कोविड-19 के खिलाफ बहुत कम देशों ने अब तक वैक्सीन बनाई है। भारत भी उनमें से एक है। इस नाते, भारत को अपनी इस उपलब्धि का जश्न मनाना चाहिए था। इसके बजाय, निजी वैक्सीन कंपनी भारत बायोटेक के साथ साझेदारी में इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा विकसित कोवैक्सिन पर विवाद है। सबसे खतरनाक पहलू तो ये है कि वैक्सीन पर बौद्धिक संपदा (आईपी) के स्वामित्व को ले कर अस्पष्टता अभी भी बनी हुई है। और आईसीएमआर के बयानों ने केवल भ्रम को और अधिक बढ़ाया ही है। भारत बायोटेक ने इस विषय पर खामोश अख्तियार करने का रास्ता ही चुना है।
भारत में सार्स-सीओवी-2 पर हुए रिसर्च की क्रोनोलॉजी (कालक्रम) और कोवैक्सीन का विकास से एक सवाल पैदा होता है कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र की प्रयोगशालाओं द्वारा महत्वपूर्ण कार्य (रिसर्च) न किए गए होते, तो क्या भारत बायोटेक इतने कम समय में वैक्सीन विकसित कर सकता था?
घातक कोविड-19 महामारी से लड़ने के लिए टीकों का विकास और उसकी व्यापक पहुंच के वैश्विक अभियान में, सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ये है कि सफल टीकों के विकास में सार्वजनिक धन की भूमिका क्या है? क्या निजी कंपनियों को जीवन रक्षक टीकों पर पेटेंट एकाधिकार देकर भारी मुनाफा कमाने की अनुमति दी जानी चाहिए, जबकि इन टीकों के विकास के लिए जरूरी धन करदाताओं का है और आवश्यक सूचनाएं सार्वजनिक अनुसंधान से निकल कर आई है?
कोवैक्सिन का मामला इसी तरह के सवाल को आगे करता है। लेकिन यहां मामला उलझा हुआ है। टीके पर अधिकार किसके पास हैं, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है। जब वैज्ञानिक बिरादरी, कानूनी विशेषज्ञों और मीडिया ने कोवैक्सिन की फंडिंग और आईपी अधिकार विवरण की मांग सार्वजनिक करने की मांग की, तब इस पर पहला सार्वजनिक खुलासा 3 मई को द हिंदू में किया गया था। हिंदू की रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्पाद आईपी "साझा" (शेयर्ड) है। आईसीएमआर के महानिदेशक बलराम भार्गव ने बताया कि सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत आईसीएमआर और भारत बायोटेक के बीच एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) किया गया था और आईपी को "साझा" किया गया था।
अखबार को एक ईमेल जवाब में, भार्गव ने खुलासा किया कि शीर्ष स्वास्थ्य अनुसंधान निकाय को भारत बायोटेक शुद्ध बिक्री (नेट सेल्स) पर रॉयल्टी भुगतान करेगा। उन्होंने बताया कि यह एक संयुक्त उपक्रम था और वैक्सीन बॉक्स पर आईसीएमआर और इसके नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) का नाम छपा होगा। एनआईवी आईसीएमआर का एक प्रमुख संस्थान है और दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र के लिए और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा नामित एक रेफरेंस लैब है।
हालांकि, कुछ ही दिनों के भीतर द हिंदू बिजनेसलाइन में एक रिपोर्ट आई, जिसमें कुछ अलग बात कही गई थी। घटनाक्रम की जानकारी रखने वाले एक अनाम शीर्ष अधिकारी ने समाचार पत्र के हवाले से कहा कि भारत बायोटेक के साथ अनुबंध ओपन एंडेड था और आईसीएमआर अन्य कंपनियों के साथ टेक्नोलॉजी शेयर (प्रौद्योगिकी साझा) करने के लिए स्वतंत्र था। यह भारत बायोटेक से 5 प्रतिशत रॉयल्टी पाने का हकदार था। ध्यान दें कि यहां “अनुबंध” शब्द का इस्तेमाल है। तो क्या यह कोविशील्ड वैक्सीन बनाने के लिए एस्ट्राजेनेका के साथ सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) के जैसा अनुबंध निर्माण समझौता (कॉंट्रैक्ट मैन्यूफैक्चरिंग एग्रीमेंट) था?
महामारी की दूसरी लहर के घातक फैलाव को देखते हुए, सरकार ने कोवैक्सिन बनाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के तीन वैक्सीन संस्थानों को इस कार्यक्रम में शामिल किया है। लेकिन अगर सरकार को अपनी मर्जी से लाइसेंस देने का अधिकार है, तो बड़ा सवाल यह है कि सिर्फ हाफकाइन को ही क्यों चुना जाए? यह शुरुआत में अधिकृत हुई एकमात्र कंपनी थी, जबकि देश की हर वैक्सीन कंपनी यह उत्पाद बना सकती है?
27 मई को कोवैक्सिन की कहानी में नवीनतम मोड़ आया, जब नीति आयोग ने भारत की वैक्सीन प्रक्रिया पर "मिथक" के खिलाफ एक प्रेस नोट जारी किया। नेशनल एक्सपर्ट ग्रुप ऑन वैक्सीन एडमिनिस्ट्रेशन फॉर कोविड-19 के सदस्य और अध्यक्ष विनोद पॉल द्वारा जारी इस प्रेस नोट में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा दूसरी लहर का अनुमान लगा पाने की विफलता के लिए की गई आलोचनाओं का गुस्से से जवाब दिया गया। इसमें कोवैक्सीन का भी जिक्र है। पॉल स्पष्ट रूप से कहते हैं, “केवल एक भारतीय कंपनी (भारत बायोटेक) है जिसके पास आईपी है।“ हालांकि, सरकार यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है कि तीन अन्य कंपनियां दिसंबर तक कोवैक्सिन का उत्पादन शुरू कर दें।
सवाल है कि सिर्फ तीन कंपनियां ही क्यों? जबकि भारत में टीकों की कमी है और टीकाकरण केंद्र निष्क्रिय बने हुए हैं। यह याद रखना चाहिए कि कोवैक्सिन आपूर्ति का सिर्फ 10 प्रतिशत हिस्सा ही है, जबकि बाकी का हिस्सा एसआईआई के कोविशील्ड से आता है।
कोवैक्सीन के विकास ने देश में वैक्सीन राष्ट्रवादियों (वैक्सीन नेशनलिस्ट), चीयरलीडिंग मीडिया और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं को खुराक दे दी थी। मई 2020 में आईसीएमआर ने एक पैराग्राफ के प्रेस नोट में सिर्फ इतना भर कहा था कि इसने एनआईवी, पुणे में आइसोलेटेड वायरस स्ट्रेन का उपयोग कर पूरी तरह से स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने के लिए भारत बायोटेक के साथ भागीदारी की है। यही स्ट्रेन सफलतापूर्वक भारत बायोटेक को दिया गया था।
अन्य सार्वजनिक अनुसंधान संस्थान भी हैं, जिन्होंने कोवैक्सिन निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसा ही एक है संस्थान है, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (आईआईसीटी)। यह वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की एक घटक प्रयोगशाला है। एगोनिस्ट मॉलीक्यूल के लिए सिंथेटिक रूट आईआईसीटी द्वारा विकसित तकनीक के कारण संभव हुआ था, जिससे भारत बायोटेक को उत्पादन का पैमाना बढ़ाने में मदद मिली। सस्ती कीमत और उच्चतम शुद्धता के साथ स्वदेशी केमिकल का उपयोग करने वाली तकनीक का महत्वपूर्ण योगदान था और भारत बायोटेक भी स्वीकार करता है कि कोवैक्सिन इसके बिना संभव नहीं होता। अब यह आश्चर्य की बात है कि सार्वजनिक संस्था द्वारा विकसित तकनीक एक निजी कंपनी को कैसे दे दी गई। क्या लाइसेंस शुल्क लिया गया या यह तकनीक भारत बायोटेक को मुफ्त में ही दे दी गई?
महामारी को रोकने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की प्रयोगशालाएं अनुसंधान के काम में सबसे आगे रही हैं। मई 2020 में, हैदराबाद की एक अन्य प्रमुख शोध संस्थान, सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी) ने घोषणा की कि उसने कोरोना वायरस को कल्चर कर लिया है। एक प्रेस नोट में इसने कहा है कि प्रयोगशाला में वायरस को कल्चर करने की क्षमता एक महत्वपूर्ण सफलता है, जो सीसीएमबी को वैक्सीन विकास की दिशा में काम करने और कोविड-19 से लड़ने के लिए संभावित दवाओं का परीक्षण करने में सक्षम बनाएगी।
यह सब देखते हुए आश्चर्य होता है कि क्यों भारत बायोटेक को कोवैक्सिन आईपी और वैक्सीन के निर्माण के लिए एक विशेष अनुबंध दिया गया था। निश्चित रूप से, देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट ने एक अलग दृष्टिकोण निर्मित किया? सुप्रीम कोर्ट को दिए हलफनामे में, आईसीएमआर ने कोवैक्सिन विकसित करने के लिए उठाए गए शोध कदमों और परियोजना पर खर्च हुए धन के बारे में बताया है। लेकिन भारत बायोटेक के साथ समझौता ज्ञापन की शर्तों का पूरा खुलासा सार्वजनिक जांच से बाहर है।
जब सीरोलॉजिस्ट महामारी की तीसरी लहर की चेतावनी दे रहे हैं, तब सरकार को इस बात पर स्पष्ट होना चाहिए कि खतरे से निपटने के लिए टीके के उत्पादन को कैसे बढ़ाया जाए। क्या इसे विश्व व्यापार संगठन से सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट की स्थिति में पेटेंट अधिकारों को खत्म करने की बात नहीं करनी चाहिए, ताकि कोवैक्सिन की तकनीक सबको मुफ्त मिल सके? या भारत एक सीमित दायरे में ही आत्मनिर्भर हो कर खुद को सिमटाए रखना चाहता है?