एफएसएसएआई अपने खुद के नियमों को लागू करने में देरी कर सकता है लेकिन सीएसई ने उन्हीं नियमों का इस्तेमाल कर जाना कि हम क्या खा रहे हैं। अगर नियमों को लागू कर दिया जाता है तो क्या होगा और जो भोजन हम खा रहे हैं वह कितना उचित है? क्या तब इसे खाना ठीक रहेगा? या यह रेड होगा जो हमें बताएगा कि भोजन सुरक्षित नहीं है?
सीएसई द्वारा प्रयोगशाला में किए गए परीक्षण के नतीजे साफ बताते हैं कि सभी जंक फूड रेड फूड हैं। चूंकि सभी पैकेटबंद भोजन में नमक और वसा की मात्रा अधिक है, इसलिए पैकेट में कम से कम दो लाल रंग के अष्टकोणीय चिह्न होने चाहिए। वसा के लिए लाल होने वाली फ्राईज और नमक के लिए लाल होने वाले पिज्जा को छोड़कर, सभी फास्ट फूड नमक और वसा के लिए लाल होना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि लाल निशान मैन्यू और रेस्तरां के डिस्प्ले बोर्ड पर प्रदर्शित किए जाते हैं। सीएसई का विश्लेषण बताता है कि पैकेटबंद भोजन और फास्ट फूड में सीमा से कई गुणा अधिक वसा और नमक है।
नमक का ही उदाहरण लें। एफएसएसएआई ने 100 ग्राम के चिप्स, नमकीन और नूडल्स में 0.25 ग्राम सोडियम की मात्रा निर्धारित की है। जबकि 100 ग्राम के सूप और फास्ट फूड के लिए 0.35 ग्राम सोडियम की सीमा निर्धारित की है। नोर क्लासिक थिक टोमेटो सूप में निर्धारित सीमा से 12 गुणा अधिक नमक पाया गया है। हल्दीराम के नट क्रेकर में भी आठ गुणा अधिक नमक मिला है। 100 ग्राम के चिप्स और नमकीन के लिए वसा की सीमा आठ ग्राम निर्धारित है लेकिन अधिकांश चिप्स और नमकीन में यह 2-6 गुणा अधिक पाया गया है। मैकडोनल्ड्स के बिग स्पाइसी पनीर रैप, सबवे के पनीर टिक्का सैंडविच (6 इंच) और केएफसी हॉट विंग्स के चार पीस में दोगुना से अधिक वसा मिला है। 2019 का ड्राफ्ट फास्ट फूड में 25 प्रतिशत विचलन की बात कहता है लेकिन यह मात्रा उससे बहुत अधिक है।
यही वजह है कि फूड इंडस्ट्री आप तक जानकारी नहीं पहुंचने देना चाहती। और यही वजह है कि इंडस्ट्री ड्राफ्ट को लागू करने का विरोध कर रही है। उसकी रणनीति स्पष्ट है। वह चाहती है नई समिति बने और नियमों को और कमजोर कर दिया जाए। सेसिकरण की अध्यक्षता में 2018 में बनी कमेटी की रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है। लेकिन इस कमेटी ने उद्योगों के हितों को ध्यान रखा है। यह कारोबार अंधेरे में काम करने में माहिर है। 16 सितंबर 2019 को न्यूयॉर्क टाइम्स में “ए शेडो इंडस्ट्री ग्रुप शेप्स फूड पॉलिसी अराउंड द वर्ल्ड” शीर्षक से प्रकाशित लेख में खुलासा किया गया है कि किस तरह इंटरनेशनल लाइफ साइंसेस रिसर्च इंस्टीट्यूट बड़ी फूड बिजनेस करने वाली कंपनियों के लिए सरकार के साथ लॉबिंग करता है। इसलिए आपको यह जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सेसिकरण इस संगठन के ट्रस्टी हैं। इससे स्पष्ट होता है कि इन कंपनियों की पहुंच कितनी व्यापक है। कमेटियों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक में उनकी पैठ है। फूड इंडस्ट्री नहीं चाहती है कि ड्राफ्ट को लेकर उसका बयान लिया जाए। 27 जून 2019 को इकॉनोमिक टाइम्स में प्रकाशित लेख में ऑल इंडिया फूड प्रोसेसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सुबोध जिंदल ने नियमों को न तो वैज्ञानिक माना और न ही व्यवहारिक। लेख में उनका बयान था, “पैकेटबंद भोजन में नमक, शुगर और वसा की मात्रा स्वाद की जरूरतों पर निर्भर करती है। यह उत्पादकों की पसंद नहीं है।” जब सीएसई ने उनसे संपर्क किया जो उन्होंने टिप्पणी से इनकार कर दिया।
पेप्सिको इंडिया ने साधारण बयान दोहराया कि वह एक “कानून का पालन करने वाला कारपोरेट नागरिक है और वह भारत सरकार की ओर से बनाए गए सभी नियमों का पालन करेगा। इसमें लेबलिंग के नए नियम भी शामिल हैं।”
नेस्ले इंडिया ने सीएसई द्वारा भेजे गए ईमेल का पत्रिका छपने तक कोई जवाब नहीं दिया। हल्दीराम के नागपुर डिवीजन के ब्रांड मैनेजर साहिल सपरा ने भी टिप्पणी से इनकार कर दिया। लेकिन तथ्य पूरी स्पष्टता से बोल रहे हैं। 2013 के बाद से जारी नियमों के जरिए उपभोक्ता को सूचित करने के प्रयासों को पूरी तरह नकार दिया गया है। अगर फूड इंडस्ट्री का काफी कुछ दाव पर लगा है तो लोगों का स्वास्थ्य उससे भी बड़े दाव पर है। एफएसएसएआई को स्वीकार करना होगा कि उद्योगों का हित हमारे स्वास्थ्य और कल्याण से बड़ा नहीं है। एक बेहतर और पूर्ण रूप से विकसित नियमों को तत्काल प्रभाव से लागू करने की जरूरत है।
(भव्या खुल्लर के इनपुट के साथ)