स्वास्थ्य

आवरण कथा: कोविड-19 वैक्सीन के साथ ही सामने आया बड़ी फार्मा कंपनियों का असली चरित्र

कोविड-19 वैक्सीन को लेकर दुनिया भर में छिड़ी जंग पर डाउन टू अर्थ की आवरण कथा की दूसरी कड़ी

Latha Jishnu

कंपनियों का बड़ा पेट

सार्वजनिक धन से टीके को विकसित करने वाली कंपनियों का तर्क बेतुका है कि आईपीआर के निलंबन से नवाचार प्रभावित होगा

अमेरिका में अब खुलकर स्वास्थ्य सेवाओं की राजनीति की जा रही है, खासकर हाल के दिनों में बड़ी फार्मा कंपनियों का असली चरित्र सामने आ रहा है। ये कंपनियां नहीं चाहती कि कोरोना महामारी जैसी विश्वव्यापी आपदा के दौर में भी इनके हितों को मामूली नुकसान भी पहुंचे।

इस लड़ाई का अहम पहलू यह है कि महामारी से ग्रसित दुनिया को टीका मिले, लेकिन आईपीआर की आड़ में जीवन बचाने वाली इस टीका के अरबों लोगों तक पहुंचने में अड़ंगा लगाया जा रहा है।

हाल के दिनों में अमेरिका में हुए प्रदर्शनों और अभियानों का फोकस भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव पर है। इस प्रस्ताव में इन देशों ने डब्ल्यूटीओ से अपील की है कि कोरोना खत्म होने तक आईपीआर के व्यापार से संबंधित समझौतों को निलंबित रखा जाए। आईपीआर के व्यापार से संबंधित समझौतों (टीआरआईपीएस) को संक्षेप में ट्रिप्स के नाम से जाना जाता है।

ट्रिप्स अपने सदस्य देशों पर दबाव डालता है कि वह आईपीआर को सुनिश्चित करते हुए किसी नई खोज पर किसी देश का एकाधिकार न होने दें। दरअसल, इस लड़ाई की शुरुआत में भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव का तब तक कोई मतलब नहीं था, जब तक कि सबसे ताकतवर विकसित देशों ने इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया था।

हाल के सप्ताहों में शीर्ष सिविल सोसाइटी संगठन, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन से अपील कर रहे हैं कि वह ट्रिप्स के आपातकालीन नियमों को लागू न करें, जिससे कि टीका और कोरोना का उपचार ज्यादा बड़े स्तर पर किया जा सके। डेमोक्रेटिक पार्टी के तीन सांसदों ने भी इन संगठनों का समर्थन किया था। जी हां, केवल तीन। लेकिन सिविल संगठन और तीन सांसद अरबों डालर के खेल की लड़ाई में कैसे टिक सकते हैं?

ट्रिप्स के विशेष प्रावधानों को लागू न होने देने के पीछे ड्रग इंडस्ट्री के बड़े खिलाड़ियों का तर्क कोई नया नहीं है, वह यही कह रहे हैं कि टीका के मामले में आईपीआर को निलंबित करने से किसी भी नई तरह की खोज करने वाले हतोत्साहित होंगे, जबकि यह सबको पता है कि अभी तक टीका का उत्पादन करने में जितनी भी फार्मा कंपनियां आगे रही हैं, उन सभी को पब्लिक रिसर्च प्रयोगशालाओं का समर्थन मिला है और सरकारों ने उदार होकर उनकी फंडिंग की है।

आइए देखते हैं कि इस लड़ाई को जीतने के लिए ड्रग इंडस्ट्री किस तरह से अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल कर रही है। बड़ी फार्मा कंपनियों की लॉबिंग करने वाली, द फार्मास्यूटिकल रिसर्च एंड मैन्युफक्चर्स ऑफ अमेरिका ने पिछले साल की शुरुआती तीन तिमाही में सांसदों को अपने समर्थन में लेने के लिए खुलकर खर्च किया।

फार्मा से जुड़े हेल्थ समूह के मुताबिक, 2020 के शुरू के महीनों में बड़ी फार्मा कंपनियों ने लगभग 50 मिलियन डॉलर खर्च किए। यह वही समय था, जब कोविड-19 अपने शुरुआती दौर में था। हेल्थ समूह ने अपनी जांच में पाया कि इस लॉबिंग में ट्रंप प्रशासन के पूर्व अधिकारी शामिल थे। तो इसका मतलब क्या यह है कि केवल रिपब्लिकंस को फार्मा कंपनियों से लाभ हो रहा है, क्योंकि छह मार्च को ही रिपब्लिक पार्टी के चार शीर्ष सांसदों ने बाइडन से भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव को खारिज करने की मांग की है?

यह सच है कि ट्रंप काल में ड्रग इंडस्ट्री ने दवाओं के दाम से संबंधित कानून के खिलाफ लड़ाई में रिपब्लिक सांसदों पर पूरा भरोसा किया, यह कानून उनके बिजनेस मॉडल को चौपट कर सकता था। लेकिन डेमोक्रेटस भी किसी दूसरी मिट्टी के नहीं बने हैं।

मत भूलिए कि 2016 के राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान डेमोक्रेट प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन ने इसी ड्रग इंडस्ट्री से 3,36,416 डॉलर चंदा जुटाया था, जो उन्हें मिले कुल चंदे के एक तिहाई से ज्यादा था। इन सबके बीच, दुनिया की सबसे बड़ी ड्रग कंपनियों में एक फाइजर लैटिन अमेरिकी देशों को डरा-धमका रही है कि वह उसकी महंगी टीका को सुरक्षा देने के लिए अपने कानूनों में बदलाव करें।

याद रहे कि फाइजर की सहयोगी बायोएनटेक को टीका विकसित करने के लिए जर्मनी से 445 मिलियन डॉलर मिले हैं। वहीं ट्रंप ने भी 100 मिलियन डोज के लिए लगभग दो अरब डॉलर तब दिए थे, जब फेज 3 का ट्रायल भी शुरू नहीं हुआ था। ऐसे में अब, बाइडन क्या करने वाले हैं, यह सवाल केवल दिल बहलाने वाला है।

डब्ल्यूटीओ ने खारिज की ट्रिप्स में छूट की मांग

महामारी के दौरान बौद्धिक संपदा अधिकारों में छूट हेतु भारत-दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव को जानबूझकर दरकिनार किया गया

दक्षिण अफ्रीका मूल की डब्ल्यूटीओ की महानिदेशक नकोजी ओकांजा इबेला को पहली बार महिला के रूप में डब्ल्यूटीओ का नेतृत्व करने का गौरव हासिल है। उन्होंने अपने 15 फरवरी, 2021 दिए अपने पहले भाषण में सदस्य देशों से अपील की कि टीका राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद को अस्वीकार करें। उन्होंने टीकों के लिए अधिक न्यायसंगत पहुंच सुनिश्चित करने के लिए एक “तीसरा तरीका” भी बताया। क्या उनकी यह पहल “डब्ल्यूटीओ को रीब्रांड” करने और इसे “समावेशी आर्थिक विकास और सतत विकास के लिए एक साधन” में बदलने की आशा की पहली किरण थी? दुख की बात यह है कि ऐसा नहीं है।

विश्व बैंक में अपने जीवन का सबसे लंबा वक्त बिताने वाली नाइजीरिया की पूर्व वित्तमंत्री “बहुपक्षीय नियमों के ढांचे के भीतर प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की सुविधा” के पुराने व घिसे-पिटे तर्क पर लौट आई हैं। उनके अनुसार, लाइसेंसिंग समझौतों की अनुमति देने से चिकित्सा उत्पादों के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिलेगी और इससे अनुसंधान व नवाचार को प्रोत्साहन मिलेगा। उन्होंने जॉनसन एंड जॉनसन और एस्ट्राजेनेका का उदाहरण दिया जो अपने टीका का उत्पादन करने के लिए सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) का उपयोग कर रही है।

महामारी के दौरान बौद्धिक संपदा अधिकारों में छूट हेतु भारत-दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव को जानबूझकर दरकिनार किया गया। अमेरिका, यूरोप और अमीर देशों के विरोध के बावजूद इस प्रस्ताव को डब्ल्यूटीओ के विकासशील सदस्य देशों को भारी समर्थन मिला था। लाइसेंसिंग मॉडल के बारे में परेशान करने वाले प्रश्न हैं जो एसआईआई को अफ्रीका में गरीब देशों से विकसित देशों से दोगुनी कीमत वसूलने की अनुमति दे रहा है। नकोजी ओकांजा इबेला जीएवीआई बोर्ड की अध्यक्ष रह चुकी हैं। इसलिए यह चौंकाने वाली बात है कि वह इस तथ्य से अनजान हैं कि लाइसेंसिंग से शायद ही निष्पक्षता सुनिश्चित होती है। वह गरीब देशों को टीका उपलब्ध कराने की बात तो कहतीं हैं लेकिन लाइसेंसिंग निश्चित रूप से इसमें रोड़ा है। वह फार्मा कंपनियों की तारीफ करने से खुद को नहीं रोक पातीं और उन्हें “पहले से हमसे बहुत आगे” होने की बात कहती हैं। उन्होंने अपने संबोधन के बाद संशयवादी पत्रकारों को समझाया कि ट्रिप्स के लचीलेपन का उपयोग करके कंपनियों को डब्ल्यूटीओ नियमों में सहयोग किया जाएगा।

लचीलापन न केवल इसलिए समस्याग्रस्त है क्योंकि इसकी प्रक्रियाएं भूलभुलैया जैसी हैं बल्कि इसलिए भी कि देश इनका उपयोग अपवाद के रूप में करते हैं। यहां तक कि कुछ देशों द्वारा महामारी से लड़ने के लिए लागू किए गए आपातकालीन नियमों और अनिवार्य लाइसेंस को अमीर देशों की आलोचना झेलनी पड़ी। फिर भी, नए विश्व व्यापार संगठन प्रमुख ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है और ट्रिप्स के मामले को कमजोर कर दिया है।

इसका एक उदाहरण मुझे जकार्ता पोस्ट के लेख में देखने को मिला। इसे इंडोनेशिया में पदस्थ यूरोपीय यूनियन के राजदूत ने लिखा था। अखबार में संपादकीय के प्रत्युतर में लिखे इस लेख में छूट का औचित्य बताया गया है। राजदूत ने तर्कों को खारिज करने के लिए नकोजी ओकांजा इबेला के प्रस्तावित “तीसरे तरीके” का इस्तेमाल किया। विश्व व्यापार संगठन में एक बाद के भाषण में नकोजी ओकांजा इबेला ने स्वीकार किया कि बड़ी संख्या में देश यात्रा छूट की मांग का समर्थन कर रहे हैं और इस पर बहस तेज हो रही है। उन्होंने कहा कि सदस्यों को बड़ी संख्या में गरीब देशों की तत्काल जरूरतों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिन्हें अब तक कोई टीका नहीं मिला है। लेकिन अब नुकसान हो चुका है। भले ही सैद्धांतिक रूप से विश्व व्यापार संगठन के प्रमुखों के पास कोई शक्ति न हो, लेकिन वे अधिकार और प्रभाव का प्रयोग करते हैं। उनकी पृष्ठभूमि और दोहरी राष्ट्रीयता को देखते हुए नकोजी ओकांजा इबेला एक ऐसी शख्सियत हैं, जिनके बारे में सोचा जाना चाहिए।

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