पच्चीस, यह संख्या बहुत कम आय वाले एक अफ्रीकी देश के लिए शर्म और अपमान की बात है, क्योंकि नोवेल कोरोना वायरस की केवल 25 खुराक इस देश को भेजी गई हैं। ढाई करोड़ नहीं, 25 हजार नहीं, यहां तक कि 2500 भी नहीं, केवल 25 खुराक, वह भी एक देश के लिए।
इससे विचलित विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) प्रमुख टेड्रोस एडेहनम ग्रेब्रेयेसस ने जनवरी में संगठन के कार्यकारी बोर्ड की मीटिंग में यह जानकारी दी थी। इसका खुलासा बाद में हुआ कि वह देश दुनिया के सबसे कम आय वाले 29 देशों में शामिल गिनी है, इनमें से पांच देश अफ्रीका में हैं।
ग्रेब्रेयेसस का मानना है कि दुनिया नैतिक मूल्यों के विनाशकारी पतन के मुहाने पर है और इसका नतीजा वही पुराना है- यानी इसका खामियाजा सबसे गरीब देशों को चुकाना पड़ेगा, जहां के लोग और जिनका जीवन किसी की प्राथमिकता में नही है। हालांकि 2020 में डब्ल्यूएचओ की अगुआई में कोविड-19 वैक्सीन की समान उपलब्धता को लेकर कई ऐसे प्रयासों से उम्मीद जगी थी, इनमें एक्सेस टू कोविड-19 टूल्स एक्सललेटर (एसीटी) और कोवैक्स के विकास, उत्पादन और वैक्सीन के समान वितरण के लिए किए गए वैश्विक सहयोग शामिल हैं, लेकिन लगता है कि इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है।
जरूरी दवाईयों के वितरण से जुड़ी असमानता को समझने के लिए हमें केवल एचआईवी, एडस को याद करना होगा। यह वैश्विक महामारी 40 साल पहले आई थी, जिसके लिए आज भी कोई वैक्सीन नहीं है, इसके चलते अफ्रीका में दसियों लाख लोगों की मौत हुई थी। इसके लिए तैयार दवाईयां केवल अमीर देशों को मिली थीं और वह भी एक दशक बाद।
इसके लिए हमें अलग हटकर सोचने वाली भारतीय जेनेरिक्स कंपनी सिपला और उसके साहसी प्रमुख का शुक्रिया अदा करना चाहिए, जिनका मानना था कि गरीब देशों में रहने वाले लोगों को भी जीवनरक्षक दवाएं उपलब्ध होनी चाहिए।
देखिए, कोविड-19 के दौर में वैक्सीन को लेकर किस तरह का खेल किया जा रहा है। यह वैक्सीन बनाने वाले अमीर देशों के लिए एक मौका है क्योंकि गरीब देश उनकी तरफ उम्मीद से देख रहे हैं। लेकिन कोवैक्स को प्राथमिकता देने की बजाय अमीर देश और दवा कंपनियां द्विपक्षीय करार करने की जल्दबाजी कर रही हैं।
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, पिछले साल 44 द्विपक्षीय करारों पर दस्तखत किए गए जबकि एक दर्जन से ज्यादा करारों पर इस साल। इन्हीं करारों का नतीजा है कि गरीब देशों के बुजुर्गों से पहले अमीर देशों के युवा और स्वस्थ बालिगों को पहले वैक्सीन दी जा रही है।
कोवैक्स के लिए कुछ परोपकारियों और दुनिया के अमीर देशों ने फंड दिया था। जिसके चलते इसकी दो अरब खुराक पांच उत्पादन कर्ताओं के लिए सुरक्षित रखी गई हैं और एक अरब खुराक इन्हें और दिए जाने की उम्मीद है। लेकिन विडंबना केवल इतनी ही नहीं है। अफ्रीकी देशों को अपने वैक्सीन की खुराक का इंतजाम खुद करने के लिए कहा जा रहा है, उन्हें इसके लिए महंगे रेट पर वैक्सीन के करार करने पड़ रहे हैं। एस्ट्राजेनेका, उन्हें यूरोपीय यूनियन के देशों से तीन गुना ज्यादा के रेट पर मिल रही हैं।
उदाहरण के लिए, कोरोना के ज्यादा केसों वाले देशों में से एक दक्षिण अफ्रीका से भारत के सीरम इंस्टीटयूट से वैक्सीन की 15 लाख खुराक खरीदी हैं। यह उसे 5.25 डालर प्रति खुराक के हिसाब से बेची गई है जबकि यूरोपीय देशों को यही वैक्सीन 2.50 डालर प्रति वैक्सीन के हिसाब से बेची गई।
दक्षिण अफ्रीका से ज्यादा कीमत लेने के पीछे सीरम इंस्टीटयूट का तर्क यह था कि एक बड़े उत्पादनकर्ता के तौर पर खरीदार देशों की आय के हिसाब से एक प्राइसिंग सिस्टम बना रहा है। हालांकि दक्षिण अफ्रीका एक उच्च-मध्य आय वाला देश है लेकिन वह यूरोपीय देशों से काफी पीछे है जो उच्च आय श्रेणी वाले देशों में शमिल हैं।
दक्षिण अफ्रीका को यह दलील भी दी गई कि यूरोपीय देशों को दाम में छूट इसलिए दी गई क्योंकि इन देशों में वैक्सीन की रिसर्च और उसके डेवलपमेंट पर निवेश किया किया जा रहा है। लेकिन फिर युगांडा के लिए क्या दलील दी जाएगी, जिसे तथाकथित तौर पर हर खुराक के लिए सात डालर चुकाने पड़े जबकि वह कम आय वाला देश है। इसे लेकर दुनिया भर में गुस्सा है लेकिन असल में वैक्सीन की समानता की परवाह करता कौन है ?