सभी फोटो: विकास चौधरी / सीएसई
स्वास्थ्य

आवरण कथा: सिलिकोसिस, एक अदृश्य अकाल मृत्यु

नीतिगत हस्तक्षेप के अभाव में भारत के करोड़ों मजदूर जो धूलभरी खदानों या फैक्ट्रियों में काम करते हैं, जानलेवा बीमारी सिलिकोसिस की जद में हैं। कानूनी पेचीदगियों, खान-फैक्ट्री मालिकों की उपेक्षा, प्रशासनिक उदासीनता और मजदूरों में जागरुकता के अभाव ने इस बीमारी से बचाव की राह बहुत मुश्किल बना दी है। दशकों से भारत का सबसे कमजोर तबका यानी मजदूर वर्ग सिलिकोसिस से तिल-तिल मर रहा है। देश की आर्थिक प्रगति में सबसे अधिक योगदान देने वाले मजदूरों को इस अकाल मृत्यु से बचाने के लिए इस बीमारी की समय पर पहचान, उचित इलाज और पीड़ितों के पुनर्वास के लिए एक राष्ट्रीय नीति की तत्काल आवश्यकता है। मध्य प्रदेश के पन्ना, उत्तर प्रदेश के महोबा और दिल्ली से भागीरथ की रिपोर्ट

Bhagirath

पैंतालीस साल के दुबले-पतले लच्छू लाल गौंड के पिछले आठ साल अस्पतालों और डॉक्टरों के पास चक्कर काटते हुए गुजरे हैं। उनकी तबीयत अचानक खराब हो जाती है और उन्हें कभी भी अस्पताल में भर्ती होना पड़ जाता है। पिछले चार महीनों में वह तीन बार पन्ना के सरकारी अस्पताल में भर्ती हो चुके हैं। वह अक्सर खाते या खांसते वक्त खून की उल्टियां करने लगते हैं। वह जानते हैं कि उनकी जिंदगी ज्यादा दिनों की नहीं है। इन आठ सालों में वह 5-6 लाख रुपए अपने इलाज पर खर्च कर चुके हैं। इलाज के लिए उन्होंने करीब ढाई लाख रुपए कर्ज लिया जो अब भी पूरा नहीं चुका है। अब उनके पास अस्पताल जाने के लिए भी पैसे नहीं हैं। अपना और अपनी 18 साल की बेटी के भरण पोषण के लिए वह एक एकड़ जमीन बेचना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने पन्ना के कलेक्टर को पत्र लिखकर गुजारिश की है। लच्छू मध्य प्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व के बफर जोन में आने वाले बड़ौर गांव के रहने वाले हैं। इस क्षेत्र में आदिवासियों को जमीन बेचने की मनाही होने के कारण उन्होंने कलेक्टर से विशेष आग्रह किया है।

लच्छू ने 17 साल तक बलुआ पत्थर की निजी खदान में काम किया है। वह खदान से पत्थर निकालने के लिए उसमें छेद करते थे। इस प्रक्रिया में उड़ने वाली धूल उनकी सांसों के जरिए सीधे फेफड़ों तक लगातार पहुंचती रही, जिससे उनके फेफड़े पत्थर जैसे सख्त हो गए। 2016 में सांस लेने और चलने में कठिनाई, खांसी, थकान जैसी दिक्कतें होने पर सबसे पहले पड़ोसी जिले छतरपुर के नौगांव स्थित टीबी अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टरों ने उनका टीबी (तपेदिक अथवा क्षयरोग) का इलाज शुरू कर दिया। इस अस्पताल की दवाएं वह एक साल तक खाते रहे। दवाओं से उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ बल्कि हालत और बिगड़ गई। वह 2016 से 2022 तक कभी छतरपुर, कभी रीवा, कभी झांसी तो कभी पन्ना के अस्पतालों द्वारा दी गई टीबी की दवाएं खाते रहे। राहत न मिलने पर 2022 में उन्होंने करीब 200 किलोमीटर दूर झांसी के निजी अस्पताल में जांच कराई तो पता चला कि उन्हें टीबी नहीं सिलिकोसिस है। अगस्त 2024 में जबलपुर से हुई एक अन्य जांच में सिलिको-ट्यूबरक्लोसिस यानी सिलिकोसिस और टीबी की पहचान हुई।

सिलिकोसिस एक लाइलाज व्यावसायिक (ऑक्युपेशनल) रोग है जो सिलिका के महीन कणों के फेफड़ों में जमा होने से पनपता है। यह मुख्य रूप से खनन, निर्माण, अगेट ग्राइंडिंग, पत्थर की नक्काशी, कांच की चूड़ी इकाइयों, रैमिंग मास, स्लेट पेंसिल इकाइयों, पत्थर की खदानों, चीनी मिट्टी और मिट्टी के बर्तन बनाने वाली इकाइयां में काम करने वाले मजदूरों को होता है। इन उद्योगों से अनियंत्रित सिलिका यानी धूल उत्सर्जित होती है और संपर्क में आने वाले मजदूरों को चपेट में ले लेती है।

भोपाल स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के राष्ट्रीय पर्यावरणीय स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान (एनआईआरईएच) के निदेशक और सिलिकोसिस पर गहन शोध कर चुके राजनारायण आर तिवारी के अनुसार, “वर्तमान में सिलिकोसिस का कोई इलाज नहीं है और इसलिए एक तरह से सिलिकोसिस एक घातक बीमारी है (देखें, जोखिम का स्रोत खत्म होने के बाद भी जारी रहने वाली बीमारी है सिलिकोसिस,।”

गुजरात के अहमदाबाद स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद-राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान (आईसीएमआर-एनआईओएच) में वैज्ञानिक और सिलिकोसिस विशेषज्ञ डॉ़ मिहिर रूपानी के अनुसार, टीबी और सिलिकोसिस के लक्षण जैसे खांसी, वजन घटना और बुखार, काफी हद तक समान होते हैं, जिससे इन दोनों रोगों में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। भारत में डॉक्टरों को पहले टीबी की जांच के लिए प्रशिक्षित किया गया है क्योंकि यह बहुत आम है और हमारे राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों में भी टीबी पर विशेष ध्यान दिया गया है।

रूपानी के अनुसार, सिलिकोसिस का पता न चलने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि कई बार डॉक्टर मरीज की नौकरी या धूल के संपर्क में आने की जानकारी नहीं पूछते हैं। अगर डॉक्टर जानते हों कि मरीज सिलिका धूल में काम कर रहा है, तो वे सिलिकोसिस और टीबी दोनों की जांच कर सकते हैं। इन दोनों बीमारियों में अंतर जानने का सबसे कारगर तरीका एक उच्च-रिजॉल्यूशन सीटी स्कैन है, लेकिन ये जांच महंगी होती है और विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है, जो प्राथमिक या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में उपलब्ध नहीं है। उनका कहना है कि कुछ स्वास्थ्य केंद्रों में तो बुनियादी एक्स-रे सुविधाएं भी नहीं होतीं और केवल साधारण बलगम परीक्षण ही कर सकते हैं, जिससे गलत निदान की संभावना बढ़ जाती है।

इसके अलावा, जब मरीजों में टीबी के लक्षण जैसे खांसी और वजन घटने जैसे लक्षण होते हैं, लेकिन टीबी का पक्का परिणाम नहीं होता, तो डॉक्टर इसे “क्लीनिकल टीबी” मानकर इलाज शुरू कर देते हैं, जिससे सिलिकोसिस का इलाज टीबी के रूप में हो सकता है। कभी-कभी मरीजों को सिलिकोसिस और टीबी दोनों एक साथ होते हैं, जिसे सिलिको-टीबी कहते हैं। इन गलतियों को कम करने के लिए डॉक्टरों को धूल के जोखिम के बारे में जागरूक करना, मरीज का विस्तृत व्यावसायिक इतिहास लेना और दोनों रोगों के लक्षण पहचानने का प्रशिक्षण देना आवश्यक है। इसके अलावा, जब तक लक्षण रहें तो ऐसे मरीजों को अच्छे स्वास्थ्य केंद्रों में रेफर करना भी जरूरी है।

चूड़ी इकाइयों में काम करने वाले मजदूर सिलिकोसिस के प्रति बेहद संवेदनशील हैं

व्यापक फैलाव, सीमित निदान

मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सिलिकोसिस पीड़ितों को मरने पर 3 लाख रुपए की एकमुश्त मदद करती है। लच्छू और उनके गांव के सिलिकोसिस पीड़ित मरने की बाट जोह रहे हैं ताकि उनके परिवार को जीते जी न सही, मरने पर ही कुछ राहत मिले। करीब 3,000 की आबादी वाले बड़ौर गांव में लच्छू सहित अब तक केवल चार लोग ही आधिकारिक रूप से सिलिकोसिस से प्रमाणित हुए हैं। 55 साल के प्यारेलाल साहू इनमें से एक हैं। डाउन टू अर्थ से बात करने के दौरान वह अक्सर खांसते रहे। 2011 में पन्ना जिले में सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन पृथ्वी ट्रस्ट की ओर से लगाए गए पहले स्वास्थ्य शिविर में प्यारेलाल में सिलिकोसिस की पुष्टि हुई थी। तीन दिन तक चले इस कैंप में कुल 43 लोगों की जांच की गई थी जिसमें से 39 लोग सिलिकोसिस से जूझते पाए गए। इस कैंप में पहली बार यहां के मजदूरों ने इस बीमारी का नाम सुना।

बड़ौर गांव में भले ही इस समय सिलिकोसिस से प्रमाणित केवल चार लोग हैं, जबकि चार की मृत्यु हो चुकी है। लेकिन हूबहू ऐसे लक्षणों वाले करीब 15 अन्य रोगी हैं जिन पर लच्छू और प्यारेलाल की तरह टीबी की दवाएं बेअसर हैं। ये टीबी की दवाओं का कई कोर्स पूरे कर चुके हैं। गौंड आदिवासी बहुल इस गांव के सभी सिलिकोसिस से जान गंवाने वाले, प्रमाणित और संभावित मरीजों में एक बात सामान्य यह है कि सभी ने करीब तीन दशक पहले तक अपनी जवानी खदानों में काम करते हुए खपाई थी, जो सिलिका या कहें कि सिलिकोसिस का मुख्य स्रोत थी।

रूपानी साफ तौर पर मानते हैं कि इस बीमारी का व्यापक प्रसार है और कुछ क्षेत्रों में इसके विशेष रूप से उच्च दरें दर्ज की गई हैं। उदाहरण के लिए पत्थर की खदानों में काम करने वाले श्रमिकों में सिलिकोसिस का प्रसार 38 से 79 प्रतिशत तक है, जबकि अगेट उद्योग में काम करने वाले श्रमिकों में इसका प्रसार 18 से 69 प्रतिशत के बीच पाया गया है। इसी प्रकार, स्लेट पेंसिल निर्माण कार्यों में लगे श्रमिकों में सिलिकोसिस की आशंका 25 से 55 प्रतिशत के बीच है (देखें, देशभर के श्रमिकों को प्रभावित कर सकता है सिलिकोसिस,)।

झारखंड और पश्चिम बंगाल में रैमिंग मास फैक्ट्री मजदूरों के लिए काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन ऑक्युपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ असोसिएशन ऑफ झारखंड (ओएसएचएजे) के संस्थापक महासचिव समित कुमार कार डाउन टू अर्थ को समझाते हैं कि सिलिकोसिस कब, किसको और कितना होगा यह निर्भर रहता है कि मजदूर जिस पत्थर से जुड़ा काम करता है, वहां सिलिकॉन डाईऑक्साइड यानी धूल की सघनता कितनी है, वह कितने एक्सपोजर में रहता है और उसकी इम्यूनिटी कितनी है। उनके अनुसार, राजस्थान के बलुआ पत्थर में 40 प्रतिशत, मार्बल खनन में 3 से 20 प्रतिशत, ग्रेनाइट या बेसाल्ट में 60 से 70 प्रतिशत और रमिंग मास फैक्ट्री में 98.9 से 99.5 प्रतिशत सिलिकोन डाईऑक्साइड का स्तर रहता है। उनके अनुसार, “रैमिंग मास की फैक्ट्री में जो मजदूर रहता है, उसे 6 से 12 महीने काम करने पर भी सिलिकोसिस हो सकता है (देखें, रैमिंग मास उद्योग मजदूरों के लिए बन रहा है जानलेवा,)।”

छतरपुर के लवकुशनगर में स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के इंचार्ज डॉक्टर एसपी शाक्यवार मानते हैं कि 15 साल तक अगर कोई नियमित रूप से धूल भरी खदानों में काम करता है तो उसमें सिलिकोसिस की संभावना 50 प्रतिशत होती है। पन्ना के अधिकांश सिलिकोसिस पीड़ित पड़ोसी जिले छतरपुर के नौगांव स्थित टीबी अस्पताल में जाते हैं, जहां सिलिकोसिस जांच की व्यवस्था ही नहीं है। डाउन टू अर्थ ने जब डॉक्टरों को बताया कि यहां इलाज कराने वाले बहुत से कथित टीबी मरीजों में सिलिकोसिस का पुष्टि हुई है तो डॉक्टरों से इससे अनभिज्ञता जाहिर की। हालांकि एक डॉक्टर ने बताया कि सिलिकोसिस के मामलों में मरीजों की वर्क हिस्ट्री काफी मायने रखती है। अगर उसने लंबे समय तक धूल भरी खदानों, फैक्ट्रियों या प्लांट में काम किया है तो उसमें सिलिकोसिस का खतरा 60 प्रतिशत से अधिक होता है। यह बात पन्ना की खदानों में काम कर चुके मजदूरों पर पूरी तरह लागू होती है, चाहे वह बड़ौर गांव हो या उससे 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मनौर गांव।

विधवाओं का गांव

करीब 1,120 लोगों की आबादी में 611 पुरुषों और 509 महिलाओं वाला मनौर गांव पन्ना जिले के उन गांवों में शामिल है जहां के पुरुषों ने रोजी-रोटी के लिए यहां चलने वाली पत्थर की खदानों (सैंडस्टोन माइनिंग) में खनन का काम करके अपनी अधिकांश जिंदगी गुजार दी। 1998 में पन्ना टाइगर रिजर्व के कारण खदानें बंद कर दी गईं। वर्तमान में केवल गिनी चुनी खदानें ही चालू हैं। इस गांव में 50 वर्ष से अधिक उम्र के अधिकांश पुरुष मर चुके हैं, इसलिए इसे विधवाओं का गांव बोला जाता है। यहां की बसंती गौंड ने चार महीने पहले अपने 50 वर्षीय पति मुन्नीलाल को खोया है। मुन्नीलाल पिछले कई सालों से बीमार चल रहे थे। बसंती के मुताबिक, उन्हें टीबी था। लेकिन जानकार उन्हें सिलिकोसिस से ग्रस्त होने की आशंका से भी इनकार नहीं करते। बसंती गौंड की तरह ही दुल्लीबाई और रक्को बाई ने भी अपने पति खोए हैं और वे गांव की विधवाओं की सूची में शामिल हैं।

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, मनौर में करीब 58 महिलाएं विधवा पेंशन ले रही हैं। सबके पति खदान में काम करने के दौरान सांस की बीमारी की चपेट में आए और बहुत कम उम्र में गुजर गए। गांव के 54 साल के निरभान सिंह गौंड, उन चुनिंदा खुशकिस्मत लोगों में शामिल हैं जो बीमारी से बच गए हैं। वह कहते हैं कि गांव की आधी से अधिक महिलाएं विधवा हैं। गांव में उम्रवार पुरुषों की संख्या पूछने पर वह थोड़ा सोचकर जवाब देते हैं कि 50 साल से अधिक उम्र के पुरुषों की संख्या 5-6 ही होगी। वहीं 60 से अधिक पुरुषों की संख्या तो केवल 2-3 ही होगी जबकि 70 साल की उम्र का कोई पुरुष शायद ही जीवित हो।

गांव की 25 वर्षीय रोशनी गौंड कहती हैं कि 1990 से पहले पैदा हुए बहुत कम ही पुरुष जिंदा बचे हैं। उनका यहां तक कहना है कि गांव में शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां महिला विधवा न हो। रोशनी के मुताबिक, गांव के अधिकांश पुरुष 40 साल की उम्र भी पूरी नहीं पाए और उनकी अकाल मृत्यु हो गई। रोशनी का मानना है कि गांव की ज्यादातर महिलाएं शादी के बाद 5 से 10 साल के अंदर विधवा हो चुकी हैं।

पन्ना के आदिवासी इलाकों में ग्रामीणों के स्वास्थ्य के लिए काम कर रहे पृथ्वी ट्रस्ट की निदेशक समीना यूसुफ साफ मानती हैं कि यहां बड़े पैमाने पर सिलिकोसिस बीमारी का टीबी समझकर इलाज किया जा रहा है। समीना ने खुद जून 2023 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सिलिकोसिस से पीड़ित 18 ऐसे लोगों की सूची उपलब्ध कराई थी जिन्हें खुद सरकार द्वारा बीमारी से प्रमाणित किया गया था।

आयोग को सौंपी गई सूची में मनौर का रहने वाला केवल एक शख्स परमलाल आदिवासी सिलिकोसिस पीड़ित था। समीना के मुताबिक, 2011 और 2012 में पृथ्वी ट्रस्ट की ओर से लगाए गए निजी स्वास्थ्य शिविरों में 162 मजदूर सिलिकोसिस से प्रमाणित हुए थे। लेकिन बाद में हुई सरकारी जांच में केवल 47 लोगों में सिलिकोसिस की पुष्टि की गई। समीना के मुताबिक, सिलिकोसिस पीड़ित अधिकांश वे लोग हैं जो बंद हो चुकी खदानों में लंबे समय तक काम कर चुके हैं। वह मानती हैं कि अगर लोगों की नियमित और उचित जांच हो तो कथित टीबी के मरीजों में बड़े पैमाने पर सिलिकोसिस की पुष्टि हो सकती है।

पन्ना के एक अन्य गांव गांधीग्राम में रहने वाले 21 साल के अरविंद के मुताबिक, पूरा गांव सिलिकोसिस की चपेट में है। लेकिन ठीक से जांच न हो पाने के कारण लोगों में इसकी पुष्टि नहीं हो पाती और टीबी समझकर उनका इलाज किया जाता है। पत्थर की खदानों में लंबे समय तक काम कर चुके अरविंद के परिवार के पांच सदस्य जान गंवा चुके हैं। 2014 में सबसे पहले उनके 65 साल के दादा वीरेन की मृत्यु हुई। फिर ताऊ गजराज ने अगले ही साल 42 साल की उम्र में दम तोड़ दिया। 2017 में उनकी बड़ी ताई भूरी बाई 38 वर्ष की उम्र में दुनिया छोड़ गईं। भूरी बाई के मृत्यु के दो साल बाद उनके पति और अरविंद के बड़े ताऊ हेतराम भी 47 साल की उम्र में चल बसे। अरविंद को सबसे बड़ा झटका 2022 में तब लगा, जब 45 साल की उम्र में उनके पिता इमरत लाल ने बीमारी से जूझते हुए अंतिम सांसें लीं। दादा को छोड़कर अरविंद के परिवार के सभी सदस्यों को डॉक्टरों ने टीबी की बीमारी बताई थी, लेकिन अरविंद मानते हैं कि उन्हें टीबी नहीं बल्कि सिलिकोसिस था। रुंआसे अरविंद कहते हैं कि उनके भरे-पूरे परिवार को सिलिकोसिस ने छोटा कर दिया है। वर्तमान में अरविंद के 50 साल के चाचा राजकुमार सिलिकोसिस से पीड़ित हैं। राजकुमार 15 साल की उम्र से पत्थर की खदानों में काम कर हैं। 2018 में उन्हें सिलिकोसिस बीमारी का पता चला। लेकिन जब वह जिला अस्पताल गए तो उनकी टीबी की दवा चला दी गई। करीब 14 महीने तक वह टीबी की दवा खाते रहे, जिससे उन्हें खास आराम नहीं मिला। परिवार पालने के लिए राजकुमार अब भी पत्थर की खदान में काम करने को मजबूर हैं, यह जानते हुए भी कि इन्हीं खदानों ने उन्हें मौत के मुंह की ओर धकेला है। वह बीमारी के डर से अपने बच्चों को खदान में काम नहीं कराते। उनके दो बेटे और पत्नी गुड़गांव में मजदूरी करते हैं।

पन्ना से करीब 130 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के महोबा जिले के डहर्रा गांव की कहानी भी पन्ना से अधिक जुदा नहीं है। बस फर्क इतना है कि पन्ना में सिलिकोसिस बलुआ पत्थर की खदानों की देन हैं और वहां आधिकारिक रूप से कुछ मरीज इससे प्रमाणित हैं। जबकि डहर्रा में बलुआ पत्थर की जगह बीमारी की जड़ में क्रशर्स प्लांट हैं और यहां आधिकारिक रूप से कोई भी व्यक्ति सिलिकोसिस से प्रमाणित नहीं है।

करीब 2,300 की आबादी वाले डहर्रा में रहने वाले 50 वर्षीय जागेश्वर की मानें तो गांव के चारों ओर करीब 50-60 क्रशर चलने से दिन-रात धूल उड़ती रहती है। डहर्रा के ग्रामीणों के मुताबिक, पिछले 5-6 वर्षों के भीतर कम से कम 20 लोग सांस की रहस्यमय बीमारी से मर चुके हैं और करीब 10 अभी बीमारी से जूझ रहे हैं। ये सभी वे लोग हैं जो गांव के चारों ओर चल रहे क्रशर्स में सालों काम कर चुके हैं। अगस्त 2022 में अपने पति को खो चुकीं पुनिया डाउन टू अर्थ से कहती हैं कि उनके 55 साल के पति लाल बिलक्कू 30-40 साल अलग-अलग क्रशर्स में मजदूरी करते रहे। 2019 में उनकी तबीयत बिगड़ने पर उन्हें डॉक्टरों को दिखाना शुरू किया। महोबा, बांदा, छतरपुर, झांसी, ग्वालियर और दिल्ली के डॉक्टरों तक को उन्होंने दिखाया, लेकिन उन्हें कहीं से आराम नहीं मिला। सभी जगह उन्हें टीबी बताया गया। मरने से पहले तक वह टीबी की दवाएं खाते रहे।

डहर्रा के आसपास कबरई, मकरबई, पहरा, प्रकाश बम्हौरी, घटहरी जैसे बुंदेलखंड क्षेत्र के कई इलाकों में बहुतायत में स्टोन क्रशर्स चल रहे हैं जो दिन रात धूल उगलते रहते हैं। एक डॉक्टर नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहते हैं कि कबरई और उसके आसपास के इलाकों में अगर क्रशर्स में काम करने वालों की ठीक से जांच हो तो बड़ी संख्या में मजदूर सिलिकोसिस पीड़ित पाए जाएंगे। बांदा के वरिष्ठ पत्रकार अशोक निगम की मानें तो चित्रकूट के भरतकूप और कबरई क्षेत्र में हजारों की संख्या में सिलिकोसिस पीड़ित हो सकते हैं, जबकि अनगिनत लोग मर चुके होंगे। निगम मानते हैं कि अब भी लोग दम तोड़ रहे हैं, किन्तु किसी को खबर नहीं लग पाती।

राजस्थान में सिलिकोसिस पीड़ितों की पहचान और मुआवजे के लिए एक बेहद प्रभावी नीति है। राज्य में करीब 40 हजार सिलिकोसिस पीड़ितों की पहचान हो चुकी है

दिल्ली का लालकुआं

दक्षिण दिल्ली के महरौली-बदरपुर रोड पर हरियाणा के फरीदाबाद जिले से लगा लालकुआं भी 1991 तक बुंदेलखंड की तरह स्टोन क्रशर्स का केंद्र था। इसके काम में अपनी कई पीढ़ियों को गंवाने के बाद यहां के मजदूरों को पता चला कि उनकी मौत की असल वजह सिलिकोसिस थी। चंदन सिंह भी इनमें से एक थे। वह 1980 के दशक में 18 साल की उम्र में अपने माता-पिता का हाथ बंटाने राजस्थान के भरतपुर से दिल्ली के लालकुआं आए थे। काम की तलाश में उनके माता-पिता 1971 में ही लालकुआं आकर यहां की झुग्गी बस्ती में रहने लगे थे। उनके माता-पिता के जैसे बहुत से लोग अलग-अलग राज्यों से आकर इस झुग्गी बस्ती में रह रहे थे क्योंकि इसके आसपास चल रहे दर्जनों क्रशर्स रोजगार का बड़ा साधन थे। उस वक्त यहां रहने वाले लोगों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके रोजगार का साधन बनने वाले ये क्रशर्स उनके लिए कब्रगाह बन जाएंगे।

क्रशर्स में करीब 15 साल काम करने के बाद 1986 में चंदन के माता-पिता को सांस लेने में कठिनाई, खांसी, थकान जैसी समस्याएं होने लगीं। डॉक्टरों ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई और इसकी दवा चलने लगीं। इन दवाओं से उन्हें आराम नहीं मिला। 1994 में एक निजी डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि उनके फेफड़ों पर बड़ी मात्रा में पत्थर के कण (सिलिका) जमा है। उन्हें सिलिकोसिस बीमारी थी। उस वक्त लालकुआं में कोई इस बीमारी के बारे में नहीं जानता था। सिलिकोसिस से जूझते हुए साल 2000 में चंदन के पिता चल बसे और 2005 में उनकी मां भी इस बीमारी की भेंट चढ़ गईं।

मां की मृत्यु के बाद चंदन में भी इस बीमारी के लक्षण आ गए। वह पहली बार 2005 और 2009 में बीमार पड़े। चंदन 1984 से 2010 तक लालकुआं और फरीदाबाद के पाली स्थित क्रशर्स में मुंशी के रूप में काम कर चुके हैं। 2005 में पहली बार तबीयत बिगड़ने पर डॉक्टरों ने उन्हें भी टीबी बताया। उन्होंने करीब 10 महीने तक इसकी दवा खाई। लेकिन 2009 में बीमार पड़ने पर उन्हें पता चला कि उनके फेफड़ों भी उनके पिता की तरह पत्थर के कण जमा हैं। हालांकि तब डॉक्टरों ने उनमें सिलिकोसिस की पुष्टि नहीं की। 2018-19 में महरौली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टीबी एंड रिस्पीरेटरी डिजीजिस के डॉक्टर ने उनकी बीमारी को सिलिकोसिस के रूप में प्रमाणित किया।

लालकुआं में सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए काम करने वाले एक गैर लाभकारी संगठन द पीपल्स राइट एंड सोशल रिसर्च सेंटर (प्रसार) की मदद से उन्होंने मुआवजे के लिए क्रशर्स कंपनी पर केस किया है। सिलिकोसिस की पुष्टि होने के उपरांत सितंबर 2023 में उन्हें दिल्ली सरकार की तरफ से 2.5 लाख रुपए की अंतरिम राहत मिली।

लालकुआं में रहने वाली 62 साल की सिलिकोसिस पीड़ित गीता कहती हैं कि 1991 में बंद होने से पहले यहां करीब 50 क्रशर्स चल रहे थे। गीता क्रशर्स में काम के चलते अपने सास-ससुर, जेठ-जेठानी, नंद-नंदोई और पति को खो चुकी हैं। उनका कहना है कि क्रशर्स की धूल कपड़े, बर्तनों और यहां तक खाने तक में जम जाती थी। बीमारी से जूझ रहे स्थानीय लोगों का कहना है कि जरूरी नहीं है कि क्रशर में काम करने वालों को ही सिलिकोसिस हो। दिनभर उड़ती धूल ने ऐसे भी बहुत से लोगों को बीमार कर दिया, जो किसी क्रशर प्लांट में काम नहीं करते थे।

दिल्ली के इस इलाके में 1998 में प्रसार की सक्रियता के बाद यहां सिलिकोसिस के मरीज प्रमाणित होने शुरू हुए। प्रसार के अध्यक्ष एसए आजाद डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि लालकुआं में साल 2000 से पहले कोई आधिकारिक रूप से सिलिकोसिस से प्रमाणित नहीं हुआ था। लेकिन मौजूदा समय तक लालकुआं में करीब 200 सिलिकोसिस पीड़ित सामने आ चुके हैं। इनमें से करीब 75 प्रतिशत पीड़ितों को सरकार की तरफ से आर्थिक राहत मिली है, जब शेष 25 प्रतिशत पीड़ितों के राहत आवेदन लंबित हैं।

सीमित आधिकारिक आंकड़े

अध्ययन बताते हैं कि भारत में सिलिकोसिस के मामलों की निगरानी और रिपोर्टिंग का बड़ा अभाव है। इस बीमारी के संबंध में लोकसभा में पूछे गए प्रश्नों के जवाब में पीड़ितों का जो आंकड़ा उभरकर सामने आता है, उस पर यकीन करना मुश्किल है। मसलन, लोकसभा में दिसंबर 2021 में सांसद कृष्णपाल सिंह यादव और प्रताप सिंह सारंगी द्वारा पूछे प्रश्न के जवाब में स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने बताया कि पिछले 10 वर्षों में देशभर के राज्यों में कुल 340 सिलिकोसिस पीड़ित की पहचान हुई है जबकि 197 मरीजों की मृत्यु हुई है। ये आंकड़े भी 2018 तक के हैं। संसद में पूछे गए कुछ अन्य सवालों में पीड़ितों और मृतकों की संख्या बेहद सीमित दर्शायी गई है। इन आंकड़ों को झुठलाने के लिए अकेला राजस्थान ही पर्याप्त है जहां अब तक सिलिकोसिस के 40 हजार से अधिक मामले सामने आ चुके हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर सही आंकड़ों के अभाव में इस जानलेवा बीमारी की तरफ नीति निर्माताओं का ध्यान नहीं जा पाता जिसकी कीमत मजदूरों को जान देकर चुकानी पड़ रही है।

आजाद का कहना है कि सरकारी उपेक्षा से सिलिकोसिस से होने वाली मौतें सामूहिक हत्या जैसी हैं, जिसमें सीधे तौर पर सरकार शामिल है। वह यह भी बताते हैं कि उन्होंने लालकुआं में अब तक 5,000 से अधिक लोगों की मौत देखी है। इससे पहले अनगिनत लोग बिना उचित जांच के टीबी की दवाई खाते-खाते मर गए। आजाद कहते हैं कि साधारण एक्सरे और मजदूर की वर्क हिस्ट्री से सिलिकोसिस आसानी से प्रमाणित हो सकता है लेकिन डॉक्टरों द्वारा ऐसा न करना उनकी योग्यता पर सवाल खड़े करता है।

आजाद ने सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी है। वह इस मामले को 2006 में उच्चतम न्यायालय में लेकर गए और दलील दी कि विभिन्न उद्योगों में काम करने वाले श्रमिकों में सिलिकोसिस का व्यापक और अनियंत्रित प्रसार भारत के संविधान के तहत श्रमिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उन्होंने यह भी दलील दी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वास्थ्य, सुरक्षा और सम्मान के साथ जीने के अधिकार की घोर उपेक्षा की जा रही है।

6 अगस्त 2024 को न्यायालय ने याचिका पर राज्यों के मुख्य सचिवों को इस मामले में बहुत से निर्देश देने के साथ ही खान सुरक्षा महानिदेशक (डीजीएमएस), डायरेक्टर जनरल फैक्ट्री एडवाइस सर्विस एंड लेबर इंस्टीट्यूट (डीजी-एफएएसएलआई) को सिलिकोसिस पीड़ितों का राज्यवार ब्यौरा देने का आदेश दिया। बाद में उच्चतम न्यायालय में यह मामला एनजीटी में ट्रांसफर कर दिया।

सिलिकोसिस से अपनों को खोने और खुद इस बीमारी से तिल-तिल मर रहे लालकुआं के लोगों की सिलिकोसिस पीड़ित संघ के बैनर तले कानूनी लड़ाई जारी है। एसए आजाद कहते हैं कि सिलिकोसिस एक नोटिफाइड बीमारी है और इस मामले में कानून साफ है कि जिसकी वजह से यह बीमारी हुई है, उस पर कार्रवाई हो सकती है और मुआवजे का भी प्रावधान है।

जागरुकता के अभाव में बिना मास्क काम करने वाले मजदूर जाने अनजाने सिलिकोसिस की जद में आ सकते हैं

क्यों है उपेक्षित

अहमदाबाद स्थित राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान (एनआईओएच) के पूर्व निदेशक कमलेश सरकार इस बीमारी के उपेक्षित करने का मूल कारण डाउन टू अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि स्वास्थ्य विभाग सोचता है यह श्रम विभाग या खान विभाग की समस्या है, जबकि श्रम व खान विभाग इसे स्वास्थ्य विभाग की समस्या मानता है। वह कहते हैं कि हमारा चिकित्सा पाठ्यक्रम इसकी जांच का तरीका और व्यावसायिक रोगों का प्रबंधन नहीं सिखाता। इस कारण हमारे देश के अधिकांश डॉक्टर और नर्स इस समस्या से अनजान हैं। वे मरीजों की ऑक्युपेशनल हिस्ट्री को संग्रहित नहीं करते जो इस बीमारी ही पहचान के लिए बहुत आवश्यक है।

सरकार आगे बताते हैं कि गलत उपचार की एक वजह यह है कि डॉक्टर सिलिकोसिस को ध्यान में रहते हुए प्रशिक्षित ही नहीं किए गए हैं, इसलिए वे अक्सर टीबी समझकर इसका इलाज करते हैं क्योंकि इसी से उनका परिचय होता है। कमलेश सरकार मानते हैं कि अगर सरकारी अधिकारी मजदूर हितैषी हों तो इसकी पहचान और हर्जाने की व्यवस्था संतोषजनक रहती है लेकिन अधिकांश राज्य विभिन्न कारणों से सिलिकोसिस की सच्चाई छिपाना चाहते हैं।

राष्ट्रीय खनिक स्वास्थ्य संस्थान (एनआईएमएच) के पूर्व निदेशक एवं वर्तमान में राजस्थान सरकार के निदेशालय विशेष योग्यजन में सिलिकोसिस विशेषज्ञ एवं सलाहकार पीके सिसोदिया के मुताबिक, “सिलिकोसिस के उपेक्षित रहने के कई कारण हैं। रोकथाम और नियंत्रण मुख्य रूप से नियोक्ता की जिम्मेदारी है। एन्फोर्समेंट एजेंसी की भूमिका सुपरवाइजरी होती है, चाहे वह खान सुरक्षा में हो या फैक्ट्री में। बड़ी खानों और फैक्टरियों में बेहतर सुरक्षा उपाय के कारण कुछ हद तक सिलिकोसिस पर नियंत्रण है। समस्या लघु और मध्यम इकाइयों में है। इनमें न तो संसाधन होते हैं और न इन्फ्रास्ट्रक्चर। इस वजह से इनमें व्यावसायिक रोगों पर नियंत्रण मुश्किल होता है।”

सिसोदिया के अनुसार, दूसरा मुद्दा जागरुकता का है। यह न तो नियोक्ताओं में है और न ही मजदूरों में है। तीसरी मुख्य बात यह है कि छोटी इकाइयों में इन्फोर्समेंट लागू नहीं होता। कानूनी फ्रेमवर्क भी पर्याप्त नहीं है। ऐसी अधिकांश इकाइयां कानूनी दायरे में नहीं आतीं। फैक्ट्री एक्ट या खान अधिनियम वहां लागू होता है, जहां एक साथ 20 से अधिक लोग काम करते हैं। अब इसे बढ़ाकर 50 कर दिया गया है। जिन इकाइयों में अधिक समस्या है, वहां 20 मजदूर काम ही नहीं करते।

अगर काम करते हैं भी हैं तो उन्हें दिखाया नहीं जाता। इस कारण एन्फोर्समेंट एजेंसी को कानूनी रूप से यहां जाना उचित नहीं लगता।

सिसोदिया अपने 40 साल के अनुभव के आधार पर बताते हैं, “यह किसी के हित में नहीं है कि ऑक्युपेशनल बीमारी का पता चले। बीमारी का पता चलने पर सरकार की जवाबदेही होगी। उस पर सवाल उठेगा कि सरकार क्या कर रही थी। ऐसे में सरकारी एजेंसियां उसे छुपाने की कोशिश करती हैं। वहीं नियोक्ता भी नहीं बताना चाहेगा कि मेरे यहां परेशानी है। मजदूर इसलिए बीमारी छिपाएगा क्योंकि अगर नियोक्ता को पता चल गया तो वह काम पर नहीं रखेगा। कुल मिलाकर यह किसी के भी हित में नहीं है कि बीमारी सामने आए। बीमारी के चार-पांच स्टेकहोल्डरों में किसी के भी हित में नहीं है कि बीमारी पर ध्यान दिया जाए।”

बकौल सिसोदिया, देशभर में ज्यादातर डॉक्टर ही इस बीमारी को जानना नहीं चाहते। उन्हें डर है कि कहीं उनकी जवाबदेही न बन जाए। वह बताते हैं कि राजस्थान में जब हमने इसकी जांच तेज की तो डॉक्टरों की तरफ से काफी विरोध हुआ। यह अब भी जारी है। यह सच है कि कुछ हद तक टीबी और सिलिकोसिस के लक्षण एक जैसे होने पर भी डॉक्टर भ्रमित होते हैं। हमारे देश में टीबी के व्यापक प्रसार को देखते हुए ज्यादातर डॉक्टर फेफड़ों की बीमारी को टीबी से जोड़ देते हैं। ऐसे में सिलिकोसिस का टीबी समझकर इलाज आम है। मरीज आराम न मिलने पर बस डॉक्टर बदलता रहता है। ऐसे मरीज टीबी के दवाओं के दुष्प्रभावों से परेशान रहते हैं। हो सकता है कि इसकी वजह से उनकी मृत्यु हो जाती हो। सिसोदिया कहते हैं, “90 प्रतिशत मजदूर ऐसे हैं जो छोटी-छोटी खानों या फैक्ट्री में काम करते हैं। ये मजदूर काम की जगह बदलते रहते हैं, ऐसे में किसी नियोक्ता को पूर्णत: जिम्मेदार ठहराना भी मुश्किल हो जाता है।”

सिलिकोसिस की रोकथाम बड़ा मुश्किल काम है क्योंकि यह ग्लैमरस जॉब नहीं है। सिसोदिया मानते हैं कि अगर रोकथाम के उपाय किए भी जाते हैं तो उसका असर दिखने में दस साल लग जाएंगे। इसलिए कोई इसकी फिक्र भी नहीं करता। रोकथाम के लिए मजदूरों की जागरुकता बहुत जरूरी है लेकिन आमतौर पर वह रोकथाम के उपायों पर ध्यान नहीं देता। जिन मजदूरों को मास्क या छिड़काव के लिए पानी मिलता है, वे आमतौर पर इनका इस्तेमाल नहीं करते।

राजस्थान में 2011 से काम कर रहे सिसोदिया मानते हैं कि यहां वर्करों और नियोक्ताओं में काफी हद तक जागरुकता आई है। लेकिन दूसरे राज्यों में इसका अभाव है। सिसोदिया बताते हैं कि सिलिकोसिस के मरीजों के सर्वेक्षण की जिम्मेदारी डायरेक्टोरेट जनरल फैक्टरी एडवाइस सर्विस एंड लेबर इंस्टीट्यूट्स (डीजीएफएएसएलआई) की है। लेकिन इसकी भूमिका एडवाइजरी होती है। जब सरकारी चाहती है, तभी वह सर्वे करती है। इस तरह उसकी बहुत सक्रिय भूमिका नहीं है।

रूपानी का आकलन है कि विकासशील देशों में श्रमिकों के स्वास्थ्य की सुरक्षा को हमेशा प्राथमिकता नहीं दी जाती, क्योंकि यहां ध्यान मुख्य रूप से देश के निर्माण और विकास के लिए श्रमशक्ति के उपयोग पर केंद्रित रहता है। कई श्रमिक जो सिलिका धूल के संपर्क में आते हैं, जानते हैं कि उन्हें सिलिकोसिस हो सकता है, लेकिन उनके पास इन नौकरियों के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। भारत में, अक्सर बच्चे अपने माता-पिता के व्यवसाय को अपना लेते हैं, इसलिए यदि एक पिता खदान या पत्थर की खदान में काम करता है, तो उसके बच्चे भी उसी काम में आने की संभावना रखते हैं। यही कारण है कि खनन, निर्माण और पत्थर काटने जैसे क्षेत्रों में काम करने वालों में सिलिकोसिस अभी भी आम है।

नीतिगत हस्तक्षेप जरूरी

स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को सार्वजनिक स्वास्थ्य हित में अन्य राष्ट्रीय नियंत्रण कार्यक्रमों के समान एक राष्ट्रीय सिलिकोसिस नियंत्रण कार्यक्रम शुरू करने के लिए शीघ्र नीतिगत निर्णय लेने की आवश्यकता है। भारत पहले से ही 2025 तक टीबी के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन जब तक सिलिकोसिस को नियंत्रित नहीं किया जाता है, तब तक टीबी का उन्मूलन संभव नहीं है क्योंकि भारत में सिलिकोसिस का बहुत बड़ा बोझ है और सिलिकोसिस से पीड़ित लोग सिलिकोसिस-टीबी के प्रति संवेदनशील हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि श्रमिक श्रम या खान या उद्योग मंत्रालय के अधीन हैं, जबकि स्वास्थ्य विभाग स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन है। नतीजतन, इन श्रमिकों के प्रति स्वास्थ्य विभाग की ओर से कोई प्रत्यक्ष प्रतिबद्धता नहीं है और संबंधित विभागों के बीच शायद ही कोई समन्वय है।

हेल्थ साइंस रिपोर्ट्स में प्रकाशित कमलेश सरकार व अन्य के अध्ययन “सेकंडरी प्रिवेंशन ऑफ सिलिकोसिस एंड सिलिको-ट्यूबरक्लोसिस बाय पीरियोडिक स्क्रीनिंग ऑफ सिलिका डस्ट एक्पोज्ड वर्कर्स यूजिंग सीरम क्लब सेल प्रोटीन 16 एज के प्रॉक्सी मार्कर” में तर्क देते हैं कि भारत में 50 करोड़ से अधिक श्रमिक हैं और उनमें से 90 प्रतिशत से अधिक अनौपचारिक अर्थव्यवस्था क्षेत्र में हैं। इसलिए, देश में सबसे प्रचलित व्यावसायिक रोगों में से एक सिलिकोसिस की रोकथाम और नियंत्रण के लिए सभी कमजोर श्रमिकों, विशेष रूप से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था क्षेत्रों के लोगों को सक्षम करने के लिए संबंधित विभागों के समन्वय में एक उपयुक्त कानून आवश्यक है। देश में विशेष रूप से अकुशल श्रमिकों के बीच बेरोजगारी की बड़ी समस्या को देखते हुए सिलिकोसिस की प्राथमिक रोकथाम अक्सर मुश्किल होती है। लेकिन वार्षिक जांच और कुछ उपयुक्त बायोमार्कर जैसे सीरम सीसी-16 का उपयोग करके प्रारंभिक पहचान और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के देशव्यापी नेटवर्क के माध्यम से सिलिकोसिस की द्वितीयक रोकथाम एक उपयुक्त विकल्प हो सकता है।

अध्ययन के अनुसार, श्रमिकों के थूक की समय-समय पर जांच करके सिलिको-ट्यूबरकुलोसिस का प्रारंभिक चरण में पता लगाया जा सकता है। पीके सिसोदिया कहते हैं कि करीब 25 प्रतिशत सिलिकोसिस के मरीजों को टीबी होता है। सरकार अब इस दिशा में काम रही है कि टीबी के मरीजों में सिलिकोसिस और सिलिकोसिस के मरीजों में टीबी की स्क्रीनिंग की जाए।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की टीबी इंडिया रिपोर्ट 2024 में भी कहा गया है कि टीबी रोकथाम उपचार को व्यापक रूप से संवेदनशील समूह को प्रदान करने के लिए नीति का विस्तार करके नीतिगत निर्णय लिया गया है। इनमें सिलिकोसिस के रोगी भी शामिल हैं। ऐसे कमजोर व्यक्तियों की टीबीआई के लिए जांच और उपचार किया जाना चाहिए क्योंकि उनमें सक्रिय टीबी रोग की प्रगति का जोखिम बढ़ जाता है।

राजनारायण आर तिवारी डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि मुक्त सिलिका के संपर्क में आने से तपेदिक संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। साथ ही, सिलिकोसिस से पीड़ित लोगों में ऑटोइम्यून प्रकृति के कारण तपेदिक छिपा हो सकता है। इसलिए, अगर हम तपेदिक को खत्म करना चाहते हैं तो सिलिकोसिस और सिलिको-ट्यूबरक्लोसिस से निपटना आवश्यक है। वह आगे बताते हैं, “किसी भी राज्य में जहां खनन, निर्माण और संबंधित कुटीर उद्योग के कारण सिलिका के मुक्त संपर्क की संभावना है, वहां सिलिकोसिस नीति होनी चाहिए। 1990 के दशक के मध्य में शुरू किए गए राष्ट्रीय सिलिकोसिस उन्मूलन कार्यक्रम को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।”

पीके सिसोदिया राज्यों को राजस्थान से सीखने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार, “आज कोई भी मरीज जिसे लगता है कि वह सिलिकोसिस से पीड़ित है, वह किसी भी अस्पताल में जांच करा सकता है और पोर्टल में रजिस्ट्रेशन कर सकता है। जांच में प्रमाणित होने पर उसे आर्थिक राहत पहुंचा दी जाती है। यह पूरा सिस्टम ऑटोमैटिक है।”

उनका कहना है कि हरियाणा, झारखंड, पश्चिम बंगाल में नीति है लेकिन वह समग्र नहीं है। वह कहते हैं कि 2013 में हमने जब राजस्थान में काम शुरू किया था तब तक डॉक्टर भी इस बीमारी के लिए बारे में नहीं जानते थे। राजस्थान में हम अब तक करीब 40 हजार सिलिकोसिस के मामले पता लगा चुके हैं। इस रास्ते पर दूसरे राज्यों को भी चलना चाहिए।

रूपानी मानते हैं कि सिलिकोसिस से होने वाली मौतों को रोकने का सबसे महत्वपूर्ण कदम सिलिका धूल के संपर्क को कम करना है। नियोक्ता इसे इंजीनियरिंग नियंत्रणों के माध्यम से कर सकते हैं, जैसे धूल को फैलने से रोकने के लिए अवरोध, एग्जॉस्ट फैन का उपयोग और धूल भरे क्षेत्रों में कार्यरत कर्मचारियों को समय-समय पर बदलना ताकि उनका संपर्क सीमित हो। धूल को वहीं नियंत्रित करना चाहिए जहां इसका उत्पादन हो रहा है और नए एआई-आधारित अलार्म जैसे तकनीकी साधनों से यह संभव है जो धूल के स्तर अधिक होने पर अलर्ट भेज सकते हैं। साथ ही, केवल कपड़े के मास्क पर निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि ये पूरी तरह से सुरक्षा प्रदान नहीं करते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण कदम सिलिका धूल के खतरों के बारे में जागरुकता फैलाना है, ताकि लोग समझ सकें कि यह केवल सिलिकोसिस ही नहीं बल्कि टीबी का भी खतरा पैदा करता है। यह जागरुकता श्रमिकों, नियोक्ताओं और सभी स्तरों के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं तक पहुंचनी चाहिए। इनमें स्थानीय डॉक्टरों से लेकर विशेषज्ञों तक शामिल हैं। डॉक्टरों को एक्स-रे के आधार पर सिलिकोसिस को पहचानने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता है और उन्हें मरीजों से विस्तृत जानकारी लेकर समझना चाहिए कि क्या वे सिलिका धूल के संपर्क में हैं।

रूपानी आगे कहते हैं कि रोगों की पहचान में मदद के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में डिजिटल एक्स-रे की जरूरत है, खासकर ऐसे एक्स-रे जो एआई से युक्त हों और सिलिकोसिस, टीबी और सिलिको-टीबी की पहचान कर सकें। टेलीमेडिसिन भी सहायक हो सकती है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टर विशेषज्ञों से परामर्श कर सकें और कम लागत वाले निजी रेडियोलॉजिस्ट एक नेटवर्क का हिस्सा बन सकते हैं ताकि छाती के एक्स-रे तक पहुंच आसान हो सके।

सिलिकोसिस से पीड़ित श्रमिकों की सहायता करना नियोक्ताओं का नैतिक कर्तव्य है, चाहे उन्हें सुरक्षित भूमिकाओं में स्थानांतरित किया जाए या आर्थिक सहायता दी जाए। असंगठित क्षेत्रों में सरकार को श्रमिकों की सुरक्षा के लिए एक नीति बनानी चाहिए, जो प्रारंभिक पहचान, देखभाल और पुनर्वास पर केंद्रित हो, जिसमें फेफड़ों की देखभाल, नए काम में सहायता और वित्तीय सहयोग शामिल हो। अंत में रूपानी कहते हैं, “भारत को एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम की आवश्यकता है जो सिलिकोसिस पर केंद्रित हो। यह कार्यक्रम मामलों की पहचान, उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों का नक्शा तैयार करने से लेकर निदान, उपचार, रोकथाम और पुनर्वास के लिए दिशानिर्देशों तक सब कुछ कवर करे। राज्यों में लागू हो रही न्यूमोकोनियोसिस नीतियों का विस्तार करना इस व्यापक राष्ट्रीय कार्यक्रम का प्रारंभिक आधार हो सकता है।”

इंडियन टीबी जर्नल में प्रकाशित हुआ कमलेश सरकार और उनकी टीम का शोध कार्य भी कहता है कि टीबी उन्मूलन के लिए सिलिकोसिस पर पूर्व नियंत्रण आवश्यक है। अध्ययन के अनुसार, सिलिकोसिस के पीड़ित तपेदिक के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। वहीं सब-रेडियोलॉजिकल सिलिकोसिस के पीड़ित भी तपेदिक के प्रति संवेदनशील होते हैं। जर्नल ऑफ ग्लोबल एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि सिलिको-ट्यूबरकुलोसिस रोगियों में मल्टीड्रग रजिस्टेंस ट्यूबरकुलोसिस (एमडीआर टीबी) बहुत अधिक पाया गया है। भारत में 2025 के अंत तक 5.2 करोड़ सिलिका धूल के संपर्क में आने वाले श्रमिक होंगे, इसलिए उनमें से कई टीबी और एमडीआर-टीबी विकसित करेंगे। इसे ध्यान में रखते हुए तपेदिक के उन्मूलन हेतु सिलिकोसिस पर पूर्व नियंत्रण की आवश्यकता है।