाम बेहद शानदार रहे। 11.3 मिलियन की आबादी वाले क्यूबा ने 5 कोविड टीके विकसित कर दिखाए।
बताया जाता है कि इनमें से 4 टीकों की 3-3 खुराक देकर देश की 90 फीसदी से अधिक आबादी को महामारी से सुरक्षा प्रदान की गई। इससे देश अपनी एक बड़ी आबादी का टीकाकरण कर सका। क्यूबा से कम आबादी वाले तेल संपदा से समृद्ध खाड़ी देश संयुक्त अरब अमीरात और पुर्तगाल जो इससे जरा सा आगे है, इन दोनों को छोड़कर क्यूबा ने दुनिया के अन्य देशों को टीकाकरण के मामले में पछाड़ दिया।
साइंटिफिक वेबसाइट अवर वर्ल्ड इन डेटा पर उपलब्ध 20 जनवरी 2022 तक के आंकड़ों के मुताबिक क्यूबा के 86.54 फीसदी नागरिकों को टीके की तीनों डोज दी जा चुकी हैं, जबकि अन्य 7 प्रतिशत लोगों का आंशिक टीकाकरण हो चुका है।
ग्लास्गो यूनिवर्सिटी के अकैडमिक और क्यूबा विशेषज्ञ हेलेन याफ इसे ‘अविश्वसनीय उपलब्धि’ बताते हैं, जबकि एक अन्य लैटिन अमेरिकी विशेषज्ञ व नोवा स्कॉशा स्थित डलहौजी यूनिवर्सिटी से जुड़े जॉन किर्क भी इसकी तारीफ करते दिखते हैं, “अपनी खुद की वैक्सीन बनाना और देश की 90 फीसदी से अधिक की आबादी का टीकाकरण करने का दुस्साहस इस छोटे से देश के लिए बहुत असाधारण बात है।”
सीएनबीसी के साथ बातचीत के दौरान दोनों अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे। हालांकि, क्यूबा के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए यह कोई बड़ी आश्चर्यजनक बात नहीं लगनी चाहिए। 1980 में जब कास्त्रो ने जैव प्रौद्योगिकी की क्षमता को महसूस कर लिया था, तब अधिकतर विकसित, धनी राष्ट्रों को भी इस नए क्षेत्र में संभावनाएं नहीं समझ आई थीं। फिदेल कास्त्रो ने उस दौरान जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अविश्वसनीय तौर पर 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया था।
उन्होंने अपने वैज्ञानिकों को सोवियत संघ के साथ रह चुके शोधकर्ताओं के साथ ही अमेरिका, फिनलैंड और कनाडा के अग्रणी शोधकर्ताओं के पास भी भेजा, जो बौद्धिक संपदा की अड़चनों के बिना अनुसंधान एवं विकास के परिणामों को साझा करने को तैयार थे।
परिणामस्वरूप 1980 के दशक से ही क्यूबा का बायो-फार्मा इनोवेशन एक ऐसी बानगी पेश करता रहा है, जिसमें जानलेवा बीमारियों जैसे कि हेपेटाइटिस, पोलियो और मेनिन्जाइटिस बी आदि से निपटने के लिए कम लागत वाली दवाओं को खोजने के लिए समर्पित तौर पर प्रयास हो रहे हैं। लेकिन, क्यूबा को खास बनाने वाली बात यह नहीं है, बल्कि इससे भी बढ़कर वह अपने ही वर्ग में आने वाले तीसरी दुनिया के देशों के साथ साझा भी अपनी खोजों को साझा करने के लिए तत्पर रहता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) तकनीकी हस्तांतरण के संबंध में क्यूबा की एक अगुवा के तौर पर तारीफ करता है, जो निम्न आय वाले देशों को उनकी अपनी बायोटेक क्षमताओं को विकसित करने, उन्हें तकनीकी प्रशिक्षण मुहैया कराने और मेनिन्जाइटिस बी व हेपेटाइटिस बी जैसी बीमारियों से मुकाबला करने के लिए कम लागत वाली जीवन रक्षक दवाओं तक पहुंचने की सुविधा देने में मदद करता है।
इस समय जब पूरी दुनिया कोविड-19 के नए वैरिएंट्स से जूझ रही है, तब क्यूबा की 3 खुराक वाले टीकों की खोज उन देशों के लिए उम्मीद की किरण बन रही है, जो टीकों की डोज के लिए जूझ रहे हैं। क्यूबा के इन टीकों में से एक अब्दला वैक्सीन प्रोटीन पर आधारित है, जबकि बाकी टीके सोबरना सीरीज के तहत आते हैं, जिनमें मेनिन्जाइटिस व टाइफाइड के टीकों की तर्ज पर एक ‘संयुग्मित’ डिजाइन का उपयोग किया गया है। डब्ल्यूएचओ से टीकों को मंजूरी मिलने के इंतजार के दौरान वेनेजुएला, निकारागुआ, ईरान और वियतनाम को आपातकालीन सप्लाई भेजी जा चुकी है। ऐसे में वैक्सीन के लिए राजनीतिक सहयोगियों को प्राथमिकता मिल सकती है।
इसी बीच, फिनले इंस्टीट्यूट ने पाश्चर इंस्टीट्यूट के साथ तेहरान में 24,000 लोगों पर क्लिनिकल ट्रायल करने के लिए एक महत्वपूर्ण समझौता किया है। इसके परिणामों के जल्द ही प्रकाशित होने की संभावना है। दुनियाभर तक इन टीकों को पहुंचाने में केवल एक ही समस्या है, क्यूबा में सीमित उत्पादन। फिनले इंस्टीट्यूट हर महीने सोबरना 02 वैक्सीन की 10 मिलियन खुराक का उत्पादन कर सकता है, लेकिन दुनिया खासकर अफ्रीका, जहां टीकों की किल्लत चरम पर पहुंच रही है, को इससे कहीं ज्यादा की जरूरत है।
क्यूबा पर नजर रखने वाले याफ जैसे विशेषज्ञों का विश्वास है कि आने वाले वर्षों में टीकाकरण की सुविधा के लिए इस छोटे से देश के टीके सबसे बेहतर उम्मीद हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञ भारत की भारत बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड की ओर से बनाई जा रही कोवैक्सीन के बारे में बहुत कम बात कर हैं। कोविड-19 के नए वैरिएंट्स को टक्कर देने में इसकी क्षमता अब तक साबित नहीं हो सकी है, वहीं इसके उत्पादन में भी खास बढ़ोतरी नहीं दिख रही है। न ही दूसरी कंपनियों के साथ कोई लाइसेंसिंग समझौता हुआ है। इसकी वजह शायद टेक्नॉलजी के स्वामित्व का संदिग्ध बने होना है या फिर इसे व्यवहारिक प्रोजेक्ट के तौर पर नहीं देखा जा रहा है। इन हालात में एक ही बात कही जा सकती है, जिंदाबाद क्यूबा! इस उम्मीद के साथ कि उसकी यह नई क्रांति दूर-दूर तक फैले।