छत्तीसगढ़ में आदिवासी बहुल धमतरी जिले में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता और मितानिनों ने खुद और समुदाय की सुरक्षा के लिए बेहतरीन तरीका खोजा। कुमहाडा गांव में बतौर मितानिन काम करने वाली उर्मिला मकराम एक सफेद कपड़े का खुद से तैयार मास्क पहन रही हैं। वह बताती हैं कि मैं इसे रोजाना काम से घर वापस आकर धोती हूं और दोबारा इस्तेमाल करती हूं। उन्होंने लोगों के बीच उचित दूरी बनाकर सफलतापूर्वक सामाजिक जुटान भी करवाई। गांव की ही निवासी भारती मकराम बताती हैं कि उनकी मां का देहांत एक सड़क दुर्घटना में हो गया था इसलिए अप्रैल के पहले हफ्ते में पूरा परिवार नहावन की परंपरा को निभाता है। जब मितानिन उर्मिला कमराम को यह पता चला तो उन्होंने भारती से कहा कि वो कम से कम रिश्तेदार को ही इस काम-काज के लिए बुलाएं। साथ ही बुजुर्गों को गले लगाने और छूने जैसे अभ्यास न करें।
यह हिदायत भी दी गई कि सभी रिश्तेदार उसी दिन वापस लौट जाएं। भारती ने दी गई सलाहों पर अमल किया हालांकि उर्मिला ने पास की पांच अन्य मितानिनों को लोगों के बीच उचित दूरी बनाए रखकर परंपरा निभाने में मदद के लिए बुलाया। उर्मिला बताती हैं कि वह इस परंपरा को पूरा कराने के लिए पूरे दिन गांव के उस तालाब के पास रही जहां नहावन होना था। रायपुर में राज्य स्वास्थ्य संसाधन केंद्र के प्रबीर चटर्जी ने बताया कि छत्तीसगढ़ में कुल 70,000 मितानिन हैं, लॉकडाउन के दौरान मितानिन ही गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में खाना परोसने का काम करती हैं।
भूखे को भोजन
मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के करौंदी गांव में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता आशा सिंह कहती हैं कि तालाबंदी के बाद उन्हें लोगों को नियमित अंतराल पर हाथ धोने और सामाजिक दूरी बनाए रखने के बारे में शिक्षित करने के लिए कहा गया है। हालांकि यह ऐसी जगह पर काफी कठिन काम है जहां पानी की उपलब्धता कम है और लोग जलावन लकड़ी इकट्ठा करने के साथ ही वन उपज पर निर्भर हैं। खाने के पैकेट ने इनकी कठिनाइयों को कम किया है।
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लॉकडाउन के बाद से आंगनवाड़ी केंद्र पूरी तरह बंद हैं और बच्चों को पोषणयुक्त आहार दिया जा रहा है। दूध पिलाने वाली मांओं के दरवाजे तक सूखा राशन पहुंचाया जा रहा है। हालांकि केरल ने यह सुनिश्चित किया है कि आंगनवाड़ी का कोई भी लाभार्थी भोजन बिना न रह जाए। यहां तक कि कोरोनावायरस के समय कोई भूखा न रह जाए। सरकार ने हर गरीब के घर तक मुफ्त में खाद्य पहुंचाने का आदेश दिया है।
केरल में कुदुम्बश्री कार्यकर्ताओं की मदद से स्थानीय प्रशासन के द्वारा सामुदायिक किचन की भी शुरुआत की गई है। इस रसोई का मुख्य मकसद ऐसे श्रमिकों को सस्ते में पका हुआ भोजन देना है जो राज्य में इधर-उधर भटक रहे हैं। सामुदायिक रसोई से कोई भी महज 20 रुपए में खाना खरीद कर खा सकता है। साथ ही सामुदायिक रसोई से 5 रुपए अतिरिक्त खर्च करके होम डिलीवरी का भी ऑर्डर दिया जा सकता है। केरल के वित्त मंत्री टीएम थॉमस इसाक ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान सरकार के साथ कुदुम्बश्री भूख के खिलाफ बेहतर लड़ाई लड़ रही हैं।
विकेंद्रीकृत व्यवस्था
महामारी से लड़ने के लिए उत्तराखंड में सबसे बेहतरीन विकेंद्रीकृत शासन का प्रयास देखा जा सकता है। यह राज्य अपने मजबूत स्थानीय निकायों के लिए जाना जाता है, यहां ढूंढा ब्लॉक के धनेती गांव में ग्राम प्रधान हर्ष बहुगुणा जी-जान से काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन की घोषणा के तुरंत बाद ही सरकार ने हमें घर लौटने वाले सभी परिवारों की स्क्रीनिंग करने व संदिग्ध लोगों को एकांत में भेजने के लिए कहा था। वह बताते हैं कि उस वक्त मास्क, दस्ताने और सेनिटाइजर के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया था। हमने जो दर्जी खाली बैठे थे, उन्हें जुटाया और उनके जरिए कुछ ही दिनों के भीतर 600 से 700 मास्क तैयार कर दिए।
इन मास्क को आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के जरिए घर को वापस लौट के आए श्रमिकों के बीच बांटा गया। बहुगुणा ने उद्यान विभाग से कुछ सब्जियों जैसे टमाटर शिमला मिर्च और आलू के बीज भी हासिल किए गए हैं और वह गांव के युवाओं को उसकी बुआई के लिए बांट रहे हैं ताकि यदि लॉकडाउन बढ़े भी तो सब्जियों की कमी न पड़े और इन सब्जियों को बेचकर कमाई भी की जा सके। उत्तरकाशी जिले के भटवाड़ी ब्लॉक की प्रमुख विनीता रावत ने उनके परिवार के स्वामित्व वाले होटल को क्वारंटाइन सेंटर में बदलने की पेशकश की है। गांव प्रमुख के अलावा महिलाओं के स्वयं सहायता समूह भी मदद कर रहे हैं।
देहरादून के साहसपुर ब्लॉक में शक्ति स्वयंसेवा समूह के संस्थापक गीता मौर्या सरकार के पोषण अभियान के तहत ब्लॉक के 43 आंगनवाड़ी केंद्रों से घर-घर राशन पहुंचाने का अभियान चला रही हैं। लॉकडाउन के बाद सरकार ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से कहा है कि वह लाभार्थियों को अग्रिम 3 महीने का राशन मुहैया कराएं। गीता मौर्या बताती हैं कि घर-घर राशन पहुंचाने वाले कार्यकर्ताओं की सुरक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है। हमने 3,000 डबल और ट्रिपल लेयर वाले मास्क तैयार किए हैं जिन्हें हम आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के जरिए घर-घर राशन पैकेट के साथ बांट रहे हैं।
इसके अलावा हमारे क्षेत्र में मजदूरों को भी यह मास्क दिया जा रहा है। सभावाला में समतल करने वाले मजदूरों को चावल बांटने के लिए स्वयं सहायता समूह अब राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के परामर्श में है। कोरोनावायरस ने पहाड़ी राज्यों को भी अपने शिकंजे में ले लिया। वहीं मास्क दस्ताने और सेनिटाइजर्स की भी मांग वहां काफी ज्यादा बढ़ गई। गीता मौर्या ने बताया कि कुछ दिन पहले दूसरे जिलों से मास्क बनाने वाले कपड़े इलास्टिक और धागों की मांग की गई थी। यह दिल को सुकून देने वाला था कि ब्लॉक विकास अधिकारी खुद अपने वाहन से यह सारा सामान लेने आए थे। इस वक्त वे दूसरे गांव की महिलाओं को मास्क बनाने की वर्चुअल ट्रेनिंग दे रही हैं।
जीवन-मृत्यु का खेल
कोरोना संक्रमण के इस दौर में जहां एक ओर लोग घरों में खुद को महफूज किए हुए हैं वहीं कुछ ऐसे भी जीवट हैं जो असहाय लोगों की सेवा में दिन-रात अथक मेहनत कर रहे हैं। इन्हीं में एक नाम है 25 वर्षीय राहुल का। सुबह हो या शाम राहुल अकेले ही पूर्वी दिल्ली के दो से तीन बड़े पक्के रैनबसेरों में पहुंचकर साफ-सफाई का काम पूरा करते हैं। इन दिनों 200 से अधिक मजदूरों को खाना परोसने में मदद भी करवाते हैं। बिना किसी सुरक्षा और विशेष प्रशिक्षण के वह पूरे मनोयोग से अपने काम में डटे हुए हैं।
नियम के मुताबिक हर रैनबसेरे के पास एक सफाईकर्मी होना चाहिए। कोरोना संक्रमण के डर और तनख्वाह नहीं मिलने के कारण रैनबसेरों में सफाईकर्मियों की कमी बनी हुई है। दिल्ली सरकार ने 23 मार्च को एक पत्र जारी कर रैनबसेरों में सफाईकर्मियों की नियुक्ति को लेकर आदेश भी जारी किया है, हालांकि अभी तक सफाईकर्मी आए नहीं हैं। राहुल का अस्थायी ठिकाना पूर्वी दिल्ली में गाजीपुर थोक पेपर मार्केट में स्थित सबसे बड़ा रैनबसेरा है। वह डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “मैं 24 घंटे यहीं रहता हूं। मुझे पता है कि कोरोना संक्रमण फैला हुआ है लेकिन क्या करूं? पेट का सवाल है। मैं अपने काम को पूरे मन से कर रहा हूं।” मूलरूप से बिहार के सीतामढ़ी जिला मुख्यालय से 20-25 किलोमीटर दूर अक्टा बाजार में उनका पुश्तैनी घर है। राहुल बताते हैं कि वह 11 वर्ष के थे, जब उनके माता-पिता का देहांत हो गया। 2011 में एक गांव वाले की मदद से दिल्ली आ गए। कुछ वर्ष चाय की दुकानों पर काम किया फिर सफाई का काम करने लगे। 2013 में उन्हें अक्षरधाम रैनबसेरे का काम मिला। 7,000 रुपए प्रतिमाह वेतन के साथ वह इसी काम में जुटे हुए हैं। कोरोना संक्रमण के दौरान दिल्ली से पलायन करने वाले मजदूरों को इन्हीं रैनबसेरों में रुकवाया गया है। इन रैनबसेरों में आरसीसी, पोर्टा केबिन, अस्थायी भवन, टेंट आदि शामिल हैं। कोरोना संक्रमण में एक मीटर की दूरी का खयाल करते हुए इनमें 23,478 लोग रुक सकते हैं। करीब 7852 लोग अभी रैनबसेरों में रुके हैं।
पूर्वी दिल्ली में गाजीपुर थोक पेपर मार्केट समेत करीब 13 रैनबसेरों की देखभाल का जिम्मा 63 वर्षीय रमेश कुमार शर्मा पर है। राजस्थान में जयपुर के रहने वाले रमेश कुमार ने बताया कि वह सुपरवाइजर हैं और उनके अधीन करीब 30 लोग इन रैनबसेरों पर काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हममे से ज्यादातर लोग जिदंगी और मौत का खेल खेल रहे हैं। क्योंकि हम बाहर से आने वाले इतने लोगों के बीच काम कर रहे हैं। कब किस व्यक्ति से हममे कोरोना संक्रमण हो जाए क्या मालूम? वह बताते हैं, “हमें किसी तरह का बीमा नहीं मिलेगा। हम इसकी मांग भी कर रहे हैं। यदि कोई ऐसी विपदा होती है तो हमारा परिवार क्या करेगा। हम अपने घर भी नहीं जा पा रहे। इन रैनबसेरों की देखभाल करने वालों में 90 फीसदी लोग दूसरे राज्यों से हैं। इसके बावजूद किसी पर कर्ज है तो किसी को नौकरी खोने का डर है। सभी जोखिम में भी काम कर रहे हैं।” वह आगे कहते हैं कि कोई चिकित्सक या जांच व्यवस्था इन मजदूरों के लिए उपलब्ध नहीं है। हमें भी भय है लेकिन दायित्व भी है। हम इसे निभा रहे हैं, अगर हमारे लिए भी सरकारों ने कुछ सोचा तो बेहतर होगा। हमें तनख्वाह एक गैर सरकारी संस्था की तरफ से मिलती है। दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड ने यह काम गैर सरकारी संस्थाओं के बीच ही बांट रखा है। इन संस्थाओं ने हमें नियुक्त किया है।
रैनबसेरे में काम करने वाले ज्यादातर लोगों के पास कोरोना संक्रमण से बचाव का बुनियादी उपकरण नहीं है। इनके पास सर्जिकल मास्क है जो एक या दो दिन में खराब हो जाता है। इसके अलावा खाना परोसने से लेकर तमाम मुश्किलों का सामना इन्हें खुद रैनबसेरों में करना पड़ रहा है। कई रैनबसेरों में कर्मियों को ठेका वाले एनजीओ की तरफ से तनख्वाह भी नहीं दी जाती। ये गुमनाम हीरों हैं जो कोरोना संक्रमण की लड़ाई चुपचाप और भविष्य का अंधकार लेकर लड़ रहे हैं।
आशाओं में निराशासामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता की जिम्मेदारी संभाल रहीं आशा वर्करों की जिंदगी अनिश्चितताओं से भरी हैएक आशा वर्कर की नियुक्ति प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्य सेविका के रूप में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत होती है। उन पर 43 कामों की जिम्मेदारी होती है जैसे, ड्रग रेजिस्टेंट टीबी मरीजों को दवाएं देना, ओआरएस (ओरल डिहाइड्रेशन सॉल्यूशन) पैकेट का वितरण आदि। इन आशा वर्करों की मौजूदगी उन स्थानों पर भी होती है जहां सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का अस्तित्व नहीं होता। इतना कुछ करने के बावजूद उन्हें बहुत कम भुगतान किया जाता है। यह भुगतान दिहाड़ी मजदूर से भी कम होता है। वह हर काम के लिए एक निर्धारित मेहनताना प्राप्त करती हैं, जैसे संस्थानिक प्रसव पर 300 रुपए, परिवार नियोजन के लिए 150 रुपए और टीकाकरण के दौरे के लिए 100 रुपए। यह आय भी बड़ी अनिश्चित होती है। कई राज्यों में आशा वर्करों का बकाया दो साल से लटका है। वह अपनी मांगों, बकाए के भुगतान, श्रम कानून के तहत निर्धारित वेतन और भविष्य निधि व वृद्धावस्था पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लिए समय-समय पर प्रदर्शन भी करती रहती हैं। ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ आंगनवाड़ी वर्कर्स एंड हेल्पर्स के महासचिव एआर सिंधु कहते हैं, “आशा वर्करों की ये मांगे महत्वूपर्ण हैं क्योंकि अधिकांश आशा वर्कर विधवा हैं या समाज के कमजोर तबके से ताल्लुक रखती हैं।” वह कहते हैं कि भले ही सरकार ने कोरोनावायरस से लड़ाई में योगदान देने के लिए 1,000 रुपए देने का आश्वासन दिया है, लेकिन वे अपने नियमित काम छूटने पर दूसरी आय से वंचित रह जाएंगी। वे बिना किसी प्रशिक्षण और रक्षात्मक उपकरणों के पहली रक्षा पंक्ति की तरह काम कर रही हैं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि उनके बीमार पड़ने पर सरकार उनके स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च उठाएगी भी या नहीं। |