स्वास्थ्य

सूखे से बच्चों में बढ़ सकता है डायरिया संबंधी बीमारियों का खतरा?

बढ़ते तापमान के साथ जिस तरह से सूखे की गंभीरता बढ़ रही है वैज्ञानिकों को डर है उसका असर बच्चों में डायरिया के मामलों पर भी पड़ेगा

Lalit Maurya, Susan Chacko

डायरिया संबंधी बीमारियां एक ऐसा खतरा हैं जो हर साल लाखों बच्चों की जान ले लेती हैं। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी आंकड़ों को देखें तो इसकी वजह से 2019 में 3.7 लाख बच्चों को जान से हाथ धोना पड़ा था। इतना ही नहीं डायरिया पांच वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों की मौत का यह दूसरा सबसे बड़ा कारण है। वैश्विक स्तर पर देखें तो हर साल औसतन बच्चों में डायरिया के 170 करोड़ मामले सामने आते हैं।

देखा जाए तो आमतौर पर यह बीमारियां भारी बारिश और बाढ़ के बाद ज्यादा फैलती हैं। लेकिन क्या सूखे से भी इन बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। इस पर हाल ही में येल विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन किया है जिसके नतीजों से पता चला है कि उन बच्चों में अतिसार (डायरिया) की उच्च दर पाई गई थी, जो लंबे समय तक सूखे से गुजर रहे थे।

शोध के मुताबिक छह महीने तक सूखे का सामना करने से डायरिया का खतरा 5 फीसदी तक बढ़ जाता है। वहीं गंभीर सूखे की स्थिति में यह जोखिम 8 फीसदी तक बढ़ सकता है। यह सही है कि साफ पानी, स्वच्छता जैसे साबुन पानी की उपलब्धता डायरिया से सुरक्षा प्रदान करती है, लेकिन इसके बावजूद डायरिया पर सूखे के असर को पूरी तरह दूर नहीं किया जा सकता।

इतना ही नहीं शोध में यह भी सामने आया है कि जिन घरों में पानी के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है या जिनमें हाथ धोने के लिए पानी और साबुन की कमी है, उन घरों में हालात ज्यादा बदतर थे। हालांकि जिन घरों में पर्याप्त स्वच्छता थी उसके बावजूद सूखे के समय उसने डायरिया सम्बन्धी जोखिम की भरपाई नहीं की थी। इस अध्ययन के निष्कर्ष जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुए हैं।

देखा जाए तो इस शोध में जो निष्कर्ष सामने आए हैं चौंका देने वाले हैं लेकिन इसके साथ-साथ यह चिंता का भी विषय हैं, क्योंकि वैश्विक तापमान में होती वृद्धि के साथ-साथ सूखे की समस्या भी विक्राल रूप लेती जा रही है।

जलवायु में आते बदलावों के साथ कहीं ज्यादा विकराल हो जाएगी समस्या

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि तापमान में होती वृद्धि इसी तरह जारी रहती है तो भविष्य में स्थिति कहीं ज्यादा खराब हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) का अनुमान है 2050 तक डायरिया के कारण हर साल होने वाली 32,954 बच्चों की अतिरिक्त मौतों की वजह जलवायु में आता बदलाव होगा।

इस बारे में येल स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता काई चेन का कहना है कि, “आप डायरिया के जोखिम पर सूखे के प्रभाव को पूरी तरह से समाप्त नहीं कर सकते, विशेष रूप से ऐसे माहौल में जहां भविष्य में और अधिक सूखा पड़ेगा।“ ऐसे में उनके अनुसार हमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाने की जरुरत है।

सूखे और डायरिया के बीच संबंधों को बेहतर ढंग से समझने के लिए अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण और जलवायु सम्बन्धी आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इस शोध में 1990 से 2019 के दौरान निम्न और माध्यम आय वाले 51 देशों में किए 141 सर्वेक्षणों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है।

इसमें उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण अमेरिका और कैरिबियन देशों में रहने वाले पांच या उससे कम उम्र के 13.8 लाख बच्चों की स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियों को एकत्र किया गया था। शोध के मुताबिक सर्वे किए गए सभी 13.8 लाख बच्चों में 14.4 फीसदी बच्चे डायरिया से ग्रस्त थे। उनमें से भी 6 से 23 महीने की उम्र के बच्चों में इसका जोखिम सबसे ज्यादा था।

सर्वेक्षणों से पता चला है कि इन सभी देशों में नाइजर में मामलों के सामने आने की दर सबसे ज्यादा थी जो 36.4 फीसदी दर्ज की गई थी। इसके बाद बोलीविया में 25.1 फीसदी, लाइबेरिया में 23.8 फीसदी, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक में 22.7 फीसदी, बुरुंडी 21.4 फीसदी, मलावी में  20.7 फीसदी और हैती में 20.2 फीसदी दर्ज की गई थी।

शोध के मुताबिक केवल डायरिया से होने वाली मौतें ही अकेली समस्या नहीं हैं। जो बच्चे इस बीमारी से बचे जाते हैं उनकी वृद्धि और विकास पर भी इस बीमारी का व्यापक असर पड़ता है। इसके साथ-साथ वो बच्चे पुरानी बीमारियों के प्रति कहीं ज्यादा संवेदनशील हो सकते हैं।

देखा जाए तो सूखा जल स्रोतों में खतरनाक बैक्टीरिया और वायरस की मात्रा को बढ़ा सकता है। इसके अलावा, जब पानी की कमी होती है, तो व्यक्तिगत स्वच्छता के स्थान पर पीने के पानी की प्राथमिकता दी जाती है।

गौरतलब है कि आज भी निम्न और मध्यम आय वाले देशों में लोगों को पानी तक पहुंचने में कई घंटों का समय तक लग सकता है। ऐसे में यह जरुरी है कि इस बीमारी से निपटने के लिए सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता तक पहुंच जैसे सरल उपायों को बढ़ावा दिया जाए। इसके साथ ही जलवायु में आते बदलावों से भी निपटना जरुरी है।