स्वास्थ्य

भारत में फैल रहा बफेलोपॉक्स, विशेषज्ञों की चेतावनी पर ध्यान देने की जरूरत

Taran Deol

1980 में दुनिया में चेचक का खात्मा किया जाना, निश्चित तौर पर चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के इतिहास में एक मील का पत्थर था। इसके पीछे व्यापक तौर पर किए जाने वाले टीकाकरण की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जो बाद में जारी नहीं रह सका।

अब जबकि चेचक, इतिहास की चीज हो चुकी है, इसके टीके के विकास के चिंताजनक परिणाम निकले हैं। जीनोम डाटा ने यह दर्शाया है कि किस तरह भारत में चेचक के टीके का उत्पादन करने के लिए भैंसों को दिया जाने वाला जीवित वायरस समय के साथ उनमें बफेलोपॉक्स के रूप में विकसित हुआ। वैश्विक स्तर पर 1934 में भारत में बफेलोपॉक्स का पहला मामला दर्ज किया गया था।

इस वायरस के पहले नमूने को 1967 में अलग किया गया था। उसी साल विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की पशुजनित रोगों पर संयुक्त विशेषज्ञ समिति ने इसे एक महत्वपूर्ण पशुजन्य रोग घोषित किया था।

नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन (एनसीबीआई) में प्रकाशित 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि उसके चार दशक बाद यह बीमारी ‘ उभरती हुई संक्रामक पशुजन्य बीमारी बन गई, जिससे दूध का काम करने वाले लोग प्रभावित होते थे।’ घरेलू भैंसों, उनके समूहों और गायों में होने वाली इस बीमारी का शिकार लोगों में मृत्यु-दर काफी ज्यादा यानी 80 फीसदी थी।

कई अध्ययनों में यह पाया गया कि किस तरह भारत के अलग-अलग हिस्सों में बफेलोपॉक्स के मध्यम और गंभीर केस दर्ज किए गए। दिसंबर 1985 और फरवरी 1987 के बीच, महाराष्ट्र के पांच जिलों से बफेलोपॉक्स के केस सामने आए।

1992 से 1996 के बीच राज्य के तीन जिलों से इसके कुछ केस सामने आए। 2008-2009 में, सोलापुर जिले में मनुष्यों में सात और भैंस में बफेलोपॉक्स का एक और कोल्हापुर जिले में मनुष्यों में 14 केस पाए गए। 2018 में इसी राज्य के धुले जिले में 28 लोगों में यह पाया गया, इनमें ज्यादातर दूधिए थे, जिनका भैंसों के साथ निकट संपर्क रहता था।

बारह भैंसों और चार गायों में भी  बफेलोपॉक्स का वायरस पाया गया था। अगस्त 2020 में क्लिनिकल डर्मेटोलॉजी रिव्यू में प्रकाशित अध्ययन ( जिसमें धुले जिले में केस पाए गए थे ) के लेखकों के मुताबिक, ‘हाल के रुझान बताते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में बफेलोपॉक्स के शिकार लोगों की बढ़ती संख्या दर्ज की जा रही है, लेकिन लोगों में इस बीमारी के निदान, उपचार और इससे बचावों के उपायों को लेकर जागरुकता बहुत कम है।’

धुले जिले के 28 केसों में 23 लोग 15 से 40 की उम्र के बीच के थे, तीन लोग ऐसे थे, जिनकी उम्र 40 से ज्यादा थी, जबकि दो 15 साल से कम उम्र के ऐसे बच्चे थे, जिनका दूध के काम से या संक्रमित भैसों से कोई सीधा सपंर्क नहीं था। ऐसे बच्चों में बफेलोपॉक्स का होना, जिनका दूध से कोई सीधा संपर्क नहीं था, इस बीमारी का एक असामान्य गुण था।

इसके अलावा त्वचा, आंखों व चेहरों पर घावों का उभरना और बढ़ना भी अजीब था, क्योंकि इसमें आमतौर पर, घाव हाथों और अग्रभागों पर दिखाई देते हैं। अध्ययन के लेखकों के मुताबिक, ‘संक्रमित परिवार के सदस्यों या अन्य करीबी संपर्कों के माध्यम से और अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों में आंखों और चेहरे पर घावों का होना, वायरस के बढ़ी त्रीवता का संकेत हो सकता है।’

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, ‘पशुजन्य संक्रमणों का केवल यह मतलब नहीं हैं कि बफेलोपॉक्स का वायरस, पशुओं से इंसानों में पहुंच सकता है। इसका अर्थ यह है कि ऐसा संक्रमण प्रयोगशाला में संक्रमित पशुओं से या सुईं आदि से होने वाली असावधानी से भी हो सकता है।’

डब्ल्यूएचओ ने सितंबर 2020 में भारत में एक वैक्सीनिया वायरस का मामला तब दर्ज किया था, जब एक जैव-सुरक्षा स्तर 2 (बीएसएल -2) प्रयोगशाला में काम कर रहे एक डॉक्टरेट छात्र ने प्रयोगशाला में हुई दुर्घटना के बाद अपने हाथ पर एक छोटे से दाने की सूचना दी थी।

वैक्सीनिया वायरस (वीएसीवी) ऑर्थोपॉक्सवायरस परिवार से संबंधित है, जो बफेलोपॉक्स का करीबी वैरिएंट है। डॉक्टरेट छात्र ने चेचक का टीका नहीं लगवाया था, क्योंकि 1970 के दशक के अंत तक यह बंद कर दिया गया था। उसके शरीर में सूजन और दर्द बढ़ता गया और नौंवे दिन उसे बुखार आ गया जबकि दाने उसके हाथ के अग्रभाग तक फैल गए थे।

दसवें दिन उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा और एंटीवायरल कोर्स पूरा होने के बाद 14वें दिन उसे छुट्टी दी गई। प्रयोगशाला में हुई दुर्घटना के बाद बफेलोपॉक्स का एक और केस 2014 में हरियाणा के हिसार में दर्ज किया गया था।

विशेषज्ञों ने चेतवानी दी है कि वीएसीवी से संबंधित वायरस मनुष्यों और इंसानों में फिर से उभर रहे हैं। उन्होंने 2019 में एनसीबीआई में प्रकाशित एक अध्ययन का हवाला दिया, जिसमें बताया गया कि बफेलोपॉक्स के भारत में फैलने की आशंका है।

अध्ययन में इसे जैव-सुरक्षा जोखिम समूह-2 के तहत वर्गीकृत किया गया है यानी इसमें व्यक्तिगत जोखिम मध्यम-स्तर का है जबकि सामुदायिक जोखिम कम स्तर का। जीका वायरस, डेंगू, जापानी इंसेफेलाइटिस, रूबेला और चिकनपॉक्स अन्य बीमारियां हैं, जिन्हें एक ही समूह में वर्गीकृत किया गया है।

भारत में बफेलोपॉक्स का बढ़ता संक्रमण, विकासपरक जीव-विज्ञान को समझने की बढ़ती जरूरत बताता है। एनसीबीआई में अगस्त 2020 में प्रकाशित एक अध्ययन में दलील दी गई है कि इसका संक्रमण, ‘यह भी दर्शाता है कि मानव-जाति अप्रत्याशित स्रोतों से होने वाले वायरल रोगजनकों के उभरने और उनके दोबारा उभरने के प्रति कितनी ज्यादा संवेदनशील है।

अर्थोपोक्सवाइरस ( एक विषाणु ) का संक्रमण, दुनिया के कई हिस्सों में बढ़ रहा है। बफेलोपॉक्स, एशिया में बढ़ रहा है तो मंकीपॉक्स, पूर्वी और मध्य अफ्रीका में और नॉवेल आर्थोपॉक्स जार्जिया, अलास्का और इटली में। इसंका मौजूदा प्रकोप भौगोलिक तौर पर पांच दशकों में सबसे ज्यादा व्यापक है। इसका उभरना ज्यादा बड़ी खतरे की घंटी इसलिए है क्योंकि दुनिया की बड़ी आबादी इसके टीके के प्रति उदासीन है।