स्वास्थ्य

पहाड़ी बच्चों में ज्यादा है स्टंटिंग का खतरा

Lalit Maurya

क्या ऊंचाई और बच्चों में मौजूद स्टंटिंग के बीच कोई सम्बन्ध हो सकता है? हाल ही में आईएफपीआरआई और यूनिवर्सिटी ऑफ आदिस अबाबा द्वारा किये शोध से पता चला है कि ऊंचे इलाकों में रहने वाले बच्चों में स्टंटिंग की समस्या अधिक होती है। शोध के अनुसार ऊंचाई और कुपोषण के बीच गहरा नाता है। ऐसे में इस पर ध्यान देना जरुरी है। विशेषकर जब बात नीतियों की हो तो इन इलाकों के लिए बच्चों में कुपोषण पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है। गौरतलब है कि स्टंटिंग के शिकार बच्चों में उनकी कद-काठी अपनी उम्र के बच्चों से कम रह जाती है।

यह शोध जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जामा), पीडिएट्रिक्स में प्रकाशित हुआ है। जिसमें 59 देशों के 950,000 से अधिक बच्चों की ऊंचाई और पोषण से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है।

दुनिया भर में करीब 80 करोड़ लोग समुद्र तल से 1,500 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई पर रहते हैं। जिनकी करीब दो तिहाई आबादी एशिया और अफ्रीका में बसती है। जहां रहने वाले बच्चों में कुपोषण एक बड़ी समस्या है। हाल ही में जारी ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2020 के अनुसार दुनिया भर में 5 वर्ष से कम आयु के करीब 15 करोड़ बच्चे स्टंटिंग से ग्रस्त हैं।

इस शोध के शोधकर्ता और आईएफपीआरआई के सीनियर रिसर्च फेलो केले हिरवोने के अनुसार "यदि ऊंचाई में रहने वाले बच्चों में स्टंटिंग का स्तर ज्यादा है तो उसपर विशेष ध्यान देने की जरुरत है।"

शोध के अनुसार यहां तक की जो बच्चे आदर्श घरों में रहते हैं, उनमें भी पहाड़ी इलाकों में स्टंटिंग ज्यादा है। यहां आदर्श घरों का मतलब उन घरों से है जिनकी माताएं शिक्षित हैं, जिनके रहन सहन का स्तर ऊंचा है और उन तक स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतर पहुंच है। यह मान्यता है कि यदि दुनिया भर में बच्चों को यह आदर्श परिस्थितियां मिल रही हो तो सभी बच्चों में विकास एक जैसा होना चाहिए।

क्यों पड़ता है बच्चों के विकास पर ऊंचाई का असर

आंकड़ों में यह बात साफ़ तौर पर सामने आई है कि दुनिया भर में समुद्र तल से 500 मीटर से कम ऊंचाई पर रहने वाले बच्चों में एक जैसा विकास देखा गया है। पर यदि उससे ज्यादा ऊंचाई पर रहने वाले बच्चों को देखें तो उनमें विकास अलग तरीके से हुआ है। शोध के अनुसार चूंकि सभी बच्चों को बेहतर सुविधाएं दी गई थी इसलिए उनमें स्टंटिंग के लिए आहार पोषण की कमी और बीमारी को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता।

अध्ययन के अनुसार ऊंचाई का सबसे ज्यादा असर बच्चे के जन्म से पहले और उसके तुरंत बाद पड़ता है। ऊंचाई पर गर्भावस्था के समय क्रोनिक हाइपोक्सिया यानी ऑक्सीजन की कमी मुख्य समस्या है। जिससे भ्रूण के विकास पर असर पड़ता है। जिसका असर बाद में बच्चे के विकास पर पड़ता है।

हालांकि कई पीढ़ियों से जो लोग ऊंचे पहाड़ी इलाकों में रह रहे हैं उनमें यह आनुवांशिक अनुकूलन हो सकता है, लेकिन यह उन महिलाओं पर लागु नहीं होता जो कुछ पीढ़ियों से ही उन ऊंचे इलाकों में रह रही हैं। इसके साथ ही ऊंचे इलाकों में रहने वाली महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान गर्भाशय की धमनियां रक्त प्रवाह के माध्यम से आंशिक रूप से हाइपोक्सिया क ी स्थिति का सामना करने के काबिल बन जाती हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार लेकिन इस तरह के अनुकूलन को विकसित होने में एक सदी से अधिक समय लग सकता है।

भारत के लिए भी एक बड़ी समस्या है कुपोषण

भारत में जहां 15 से 49 वर्ष की आयु की हर दो में से एक महिला खून की कमी से ग्रस्त है। वहीँ पांच वर्ष या उससे कम आयु के हर तीन बच्चों में से एक स्टंटिंग का शिकार है। जबकि इसी आयु वर्ग के हर पांच बच्चों में से एक वेस्टिंग (उंचाई के अनुपात में वजन कम होना) से ग्रस्त है। उपर से इसमें भी देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच असमानता है। आंकड़ों के अनुसार शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में स्टंटिंग 10.1 फीसदी ज्यादा है। 

इस शोध से जुड़े शोधकर्ता हिरोवेन और बे के अनुसार केवल ऊंचाई के कारण बच्चों के विकास पर पड़ रहे असर के लिए डब्ल्यूएचओ के विकास मानकों  को नहीं बदला जा सकता। इसके लिए गर्भावस्था के समय पोषण और स्वास्थ्य सम्बन्धी देखभाल को वरीयता देनी होगी। शोधकर्ता बे के अनुसार यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है जो ऊंचाई, हाइपोक्सिया और भ्रूण के विकास के बीच के सम्बन्ध को दिखाता है। यदि हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित पोषण  सम्बन्धी लक्ष्यों को हासिल करना है तो इसपर ध्यान देने की जरुरत है।