मैं बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में बोचहा प्रखंड में था। वहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रभारी डॉक्टर ने बुखार मापने के लिए थर्मामीटर मांग लिया। मैं दंग था कि डॉक्टर के पास बुनियादी उपकरण नहीं है। यह दास्तान पटना विश्वविद्यालय के छात्र राजा रवि वर्मा ने सुनाई। चमकी बुखार के दौरान प्रभावित इलाकों में जागरुकता फैलाने के साथ स्वास्थ्य जांच और ग्लूकोज जैसे सामान बांट रहे थे। राजा रवि चमकी बुखार के दौरान पत्रकारों और छात्रों द्वारा चलाये जा रहे जागरुकता अभियान का हिस्सा थे।
उन्होंने बताया कि जब वे मुजफ्फरपुर के बोचहा प्रखंड में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे तो वहां के प्रभारी चिकित्सक ने कहा कि उनका थर्मामीटर टूट गया है और फिलहाल अस्पताल में मरीजों का बुखार मापने के लिए कोई साधन नहीं है। इसके बाद उन्हें थर्मामीटर दिया गया। यह सिर्फ एक वाकया है जो बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं के खस्ताहाल की बानगी बताता है। हर पीएचसी में बने रोगी कल्याण समिति के पास ठीक-ठाक आकस्मिक फंड होता है कि वे ऐसे जरूरी चीजों का इंतजाम कर सकें, मगर बिहार के ज्यादातर अस्पतालों में संसाधनों और स्वास्थ्य कर्मियों का घोर अभाव है।
नीति आयोग द्वारा 25 जून को जारी स्वास्थ्य सूचकांक,2019 भी इस बात की पुष्टि करता है। दो वर्ष पर जारी किया जाने वाले इस सूचकांक के मुताबिक 21 बड़े राज्यों की स्वास्थ्य दशा में सबसे खराब स्थितियों में बिहार भी शामिल है। सूचकांक में बिहार 20वें पायदान पर है, जबकि इससे पहले 2017 में जारी किए गए स्वास्थ्य सूचकांक में वह 19वें पायदान पर था। सूचकांक से स्पष्ट है कि बिहार की स्वास्थ्य दशा सुधरने के बजाए खराब हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक संसाधन और स्वास्थ्य कर्मियों की कमी बिहार के स्वास्थ्य क्षेत्र में पिछड़ेपन की सबसे बड़ी वजह है। अब जैसे ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं का जायजा लिया जाये तो मालूम होता है कि राज्य में पंचायत स्तर के स्वास्थ्य उप केंद्र में एएनएम के 59.5 फीसदी पद खाली हैं। इस मानक में इसके बाद कर्नाटक आता है, जहां 33.4 फीसदी पद रिक्त हैं। ऐसे में यह समझा जा सकता है कि गांव के स्तर पर राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति क्या होगी। राज्य के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में भी स्टाफ नर्स के 50.7 फीसदी पद खाली हैं।
राज्य में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य अधिकारी के रिक्त पदों को भरने की दिशा में जरूर काम हुआ है। साल 2015-16 में 63.6 फीसदी पद रिक्त थे, 2017-18 में यह आंकड़ा 34.1 फीसदी रह गया है। लेकिन जिला स्तर के अस्पतालों में विशेषज्ञ चिकित्सकों के 59.7 फीसदी पद अभी भी रिक्त हैं। यहां तय मानकों के मुताबिक 15.4 फीसदी रेफरल यूनिट ही सक्रिय हैं। राज्य का सबसे बुरा प्रदर्शन केंद्रीय सहायता को राज्य के खजाने से क्रियान्वयन एजेंसी तक पहुंचाने में है। यहां पटना से अस्पतालों तक फंड पहुंचने में औसतन 191 दिनों का वक्त लग जाता है। यह स्थिति पिछले एक साल में बिगड़ी है। 2015-16 में फंड महज 40 दिनों में अस्पतालों तक पहुंच जाता था।
इन मानकों को देख कर आसानी से समझा जा सकता है कि इस साल चमकी बुखार को लेकर चलाये जाने वाले जागरूकता अभियान के संचालन में क्यों लापरवाही हो गयी। जब इस बावत राज्य के वेक्टर बोर्न डिजीज प्रोग्राम के शीर्ष अधिकारी से बात की गयी तो उन्होंने अपना नाम उल्लेख करने से मना कर दिया और बताया कि हमने 7.5 लाख पंफ्लेट बंटवाये हैं, गांव-गांव में ऑडियो मैसेज लाउडस्पीकर से चलवाये गये हैं। अब अगर लोग पढ़ नहीं रहे, सुन नहीं रहे तो हमारी क्या गलती। जबकि इस साल जमीन पर जागरुकता अभियान चला रहे पत्रकार और छात्रों का समूह कहता है कि इस रोग को लेकर जागरुकता की बेहद कमी है। गांव में ही नहीं, पीएचसी तक में झाड़-फूंक का बोलबाला है। आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता तक में जागरूकता की कमी है। यह टीम 70 से अधिक गांवों में गयी, कहीं उन्हें किसी ग्रामीण ने नहीं बताया कि सरकार की ओर से कोई जागरूकता अभियान चलाया गया था।
स्वास्थ्य विभाग की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा उदाहरण बीती रात मोतीहारी के सदर अस्पताल में मिला जब आकस्मिक विभाग के चिकित्सक ने चमकी बुखार से तड़प रहे बच्चे को भर्ती करने से इनकार कर दिया और अगले दिन आकर ओपीडी में दिखाने कहा। बच्चे के परिजनों को मजबूरन निजी चिकित्सक की शरण में जाना पड़ा। बाद में इस बारे में जब पूर्वी चंपारण के सिविल सर्जन से बात की गयी तो उन्होंने कहा कि हमारे पास चमकी बुखार के लिए पीकू वार्ड है, जिसमें इस सीजन में 31 बच्चे भर्ती किये गये हैं। यहां अब तक सिर्फ एक बच्चे की मौत हुई और हमने सिर्फ पांच बच्चों को रेफर किया है। आकस्मिक विभाग के चिकित्सक ने बच्चे को क्यों भर्ती नहीं किया और क्यों ओपीडी में आने कहा, इसका जवाब अस्पताल प्रबंधक बता सकते हैं।