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आवरण कथा: जेनेरिक दवाओं की तरह सस्ती क्यों नहीं है कोविड-19 वैक्सीन?

कोविड-19 वैक्सीन जेनेरिक दवाओं की तरह सस्ती क्यों नहीं हो सकती है? वैक्सीन को लेकर डाउन टू अर्थ की खास विश्लेषण की अगली कड़ी पढ़ें

Latha Jishnu

क्या टीका जेनरिक दवा जितनी सस्ती हो सकती है?

यह सेब की तुलना संतरे से करने जैसा होगा। टीकों के उत्पादन की प्रक्रिया एचआईवी-एड्स की दवाइयों के उत्पादन की प्रक्रिया से पूरी तरह से अलग है

कुछ अप्रत्याशित जगहों पर प्रकाशित हुए लेखों की एक शृंखला में एक खास विषय छाया रहा है। भारत ने डब्ल्यूटीओ में सभी कोविड-19 उपचारों, उपकरणों और टीकों पर आईपीआर को तब तक समाप्त करने की मांग की है जब तक कोविड खत्म न हो जाए। यह लेख भारत सरकार से अपनी ही मांग पर खरा उतरने की मांग कर रहा है। ये लेखक, जिनमें से कुछ अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं, चाहते हैं कि सरकार अपने डेवलपर्स, निजी स्वामित्व वाली भारत बायोटेक और सार्वजनिक क्षेत्र की इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च से स्वदेशी रूप से उत्पादित कोवैक्सीन टीके पर आईपीआर खरीद ले और टीके का उत्पादन करने को इच्छुक संस्थाओं अथवा कंपनियों को इसकी अनुमति प्रदान करे।

प्रस्ताव के समर्थकों का तर्क है कि यह डब्ल्यूटीओ में भारत की प्रामाणिकता को साबित करेगा, जहां हमने दक्षिण अफ्रीका के साथ, महामारी की अवधि के लिए ट्रिप्स समझौते को स्थगित रखने की मांग की है। हालांकि विकसित देशों ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया है, लेकिन कई हाई-प्रोफाइल अधिकार संगठन, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रचारक और न्याय के लिए लड़ने वाले अन्य लोग इस मांग का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह कोविड से लड़ने के लिए आवश्यक उपकरण, दवाओं और टीकों तक पहुंच को व्यापक करेगा।

विवादास्पद मुद्दा यह है कि क्या छूट वास्तव में ऐसा करेगी। खासकर टीके, जो आज के समय की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता हैं, क्या उन्हें जेनेरिक दवाओं की तरह सस्ते दामों पर व्यापक रूप से उपलब्ध कराया जा सकता है? यह सेब की तुलना संतरे से करने जैसा होगा। यूसुफ हमीद वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने आईपीआर पर निर्णायक लड़ाई लड़ी और हमेशा के लिए जेनेरिक दवा उद्योग का प्रोफाइल बदल दिया। आईपीआर को हटाने से टीकों की दिशा में क्या हासिल किया जा सकता है, इस बारे में कुछ लोकप्रिय गलत धारणाओं को उन्होंने सही किया। हमीद सिपला के चेयरमैन हैं। सिपला वह छोटी सी जेनेरिक कंपनी है जिसने लगभग 25 साल पहले एचआईवी-एड्स के इलाज के लिए खर्च की गई लागत के एक अंश पर दवाओं का उत्पादन करके बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनियों को चुनौती दी थी। वह बताते हैं कि टीकों के उत्पादन की प्रक्रिया एचआईवी-एड्स की दवाइयों के उत्पादन की प्रक्रिया से पूरी तरह से अलग है। एचआईवी के इलाज के लिए जिन दवाओं का इस्तेमाल होता है वे मूल रूप से छोटे अणु होते हैं जिन्हें संश्लेषित करना आसान होता है।

हयूमीरा एक जैविक या जीवित कोशिकाओं से बनी दवा है। इसका उदाहरण देकर हमीद कहते हैं, “आप एक टीका निर्माता का पेटेंट ले तो सकते हैं फिर भी इसका उत्पादन नहीं कर पाएंगे। यह बायोटेक की तरह है। दुनिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली बायोटेक दवा हयूमीरा 247 पेटेंट से घिरी हुई है। मैं पेटेंट मुक्त कर तो दूं, लेकिन आप इसके साथ क्या करने जा रहे हैं?”

कोविड-19 महामारी ने टीका निर्माताओं और सरकारों पर जो दबाव डाला है, उसे देखते हुए, एक आम धारणा है कि जब जेनेरिक दवाओं का उत्पादन इनोवेटर दवाओं की तुलना में बहुत अधिक सस्ते में किया जा सकता है, तो दूसरी पीढ़ी के टीके भी मूल टीके की तुलना में सस्ती कीमत पर बनाए जा सकते हैं यदि पेटेंट एक बाधा के रूप में कार्य न करे।

यह सही तुलना नहीं है क्योंकि टीकों के मामले में, कोई “जेनेरिक” नहीं है। दूसरी पीढ़ी या फॉलो-ऑन उत्पादों के लिए नियामक प्रक्रिया बिल्कुल मूल टीके के समान ही है। इसका मतलब यह है कि जेनेरिक दवा निर्माताओं के विपरीत, दूसरी पीढ़ी के टीका निर्माताओं को अपनी खुद की उत्पादन प्रक्रिया विकसित करनी होगी और नए क्लीनिकल परीक्षणों के माध्यम से प्रभावकारिता और सुरक्षा दिखानी होगी, केवल जैव-समतुल्यता दिखाना पर्याप्त नहीं है। क्या हमीद ने इस मुद्दे पर आखिरी बात कह दी है या आगे कोई बहस होगी?

रॉयल्टी का दिलचस्प मामला

आईसीएमआर के विरोधाभास और टीका की बौद्धिक संपदा के स्वामित्व पर आक्षेप कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में मददगार साबित नहीं हो रहे हैं

कोविड-19 के खिलाफ टीका बनाने वाले मुट्ठी भर देशों में शामिल भारत को अपनी उपलब्धि का जश्न मनाना चाहिए। लेकिन ठीक इसके विपरीत, निजी टीका कंपनी भारत बायोटेक (बीबीआईएल) के साथ साझेदारी में आईसीएमआर द्वारा विकसित कोवैक्सीन टीका को सात परदों के अंदर रखा गया है। सबसे खतरनाक पहलू टीका पर आईपी का स्वामित्व है और आईसीएमआर के बयानों ने इस भ्रम को और भी मजबूत किया है। बीबीआईएल ने भी इस विषय पर चुप्पी बनाए रखी है।

भारत में कोरोनावायरस पर शोध का कालक्रम और टीका का विकास हमें एक प्रश्न पूछने पर मजबूर करता है- यदि सार्वजनिक क्षेत्र की प्रयोगशालाओं द्वारा इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम नहीं किया गया होता तो क्या बीबीआईएल टीका बनाने में सक्षम होती, वह भी इतने कम समय में?

घातक कोविड-19 महामारी से लड़ने के लिए टीकों की व्यापक पहुंच के वैश्विक अभियान में, सबसे अधिक विवादित मुद्दा बाजार में लाए गए सफल टीकों के विकास में सार्वजनिक धन की भूमिका है। क्या निजी कंपनियों को जीवन रक्षक टीकों पर पेटेंट एकाधिकार देकर भारी मुनाफा कमाने की अनुमति दी जानी चाहिए, जबकि अधिकांश धन सार्वजनिक अनुसंधान और करदाताओं के पैसे से आया है?

कोवैक्सीन के मामले में भी ऐसे प्रश्न उठना लाजिमी है। लेकिन यहां मामला उलझा हुआ है। टीके के अधिकार किसके पास हैं, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है। वैज्ञानिक बिरादरी, कानूनी विशेषज्ञों और मीडिया से फंडिंग और आईपी अधिकारों के विवरण की बढ़ती मांगों के बाद, कोवैक्सीन के आईपी पर पहला सार्वजनिक प्रकटीकरण 3 मई को द हिंदू को किया गया था। द हिंदू में छपी रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्पाद का आईपी “साझा” है।

आईसीएमआर के डायरेक्टर जनरल बलराम भार्गव के अनुसार, सार्वजनिक-निजी भागीदारी को आईसीएमआर और बीबीआईएल के बीच एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) के तहत औपचारिक रूप दिया गया था और आईपी को “साझा” किया गया था। अखबार को एक ईमेल के जवाब में, भार्गव ने खुलासा किया कि आईसीएमआर को बीबीआईएल से शुद्ध बिक्री पर रॉयल्टी भुगतान प्राप्त होगा। यह पूरी तरह से स्पष्ट करने के लिए कि यह एक संयुक्त उपक्रम था, उन्होंने बताया कि टीका बॉक्स पर आईसीएमआर और इसके नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) का नाम छपा होगा। एनआईवी दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के लिए आईसीएमआर का एक प्रमुख संस्थान और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा नामित प्रयोगशाला है।

हालांकि, कुछ ही दिनों के भीतर ही द हिंदू के एक सह प्रकाशन बिजनेस लाइन में छपी रिपोर्ट का संस्करण थोड़ा अलग था। घटनाक्रम की जानकारी रखने वाले एक अनाम शीर्ष अधिकारी ने समाचार पत्र के हवाले से कहा कि बीबीआईएल के साथ अनुबंध ओपन एंडेड था और आईसीएमआर अन्य कंपनियों के साथ प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए स्वतंत्र था। आईसीएमआर बीबीआईएल से 5 प्रतिशत रॉयल्टी का हकदार था।

ध्यान दें कि यहां प्रयुक्त शब्द “अनुबंध” है। तो क्या यह कोविशील्ड टीका बनाने के लिए एस्ट्राजेनेका के साथ सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) जैसा अनुबंध निर्माण समझौता था? महामारी की दूसरी लहर के घातक प्रसार के मद्देनजर, सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के तीन टीका संस्थानों को कोवैक्सीन बनाने के लिए अनुबंधित किया है। लेकिन अगर उसे अपनी मर्जी से लाइसेंस देने का अधिकार है, तो बड़ा सवाल यह है कि देश की सारी कंपनियों में से सिर्फ हाफकाइन को ही क्यों चुना जाए? यह शुरुआत में अधिकृत एकमात्र कंपनी थी।

कोवैक्सीन की कहानी में नवीनतम मोड़ 27 मई को आया, जब नीति आयोग ने भारत की टीका प्रक्रिया पर “मिथकों” के खिलाफ एक लेख प्रकाशित किया। कोविड-19 के लिए टीका प्रशासन पर राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह के सदस्य, स्वास्थ्य और अध्यक्ष विनोद पॉल द्वारा जारी यह प्रेस नोट विनाशकारी दूसरी लहर का पूर्वानुमान लगाने और उसे रोकने में विफल रहने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ की गई आलोचनाओं का एक तीखा जवाब है। कोवैक्सीन की चर्चा अलग से की गई है, जहां पॉल स्पष्ट रूप से कहते हैं कि “केवल एक भारतीय कंपनी (भारत बायोटेक) है जिसके पास आईपी है।” हालांकि, सरकार यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है कि तीन अन्य कंपनियां दिसंबर तक कोवैक्सीन का उत्पादन शुरू कर दें।

ऐसे में सवाल उठता है कि सिर्फ तीन ही कंपनियां क्यों, जबकि भारत में टीकों की कमी है और हताश जनता को टीकाकरण केंद्रों से वापस लौटना पड़ रहा है। यहां यह याद रखना चाहिए कि कोवैक्सीन कुल आपूर्ति का सिर्फ 10 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि बाकी एसआईआई के कोविशील्ड से आता है।

कोवैक्सीन ने टीका राष्ट्रवादियों, मीडिया और सत्तारूढ़ दल के सदस्यों को जश्न मनाने का मौका तो दिया लेकिन इस टीके के विकास से संबंधित महत्वपूर्ण विवरणों की भारी कमी है। पहली घोषणा मई 2020 में आईसीएमआर द्वारा जारी एक पैरे की प्रेस विज्ञप्ति है कि इसने एनआईवी, पुणे में पृथक किए गए वायरस स्ट्रेन का उपयोग करके कोविड-19 के लिए पूरी तरह से स्वदेशी टीका विकसित करने के लिए बीबीएल के साथ भागीदारी की थी। स्ट्रेन को सफलतापूर्वक बीबीएल में स्थानांतरित कर दिया गया था।

कई अन्य सार्वजनिक अनुसंधान संस्थान भी हैं जिन्होंने कोवैक्सीन के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसा ही एक संस्थान है, भारतीय रासायनिक प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईसीटी) जो वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद की एक घटक प्रयोगशाला है। एगोनिस्ट अणु के लिए सिंथेटिक मार्ग के लिए आईआईसीटी द्वारा विकसित तकनीक के कारण ही बीबीआईएल सहायक के उत्पादन को बढ़ाने में सक्षम हुआ था। “सस्ती कीमत पर और उच्चतम शुद्धता के साथ” स्वदेशी रसायनों का उपयोग करने वाली तकनीक एक महत्वपूर्ण योगदान था और बीबीआईएल स्वीकार करता है कि कोवैक्सीन का उत्पादन इसके बिना संभव नहीं होता। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि यह तकनीक एक प्राइवेट कंपनी को कैसे दी गई। क्या यह हस्तांतरण नि:शुल्क था या फिर इसके लिए लाइसेंस शुल्क लिया गया था?

महामारी को रोकने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की प्रयोगशालाएं सबसे आगे रही हैं। मई, 2020 में हैदराबाद में एक अन्य प्रमुख शोध संस्थान, सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी ) ने घोषणा की कि वह कोविड-19 के लिए जिम्मेदार वायरस के स्थिर कल्चर बनाने में सफल हो गया है। एक प्रेस रिलीज के अनुसार प्रयोगशाला में वायरस का कल्चर निर्माण करने की क्षमता एक मील का पत्थर थी जो सीसीएमबी को टीका विकास की दिशा में काम करने और कोविड-19 से लड़ने के लिए संभावित दवाओं का परीक्षण करने में सक्षम बनाएगी।

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्यों बीबीआईएल को कोवैक्सीन आईपी और टीका के निर्माण के लिए शुरू में एक विशेष अनुबंध दिया गया था। देश में उपजे स्वास्थ्य संकट के मद्देनजर यह फैसला क्या सही है? सुप्रीम कोर्ट को दिए एक हलफनामे में आईसीएमआर ने कोवैक्सीन को विकसित करने के लिए उठाए गए शोध कदमों और परियोजना पर खर्च किए गए धन को रेखांकित किया। लेकिन बीबीआईएल के साथ हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन की शर्तों का पूरा खुलासा सार्वजनिक जानकारी नहीं है।

सीरोलॉजिस्ट (सीरमविज्ञानी) महामारी की तीसरी लहर की निश्चितता की चेतावनी दे रहे हैं और सरकार को इस बात पर स्पष्ट होना चाहिए कि खतरे से निपटने के लिए टीके के उत्पादन को कैसे बढ़ाया जाए। क्या हम विश्व व्यापार संगठन में सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट में पेटेंट अधिकारों को माफ करने और कोवैक्सिन के लिए प्रौद्योगिकी को स्वतंत्र रूप से उपलब्ध कराने की आवश्यकता पर कायम रहेंगे? या यह आत्मनिर्भर भारत के दायरे से बाहर है?

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