स्वास्थ्य

आवरण कथा: मलेरिया, डेंगू और अब जीका वायरस.... मच्छर जनित बीमारियों का दोषी कौन?

मच्छरों से मुक्ति की कामना करने वाले उत्तर प्रदेश में भावी पीढ़ियों की सेहत पर खतरा मंडराने लगा है

Vibha Varshney, Vivek Mishra, Neetu Singh

मच्छर जनित जीका विषाणु से संक्रमित होने वाली 32 वर्षीय गर्भवती अनीता श्रीवास्तव ने 17 नवंबर की शाम 6 बजकर 45 मिनट पर कानपुर के रामदेवी स्थित कांशीराम हॉस्पिटल में बेटी को जन्म दिया है। इस अस्पताल में ही जीका संक्रमितों के इलाज की व्यवस्था की गई है। अनीता को 30 अक्टूबर को संक्रमित होने का पता चला और उसके बाद से प्रसव तक वह पैदा होने वाली बेटी की सेहत के लिए भय और बेचैनी से गुजरती रहीं। उत्तर प्रदेश में कानपुर के तिवारीपुर बगिया में रहने वाली अनीता पहली गर्भवती महिला थी, जिनमें जीका विषाणु की पुष्टि हुई थी। इसके बाद उनका पूरा परिवार जीका संक्रमण की चपेट में आ गया। बहरहाल, इस कष्ट के बीच अनीता ने सामान्य प्रसव के जरिए बच्ची को जन्म दिया। बेटी की सेहत आगे सामान्य रहेगी या नहीं, इस बात से वह चिंतित हैं। दरअसल अनीता को यह बताया गया कि जीका संक्रमित मां से बच्चों में तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क से जुड़ी गंभीर बीमारी हो सकती है। वर्ष 2018 में जीका संक्रमण के सर्वाधिक मामले देश के तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में दर्ज किए गए थे। उस वक्त उत्तर प्रदेश इस संक्रमण से अछूता रहा।

डेंगू के कहर के बीच 8 जुलाई, 2021 को केरल और 22 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश में पहली बार जीका संक्रमण ने दस्तक दी। उत्तर प्रदेश में अब तक सर्वाधिक 146 लोग जीका से संक्रमित हुए। इनमें कुल 9 गर्भवती महिलाएं भी शामिल हैं। कानपुर के तिवारीपुर बगिया में जीका संक्रमित क्षेत्र में नियुक्त आशा बहु ममता सिंह डाउन टू अर्थ से बताती हैं, “मुझे 17 नवंबर की सुबह अनीता का फोन आया कि पेट दर्द हो रहा है। मैंने कहा कि कुछ देर में आते हैं क्योंकि उस दिन बच्चों का टीकाकरण होना था इसलिए मैं उनके घर 11 बजे पहुंची। जब हम उनके घर पहुंचे तो अनीता बर्तन धो रही थीं। हमने उनका पेल्विक एग्जामिनेशन (पीवी) किया। फिर बैग तैयार कराया और ई-रिक्शा के जरिए उन्हें अस्पताल ले गए।” जीका संक्रमित मां से जन्मे नवजात में गंभीर न्यूरो बीमारियां हो सकती हैं। लेकिन बच्चों में गहन जांच और बचाव के लिए किसी तरह का प्रोटोकॉल और दिशा-निर्देश नहीं जारी किया गया।

अनीता डाउन टू अर्थ को बताती हैं, “मैं जब अस्पताल पहुंची तो मैंने किसी को वहां जीका संक्रमित होने को लेकर किसी को कुछ नहीं बताया। भीतर से यह डर लग रहा था कि कहीं बच्चे में कुछ बीमारी का पता न चले, लेकिन शाम 7 बजे के करीब जब बेटी हुई तो वह बिल्कुल ठीक थी।” अनीता 18 नवंबर को घर आ गईं। प्रसव में सहयोग कराने वाली आशा बहु ममता बताती हैं, “हम हर गर्भवती महिला का प्रसव होने से पहले प्राइवेट अल्ट्रासाउंड कराते हैं, इसलिए हमने अनीता का भी कराया। अल्ट्रासाउंड सामान्य था। ये रिपोर्ट लेकर हमने अनीता को कांशीराम हॉस्पिटल में भर्ती कराया। उसी दिन शाम को बेटी हो गई।” लेकिन क्या वाकई जीका संक्रमित मां से जन्मी बच्ची स्वस्थ है?

अनीता के घर 19 नवंबर, 2021 को स्वास्थ्य रैपिड रेस्पाॅन्स टीम ने दौरा किया। इस टीम के मेडिकल ऑफिसर राज बहादुर कहते हैं, “अभी बच्ची स्वस्थ दिख रही है। हालांकि कुछ भी नहीं कह सकते कि भविष्य में इस पर जीका विषाणु का क्या असर होगा क्योंकि जीका विषाणु हर गर्भवती महिला के होने वाले बच्चे में असर दिखा सकता है और बच्चे का मानसिक विकास रुक सकता है।”

अनीता की तरह ही कानपुर के काजीखेड़ा की रहने वाली 26 वर्षीय प्रतिमा भी जीका संक्रमित हुई थीं। उन्होंने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है। प्रतिमा के प्रसव में सहयोग करने वाली काजीखेड़ा की आशा बहु नूरजहां डाउन टू अर्थ से बताती हैं कि प्रतिमा ने एक निजी अस्पताल में बच्चों को जन्म दिया है और अभी घर पर हैं। मां और बच्चे स्वस्थ हैं और फोन के जरिए हम इनका हालचाल ले रहे हैं।

कानपुर के सभी जीका संक्रमित मामले जाजमऊ क्षेत्र में पाए गए। संक्रमित गर्भवती महिलाओं के बारे में जीका के लिए गठित रेपिड रेस्पाॅन्स टीम के राज बहादुर के मुताबिक, सभी जीका संक्रमित महिलाओं में प्रसव की तारीखें अलग-अलग हैं। इनमें 2 महीने से लेकर 8 महीने तक प्रसव की तारीख वाली महिलाएं हैं। सभी महिलाओं का ध्यान रखा जा रहा है। कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज के माइक्रोबॉयोलाजी विभाग के प्रोफेसर एवं आरटी-पीसीआर लेबोरेटरी के फैकल्टी इंचार्ज विकास मिश्र कहते हैं, “संक्रमित क्षेत्र में सभी गर्भवती महिलाओं की जीका वायरस टेस्टिंग जरूरी है। इससे मां को उतना नहीं लेकिन गर्भ में पल रहे बच्चे को खतरा ज्यादा है।” मच्छर जनित बीमारी से लड़ने के लिए उत्तर प्रदेश में संसाधनों का अभाव भी एक बड़ी चुनौती है। जीका संक्रमण की खराब स्थितियों के बीच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब 10 नवंबर, 2021 को कानपुर पहुंचे तो उसी दिन से जीका वायरस की जांच लैब जिले में शुरू की गई लेकिन अभी तक उस लैब में बहुत सीमित किट हैं। किट से केवल गर्भवती महिलाओं की जांच हो रही है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “हमने जीका वायरस की 250 किट मांगी थीं लेकिन अभी 100 किट ही मिली हैं जिसमें से 30 उपयोग हो चुकी हैं। अभी 70 ही बची हैं। इस क्षेत्र से आने वाली गर्भवती महिलाओं की जीका वायरस रिपोर्ट अगर निगेटिव भी आती है तो भी दूसरे स्तर का अल्ट्रासाउंड होना चाहिए।”

इन चिंताओं और गंभीरता के बावजूद जीका संक्रमित गर्भवती महिलाओं का खयाल नहीं रखा जा रहा। 2016 में गर्भ में पल रहे बच्चों पर जीका संक्रमण के असर को लेकर 2016 में ब्रिटिश जर्नल ऑफ जनरल प्रैक्टिस में प्रकाशित“जीका वायरस इंफेक्शन ड्यूरिंग प्रेग्नेंसी : व्हाट, व्हेयर एंड व्हाई” नाम के शोध में बताया गया कि वर्ष 2015 में उत्तरी ब्राजील के पर्नेमबुको राज्य में जीका विषाणु महामारी के वक्त पाया गया था कि यह नवजात बच्चों को प्रभावित कर रहा है। उनमें जन्म के समय माइक्रोसेफेली यानी छोटे सिर पाए जा रहे हैं। इस शोध में कहा गया कि कुल 35 मामलों में 74 फीसदी महिलाओं को गर्भ के समय रैश और 71 फीसदी जन्मे बच्चों में गंभीर माइक्रोसेफेली है।

उत्तर प्रदेश में जीका संक्रमित मां से जन्मे बच्चों को सामान्य स्वास्थ्य जांच के बाद स्वस्थ घोषित किया जा रहा है। उनके मस्तिष्क की स्कैनिंग या अन्य गहन जांचें नहीं की गई हैं। राज बहादुर के मुताबिक, जीका संक्रमित मां से जन्म लेने वाले बच्चों के गहन जांच को लेकर उनके पास कोई दिशा-निर्देश या गाइडलाइन नहीं है। इसलिए वह गहन जांच नहीं कर रहे हैं।



पहले से था अंदेशा

उत्तर प्रदेश में कोरोना विषाणु के साथ-साथ वर्ष 2020 और 2021 मे एक भी महीना ऐसा नहीं रहा जब मच्छर जनित बुखार से लोग पीड़ित न रहे हों। वैज्ञानिकों को इस बात का अंदेशा भी था कि जीका संक्रमण उत्तर प्रदेश में दस्तक दे सकता है। 22-23 अक्टूबर 2021 को जब कानपुर में पहला जीका संक्रमण का मामला सामने आया, उसके बाद ही मच्छरों से बचाव को लेकर प्रशासन सजग हुआ। इससे पहले डेंगू के मामले पूरे प्रदेश में जारी थे। इस मामले में संजय गांधी पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टीट्यूट (पीजीआई) के माइक्रोबायोलॉजी डिपार्टमेंट की विभागाध्यक्ष उज्ज्वला घोषाल डाउन टू अर्थ से कहती हैं, “कुछ सालों से भारत में जीका संक्रमण जारी था। हमें ऐसा अंदेशा था कि हो सकता है कभी ये वायरस यहां भी आ जाए।”

पीजीआई में तीन वर्ष पहले माइक्रोबॉयलोजी विभाग को सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) अमेरिका के जरिए जीका संक्रमण के अध्ययन के लिए किट दी गई थी और यह अध्ययन जारी ही था कि जीका संक्रमण ने दस्तक दे दी। कई चिकित्सकों ने डाउन टू अर्थ से कहा कि प्रदेश में जीका संक्रमण की पुष्टि भी शायद न हो पाती यदि वह मामला वायु सेना स्टेशन के किसी कर्मचारी से न जुड़ा होता, क्योंकि वायु सेना में बाहर से आने वाले लोगों की करीब दो दर्जन जांचें होती हैं। इनमें संक्रामक जांचें भी शामिल हैं। सरकार के वरिष्ठ अधिकारी अभी तक यह नहीं जान पाए हैं कि जीका वायरस कानपुर, उन्नाव और फिर लखनऊ कैसे पहुंचा।

मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण एक चुनौती

मच्छरों से पैदा त्रासदी झेलने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस वर्ष कई मौकों पर यह दोहराया कि उनका प्रदेश मच्छर मुक्त हो जाएगा। हालांकि अधिकारियों का कहना है कि मच्छरों की आबादी इतनी अधिक है कि उनसे लड़ना चुनौतियों से भरा है। जीका संक्रमण संकट को लेकर राज्य के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य महानिदेशक वेदव्रत सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं “जब तक मच्छरों पर नियंत्रण नहीं होगा, तब तक संचारी रोगों पर लगाम मुश्किल है। अपने देश में मच्छरों को नियंत्रित करना संभव नहीं है।”

मच्छर जनित बीमारियों की रोकथाम के लिए कानपुर में स्वास्थ्य अधिकारी बताते हैं कि वह पूरे जिले में तीन वर्षों के वेक्टर जनित बीमारी का आंकड़ा निकालते हैं। जितने हॉटस्पॉट होते हैं, उन पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। यह कोशिश की जाती है कि मच्छर जनित बीमारियां न फैलें। हालांकि, डाउन टू अर्थ ने पाया कि यह दावा वास्तविक नहीं है। जीका संक्रमण के बाद ही स्थानीय प्रशासन को कंटेनमेंट जोन बनाने, जांच और सैनेटाइजेशन जैसी गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए कहा गया। डाउन टू अर्थ ने 13 नवंबर को कानपुर के जीका संक्रमित क्षेत्रों का दौरा किया और पाया कि अधिकांश इलाकों में मच्छरों को नियंत्रित करने के लिए प्रयास नहीं किए गए।

इस मामले में कानपुर मंडल के अपर निदेशक चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग जीके मिश्रा भी डाउन टू अर्थ से बताते हैं, “मच्छरों को नियंत्रित करना इतना आसान नहीं है। इनकी जनसंख्या बहुत ज्यादा है। लोगों में जागरुकता भी कम है, ऐसे में मच्छर जनित रोग फैल जाते हैं।” वह आगे कहते हैं, “जिस अवधि में मच्छर जनित बीमारियां हुई हैं, उस समय हम कोविड के तीसरी लहर से बचने की तैयारी में थे। पूरी टीम अब जीका संक्रमण से बचाव में लग गई है। सभी स्वास्थ्य केन्द्रों और प्राइवेट अल्ट्रासाउंड सेंटरों को निर्देशित किया गया है कि अगले तीन से छह महीने तक क्षेत्र की गर्भवती महिलाओं का अल्ट्रासाउंड किया जाए।” इन दावों के उलट कानपुर में ही संकट के वक्त बच्चों को जन्म देने वाली जीका संक्रमित अनीता और प्रतिमा को अल्ट्रासाउंड की सुविधाएं इस आधार पर नहीं दी गईं। वहीं, जीका संक्रमण को लेकर गर्भवती महिलाओं की विशेष देखभाल को लेकर कानपुर जिलाधिकारी विशाक जी अय्यर कहते हैं, “गर्भवती महिलाओं की नियमित निगरानी हो रही है। इस वक्त चार गर्भवती महिलाएं अपने प्रसव के करीब हैं और वे खतरे से बाहर हैं।”

बीते पांच वर्षों में मच्छर जनित बीमारियों में जीका संक्रमण के साथ डेंगू और चिकनगुनिया ने लाखों लोगों को डंक का दंश दिया है। मच्छरों को नियंत्रित करने वाली राज्य मशीनरी बिना सजग प्रयास के ही हारने लगी हैं। जानकारों के मुताबिक, भविष्य में जलवायु परिवर्तन मच्छर बनाम मनुष्य के संघर्ष को और घातक बना सकता है। डाउन टू अर्थ ने वर्ष 2015 से लेकर 2021 (अक्टूबर) तक मच्छर जनित बीमारियों और लंबे होते माॅनसून सीजन के आंकड़ों के विश्लेषण में पाया कि वर्ष 2017 में माॅनसून सीजन 12 दिन और 2020 में 13 दिन लंबा रहा। यानी अधिक वर्षा वाला रहा। वहीं, 2017 में लंबे माॅनसून सीजन में मच्छर जनित रोग (डेंगू और चिकनगुनिया) के सर्वाधिक 2,00,952 मामले रहे। वर्ष 2020 में लंबे माॅनसून अवधि के बाद भी मामले कम रहे क्योंकि कोविड महामारी के कारण उन्हें दर्ज नहीं किया जा सका (देखें, माॅनसून से सीधा संबंध, पेज 36)।

पानी के भंडारण का संकट

कानपुर के जीका संक्रामक क्षेत्र जाजमऊ में तिवारीपुर बगिया में पानी स्टोरेज को मच्छरों के पनपने का कारण माना जा रहा है। इस क्षेत्र में कुल 200 घरों में से लगभग 150 घर यहां बनी सामुदायिक टंकी से पानी भरते हैं। लोग अपने घरों में पानी स्टोर करके भी रखते हैं। हालांकि जब से इस वायरस ने अपनी दस्तक दी है, तब से स्वास्थ्य टीम घर-घर जाकर उन्हें जागरूक कर रही है कि पानी भरकर न रखें और डिब्बों में भरा पानी ढककर रखें। मलेरिया इंस्पेक्टर शुभम श्रीवास्तव बीते एक महीने से रोजाना कानपुर में संक्रमित क्षेत्र की निगरानी करने जाते हैं। शुभम जीका वायरस के मच्छरों के बारे में कहते हैं, “साफ ठहरे हुए पानी में सात दिन के अंदर जो लार्वा बनता है, वही मच्छर बनता है। क्षेत्र में पानी की समस्या है, इसलिए यहां मच्छर ज्यादा पनपते हैं।”

हालांकि, इस बस्ती में रहने वाली 35 वर्षीय अंगूरी देवी कहती हैं, “पानी डिब्बों में भरकर रखना मजबूरी है। हम दो तीन दिन में डिब्बा खाली करके ताजा पानी भरते हैं। सालों से ऐसे ही पानी भरकर रखते थे, कभी कुछ नहीं हुआ। पता नहीं अब कितनी नई-नई बीमारी आ रही हैं।” मच्छरों के बढ़ते प्रकोप में जीका संक्रमण इसलिए बेहद घातक है क्योंकि यह मनुष्य से मनुष्य में पहुंच सकता है।

विकास मिश्र कहते हैं, “यह चार तरीकों से फैलता है। पहला एडीज मच्छर जब मनुष्य को काटता है, दूसरा अगर मां संक्रमित है तो बच्चे में संक्रमण हो सकता है, तीसरा ब्लड ट्रांसफ्यूजन से और चौथा पति-पत्नी के बीच संक्रमण शारीरिक संबंध के कारण फैल सकता है।” हालांकि, शासन-प्रशासन इस बात से अनजान है कि जीका कैसे कानपुर में आया।



ट्रेवल हिस्ट्री की मिस्ट्री

उत्तर प्रदेश में भारतीय वायु सेना के 57 वर्षीय जिन मास्टर वाॅरेंट ऑफिसर मोहम्मद मुश्ताक अली में सबसे पहले जीका वायरस का संक्रमण पाया गया वह डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “किसी सामान्य आदमी में अगर जीका वायरस का संक्रमण होता तो शायद आज भी पता नहीं चल पाता। मैं डॉक्टरों की उन टीम को धन्यवाद देता हूं जिन्होंने जीका की जांच के लिए हमारे ब्लड सैम्पल को पुणे भेजा।” वह आगे कहते हैं, “जो व्यक्ति हमारे यहां केरल से आया था, उसकी काउंसलिंग हमने एक महीने पहले की थी। मैं संक्रमित लगभग एक महीने बाद हुआ। इससे पहले शायद कभी किसी की जीका वायरस की जांच नहीं हुई थी इसलिए भी इस वायरस की पुष्टि नहीं हो पाई।” इस मामले में कानपुर नगर के जिला अधिकारी विशाख जी अय्यर कहते हैं, “ये वायरस कानपुर में कैसे आया इसको अभी हम ट्रेस करने में सफल नहीं हो पाए हैं।”

ऐसे आया मच्छर जनित जीका

जीका वायरस  सबसे पहले 1947 में युगांडा के जीका जंगल में रीसस बंदर से निकाला किया गया था। 1952 में इसने इंसानों को भी संक्रमित किया। लेकिन पांच दशकों में अफ्रीका और दक्षिणपूर्व एशिया से केवल 15 मामले सामने आए। 2007 में इस जूनोटिक रोग (संक्रमण जो जानवरों में उभरते हैं और मनुष्यों को संक्रमित करते हैं) का व्यापक प्रसार हुआ और ये पश्चिमी प्रशांत ये द्वीप समूह याप में पाया गया। यह विषाणु अन्य प्रशांत द्वीपों से होता ब्राजील पहुंच गया। 2007 में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आम जनमानस के लिए आपात चिंता घोषित किया। लेकिन बाद में मामले कम होने के कारण सबका  ध्यान इस विषाणु से हट गया। भारत में 2017 में महज 3 और 2018 में सर्वाधिक 290 मामले आने के बाद भी भारत सरकार की ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। मच्छरों को हल्का समझना अब भारी पड़ने लगा है।

3,500 प्रजातियों में 2 अधिक घातक

डेंगू, चिकनगुनिया, जीका और पीले बुखार के वायरस हमें तब तक कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते, जब तक कि वे किसी वेक्टर (मच्छर) के जरिए मानव-शरीर में प्रवेश नहीं करते। इन सभी तरह की बीमारियों के मामलों में समान तौर से दो मच्छर जिम्मेदार हैं- पहला, एडीज इजिप्टी, जिसे आमतौर पर येलो फीवर मच्छर के नाम से जाना जाता है और दूसरा एडीज अल्बोपिक्टस, जिसे एशियन टाइगर मच्छर के रूप में भी जाना जाता है। ये मनुष्यों की जानकारी में मच्छरों की लगभग 3,500 प्रजातियों में से महज दो हैं। इन मच्छरों का जीवन केवल 15 से लेकर 30 दिनों का होता है। इस दौरान मादा मच्छर अंडे देने के लिए इंसान के रक्त की तलाश में रहती है। इसी के चलते वह इंसान का खून चूसती है और उसके शरीर में वायरस छोड़ देती है। वेक्टर और वायरस एक साथ मिलकर ऐसी स्थितियां बनाते हैं, जिनसे बच निकलना इंसान के लिए नामुमकिन हो जाता है।

डंक का खतरा

एडीज इजिप्टी, उप-सहारा अफ्रीका और उसके आसपास के वातावरण का मूल निवासी है। यह पेड़ों के छेदों और पानी के छोटे गड्ढों में रहता है और बंदरों को काटता है। ऐसा माना जाता है कि सदियों पहले सूखे के दौरान जब पेड़ों के छेद सूख गए तो इन मच्छरों ने आसपास रहने वाली इंसानी आबादी का रुख किया। इसके बाद ये यूरोपियन कोलोनाइजर्स द्वारा स्लेव ट्रेड के कारण अफ्रीका से बाहर चले गए। अफ्रीका से बाहर येलो फीवर का पहला मामला युकातन में 1648 में दर्ज किया गया था। जीका वायरस की तरह येलो फीवर वायरस भी अफ्रीका से निकला है। इसी तरह, एडीज अल्बोपिक्टस, ऊष्णकटिबंधीय दक्षिण-पूर्वी एशिया का मूल निवासी है, जहां यह मूल रूप से जानवरों के प्रति आकर्षित होने वाली एक वनीय प्रजाति थी। पहले यह भारतीय महाद्वीप और प्रशांत महासागर में फैली और उसके बाद 1980 में इसका विस्तार यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका के समशीतोष्ण क्षेत्रों में हुआ।

आदमी के द्वारा बनाई गई परिस्थितियों ने मच्छरों के दूरस्थ क्षेत्रों में फैलने को आसान बनाया। वे गर्म और गीले वातावरण में बेहतर प्रजनन करते हैं और वैश्विक तापमान ने उनके लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया। उदाहरण के लिए, 1 मई 2020 में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध के परिणाम दर्शाते हैं कि 1950 से 2000 के दौरान दुनिया की स्थितियां इजिप्टी के विकास के लिए प्रति दशक 1.5 फीसदी अनुकूल होती गईं। इसमें अनुमान लगाया गया कि 2050 तक हालात उनके लिए प्रति दशक में 3.2 फीसदी से लेकर 4.4 फीसदी तक अनुकूल हो सकते हैं।

ग्रीनहाउस उत्सर्जन से पड़ेगा असर

2050 तक अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन आज की दर से होता रहा, तो एडीज इजिप्टी और एडीज अल्बोपिक्टस दुनिया की 49 फीसदी आबादी तक पहुंच जाएंगे। इसकी व्याख्या नेचर माइक्रोबायोलॉजी (4 मार्च, 2019 को) में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक, यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में अलग- अलग समय पर इन दोनों मच्छरों की प्रजातियों के वितरण पर ऐतिहासिक आंकड़ों का उपयोग करके की गई थी। ये शोध बताता है कि वर्तमान जलवायु परिस्थितियों और जनसंख्या घनत्व के तहत आने वाले दशकों में मच्छरों की दोनों प्रजातियां विश्व स्तर पर फैलती रहेंगी। एडीज इजिप्टी के इसके वर्तमान ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में फैलने के साथ ही अमेरिका और चीन के नए समशीतोष्ण क्षेत्रों यानी शिकागो और शंघाई तक पहुंचने की आशंका है। एडीज अल्बोपिक्टस के पूरे यूरोप में व्यापक रूप से फैलने और अगले 30 सालों में फ्रांस और जर्मनी के बड़े क्षेत्रों तक पहुंचने का अनुमान है। यह उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका और पूर्वी अफ्रीका के उच्चभूमि क्षेत्रों में अपने को स्थापित करेगी। शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने के महत्व को इंगित किया और बताया कि अगले 5 से 15 सालों के बाद इन मच्छरों की प्रजातियों का विस्तार जलवायु, तापमान और शहरीकरण से ही प्रेरित होगा।

जलवायु परिवर्तन महत्वपूर्ण कारक

जलवायु परिवर्तन से वेक्टर की आबादी बढ़ती है क्योंकि गर्म जलवायु में मच्छर पूरे साल भर प्रजनन करने में सक्षम होते हैं। 12 जून 2019 को फ्रंटियर्स इन पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक गणितीय आकलन में बताया था कि बीती शताब्दी में एडीज इजिप्टी की वैश्विक बहुतायत में अब तक 9.5 फीसदी की वृद्धि हुई है। इस शताब्दी के अंत तक अगर कॉर्बन उत्सर्जन कम रहता है तो इसमें 20 फीसदी और कार्बन उत्सर्जन तेज होता है तो 30 फीसदी वृद्धि संभावित है (देखें, प्रसार के आसार,)। मच्छरों का प्रजनन संबंधी व्यवहार भी बदला है। पारंपरिक रूप से ऐसा माना जाता था कि ये साफ पानी में प्रजनन करते हैं लेकिन अब अध्ययनों में बताया गया हे कि ये प्रदूषित पानी में भी अंडे दे सकते हैं। तमिलनाडु के शोधकर्ताओं ने एडीज एजिप्टी के प्रजनन करने की जगहों पर पानी की गुणवत्ता को देखा और पाया कि ऐसी 16 जगहों में से 7 जगह जहां मच्छर प्रजनन कर रहे थे, प्रदूषित थीं। यह पेपर 7 मई, 2020 को इंडियन जर्नल ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित हुआ था। श्रीलंका में भी एडीज एजिप्टी प्रदूषित पानी वाले नालों में पाया गया था।



शोधकर्ताओं ने दिसंबर 2019 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल इंसेक्ट साइंस में प्रकाशित अपने अध्ययन में निष्कर्ष निकाला कि कीटनाशकों के लगातार दबाव और प्रजनन स्थलों का विनाश मच्छरों को नई परिस्थितियों के अनुकूल बनने के लिए मजबूर करता है। इसके भी प्रमाण हैं कि एडीज मच्छर खारे पानी में भी प्रजनन कर सकते हैं। श्रीलंका के शोधकर्ताओं ने 2011 में पीएलओएस नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज नामक पत्रिका में बताया कि एडीज इजिप्टी और एडीज अल्बोपिक्टस दोनों प्लास्टिक और कांच के कंटेनर, परित्यज्य मछली पकड़ने वाली नौकाओं और तटीय क्षेत्र में अप्रयुक्त कुओं के खारे पानी में अंडे देते हैं और वयस्कों के रूप में उभरते हैं।

प्रकाश के प्रदूषण का प्रभाव

इसके अलावा अन्य कारण भी है, जिन्होंने मच्छरों का खतरा बढ़ाया है। उदाहरण के लिए प्रकाश प्रदूषण ने उनके काटने की आदत को ही बदल डाला है। आमतौर पर एडीज इजिप्टी लोगों को दिन के समय यानी सुबह से लेकर दोपहर तक काटता है। अब कृत्रिम प्रकाश ने उसके भोजन करने की अवधि और बीमारी फैलाने की क्षमता में वृद्धि की है। नोट्रे डेम विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 2020 में द अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन में बताया कि प्रकाश प्रदूषण का बढ़ता स्तर मच्छरों के संचरण को प्रभावित कर सकता है। जैविक विज्ञान विभाग के एक विभागीय वैज्ञानिक सैमुअल रुंड ने एक प्रयोग किया, जिसमें उन्होंने पिंजरे में बंद मच्छरों को नियंत्रित परिस्थितियों में दिन के दौरान, रात में या रात में कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में अपनी बाहों को काटने दिया। उन्होंने पाया कि कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में आने पर मादा मच्छरों के रात में काटने की आशंका दोगुनी होती है। जिन मच्छरों को प्रकाश नहीं मिला, उनमें से सिर्फ 29 प्रतिशत ने ही काटा जबकि जिन मच्छरों को प्रकाश मिला उनमें से 59 फीसदी ने रात में काटा।

एडीज इजिप्टी ने उसे मारने के लिए बनाए गए कीटनाशक पर्मेथ्रिन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित कर ली है। 17 जून, 2021 को पीएलओएस जेनेटिक्स पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि कीटनाशक के प्रभाव में आकर मच्छरों के जीन में बदलाव हो जाता है। मिसाल के तौर पर मच्छरों के क्यूटिकल प्रोटीन को बनाने वाले जीन में बदलाव हो जाता है, जिससे उनकी ऊपरी सतह काफी मोटी हो जाती है और जिसके कारण उनपर कीटनाशकों का प्रभाव नहीं पड़ता।

वायरस का प्रकोप

30 अक्टूबर 2021 को द लैंसेट में प्रकाशित एक रिव्यू पेपर ने मच्छर की बीमारी फैलाने की क्षमता पर तापमान व वर्षा के प्रभाव का आकलन किया। शोधकर्ताओं ने आर-0 (आर-0 - एक संक्रमण के परिणामस्वरूप होने वाले माध्यमिक संक्रमणों की अपेक्षित संख्या) का अनुमान लगाने के लिए इसे मानव जनसंख्या घनत्व डेटा के साथ जोड़ा। इसके निष्कर्ष बताते हैं कि ट्रैक किए गए सभी वायरल-जनित रोगों के लिए आर-0 1950 से 1954 के बीच बढ़ गया और 2020 में एडीज इजिप्टी द्वारा संचरण पहले से 13 फीसदी और एडीज अल्बोपिक्टस द्वारा संचरण के लिए 7 फीसदी अधिक था। ऐसे भी कुछ अध्ययन हैं, जो यह बताते हैं कि ज्यादा प्रभावी वेक्टर बनाने के लिए वायरस, मच्छर में भी बदलाव ला रहा है। एडीज इजिप्टी की दो उपजातियां हैं। इनमें मूल अफ्रीकी उपजाति एडीज इजिप्टी फार्मोसस और मानव-विशिष्ट एडीज इजिप्टी इजिप्टी है। इन दोनों में एडीज इजिप्टी इजिप्टी के द्वारा वायरस संक्रमण एडीज इजिप्टी फार्मोसस की तुलना में ज्यादा हो सकता है।

फ्रांस में इंस्टिट्यूट पाश्चर की कीट-वायरस इंटरेक्शन यूनिट के लुई लैम्ब्रेक्ट्स के नेतृत्व में शोधकर्ताओं के एक समूह ने एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में एकत्र किए गए नमूनों से विकसित मच्छरों की 14 कॉलोनियों का परीक्षण कर पाया कि अफ्रीकी मच्छरों के रक्त से जीका वायरस लेकर फैलाने की क्षमता कम थी। संक्रमण के प्रयोगों से पता चला कि अफ्रीका के मच्छरों ने मानव-विशिष्ट मच्छरों की तुलना में वायरस इनोकुलम का संचरण कम किया। इसके आगे शोधकर्ताओं ने 20 नवंबर 2020 को साइंस जर्नल में प्रकाशित अपने अध्ययन में कहा कि मच्छरों के द्वितीय गुणसू़त्र में मौजूद आनुवांशिक विभेदों ने भी अफ्रीका के बाहर पाए जाने वाले एडीज इजिप्टी इजिप्टी में जीका वायरस से ग्रसित होने की आशंका बढ़ाई है।

विषाणु मच्छरों के व्यवहार को भी प्रभावित करता है। ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने 25 अप्रैल, 2018 को इमर्जिंग माइक्रोब्स एंड इंफेक्शन पत्रिका में रिपोर्ट दी कि जीका वायरस एडीज इजिप्टी के व्यवहार में बदलाव लाता है। अंडे देने के चरण के दौरान असंक्रमित मादाओं की तुलना में जीका वायरस से संक्रमित मच्छरों की गतिविधि में काफी वृद्धि हुई है जिससे वे ज्यादा जगह अंडे दे पाईं। उनकी टीम ने संक्रमण के बाद मच्छर के प्राथमिक न्यूरॉनों के कार्य में भी तेजी देखी।



आगे का रास्ता

जब वायरस और मच्छर मिलकर इंसान के खिलाफ लड़ रहे हैं तो इस जटिल स्थिति से बचने के लिए रास्ता निकालना जरूरी है। ऐसा ही एक तरीका है- डेंगू बुखार के ‘हॉटस्पॉट’ की पहचान करना ताकि भविष्य में जीका और चिकनगुनिया के प्रकोप से बचने के लिए एक योजना तैयार की जा सके। ये हॉटस्पॉट वायरस से होने वाली अन्य बीमािरयों को पहचानने में स्वास्थ्य अधिकारियों की मदद कर सकते हैं। दक्षिणी मेक्सिको के शहरों में 2008 से 2020 तक के आंकड़ों से पता चलता है कि 62 फीसदी हॉटस्पॉट डेंगू और जीका के लिए एक जैसे हैं जबकि 53 फीसदी हॉटस्पॉट डेंगू और चिकनगुनिया के लिए एक जैसे हैं। इससे साफ है कि मच्छरों के नियंत्रण के लिए इनमें बनाई गई रणनीति कारगर हो सकती है।

यह अध्ययन लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ में 7 जुलाई 2021 को प्रकाशित किया गया है। हालांकि जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाना एक समाधान लगता है पर शोधकर्ताओं ने 28 मार्च 2019 को पीएलओएस नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज पत्रिका में बताया कि कई बारीिकयों पर ध्यान रखने की जरूरत है। दोनों मच्छरों में बड़ा अंतर है। एडीज इजिप्टी इजिप्टी पर ऊंचे तापमान का असर नहीं होता जबकि एडीज अल्बोपिक्टस पर होता है। जलवायु परिवर्तन के कारण एडीज इजिप्टी इजिप्टी में साल भर संचरण क्षमता का विस्तार होने की संभावना है (विशेषकर दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीका में)। वहीं ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में एडीज अल्बोपिक्टस की संचरण क्षमता में काफी हद तक कम होने की संभावना होती है क्योंकि ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र, अल्बोपिक्टस के संचरण के लिए बहुत गर्म हो सकते हैं।

इससे पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन को पूर्व-औद्योगिक स्तर तक लाने से लगभग एक अरब लोगों को वायरस-जनित रोगों से बचाया जा सकता है। लेकिन यदि इस काम को आधे रास्ते में छोड़ दिया गया तो एडीज अल्बोपिक्टस का संचरण कई गुना तक बढ़ सकता है। इसका चिंताजनक पहलू यह है कि जलवायु परिवर्तन को कम करने से उच्च आय वाले क्षेत्रों से एडीज संचरित विषाणुओं का बोझ वापस ऊष्णकटिबंध में स्थानांतरित हो जाएगा, जहां जलवायु परिवर्तन के कारण संचरण में गिरावट शुरू होने के आसार हैं। अमेरिका के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के जीव विज्ञान विभाग के एरिन मोर्दके के मुताबिक, विषाणु नियंत्रण बहुत मुश्किल कार्य है क्योंकि संक्रमित लोगों का एक बड़ा हिस्सा लक्षणों का अनुभव नहीं करता, इसलिए उन्हें यह पता नहीं होता कि वे संक्रामक हैं। ऐसे में हमारे पास वेक्टर को नियंत्रित करना, एकमात्र विकल्प है अन्यथा, हमें उनका शिकार होना होगा।