बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के जिलों में पिछले 17 दिनों से जारी एइएस के प्रकोप की बीच मंगलवार को पहली दफा राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हालात का जायजा लेने मुजफ्फरपुर के एसकेएमसीएच अस्पताल पहुंचे। वहां से लौट कर उन्होंने जानकारी दी कि वे 610 बेड वाले इस अस्पताल में बेड की संख्या बढ़ा कर 2500 करने जा रहे हैं। पिछले 17-18 दिनों में 140 से अधिक बच्चों की मौत के बीच यह खबर लोगों के गुस्से को थोड़ा कम तो कर सकती है, मगर क्या एसकेएमसीएच में बेड की संख्या बढ़ाने से इस जानलेवा बीमारी को काबू करने में कोई सहायता मिल सकती है?
स्वास्थ्य विशेषज्ञ और जानकार बताते हैं कि इस रोग को काबू करने के लिए एसकेएमसीएच में बेड की संख्या बढ़ाने के बदले ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य उपकेंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और आंगनबाड़ी की स्थिति को मजबूत करने की जरूरत है।
बिहार बाल संरक्षण आयोग के पूर्व सदस्य और मुजफ्फरपुर में संक्रामक रोग के विशेषज्ञ चिकित्सक डॉ. निशींद्र किंजिल्क कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में इस रोग का अध्ययन करके की वजह से मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं, कि यह रोग इसलिए जानलेवा हो जाता है क्योंकि मरीज के परिजनों का भरोसा सबसे अधिक एसकेएमसीएच पर है और वे स्थिति चिंताजनक होने पर सीधे एसकेएमसीएच भागते हैं, यहां आने और अत्यधिक भीड़भाड़ के कारण इलाज शुरू होने में काफी वक्त लग जाता है, जबकि ऐसे मरीजों के पास मुश्किल से छह से आठ घंटे का वक्त होता है। यह इलाज प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर भी हो सकता है और स्वास्थ्य उपकेंद्रों में प्राथमिक उपचार किया जा सकता है।
डॉ. निशींद्र कहते हैं, इस रोग में बुखार होने पर बुखार कम करने की दवा देना है और ओआरएस पिलाते रहना है। ज्यादातर बच्चे इस उपाय से ठीक हो जाते हैं। और यह काम एख प्रशिक्षित एएनएम भी कर सकती है। मगर इस इलाके में इन केंद्रों की स्थिति बहुत बुरी है, इसलिए मरीजों को सीधे मुजफ्फरपुर लाना पड़ता है।
उनकी बात काफी हद तक सही है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के मानदंडों के अनुसार हर तीन से पांच हजार की आबादी पर स्वास्थ्य उपकेंद्र होना चाहिए, तीस हजार की आबादी पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और एक लाख की आबादी पर रेफरल अस्पताल। मगर इस इलाके में इन सुविधाओं के मामले में बड़ा गैप है। इससे संबंधित आंकड़े यह कहते हैं
एइएस प्रभावित जिलों में स्वास्थ्य सुविधाएं
इन आंकड़ों से जाहिर है कि इन इलाकों में मानदंडों के मुताबिक खास तौर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बड़ी कमी है, अगर ये समुचित मात्रा में हो तो इस रोग से मुकाबले में इसकी बड़ी भूमिका हो सकती है। मगर सरकार बड़े अस्पतालों के विकास पर तो खूब पैसा खर्च करते है, ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं को विकसित करने में रुचि नहीं लेती। डॉ. किंजल्क कहते हैं, एक दिक्कत इन इलाकों के अस्पतालों में डॉक्टरों का नहीं पहुंचना भी है, जिसके कारण क्षेत्र के लोगों में इन अस्पतालों के प्रति भरोसा नहीं जगता और वे सीधे एसकेएमसीएच भागते हैं। इसलिए सरकार को पहले इन ग्रामीण स्वास्थ्य संरचनाओं का विकास करना चाहिए और यहां डॉक्टरों की उपस्थिति कड़ाई से सुनिश्चित करनी चाहिए।
दूसरी समस्या इस इलाके में कुपोषण का प्रकोप है। इस रोग से प्रभावित ज्यादातर जिले पोषण की रैंकिंग में देश में आखिरी तीस जिलों में हैं। यह प्रमाणित हो चुका है कि इस रोग को बढ़ाने में कुपोषण की बड़ी भूमिका है। मुजफ्फरपुर के शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ अरुण साहा कहते हैं कि हमने पाया है, जिस तरह आम बच्चों के लिवर में ग्लूकोज संरक्षित होता है, कुपोषित बच्चों के लिवर में वह नहीं होता। इसलिए आम बच्चे अगर हाइपो ग्लूकेमिया का शिकार होते हैं तो उनके लिवर में संरक्षित ग्लूकोज, जिसे हम ग्लाइकोजीन फैक्टर कहते हैं, वह उनके शुगर लेवल को स्टैबलाइज कर देता है और उन्हें बचा लेता है, मगर कुपोषित बच्चे आसानी से इसका शिकार हो जाते हैं।
एइएस प्रभावित जिलों में 5 साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण की दर
मगर कुपोषण को दूर करने के लिए सरकारी प्रयास नाकाफी हैं। इसे दूर करने के लिए आंगनबाड़ी जैसी संस्था की शुरुआत की गयी थी। मगर इस क्षेत्र में ज्यादातर आंगनबाड़ी केंद्रों के पास अपने भवन नहीं हैं, लिहाजा वहां आधी-अधूरी सुविधाएं मिलती हैं। सीतामढ़ी में आंगनबाड़ी केंद्रों के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नागेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं कि कई बार तीन-तीन महीनों के लिए सरकार की तरफ से पोषाहार की आपूर्ति बंद कर दी जाती है। इसके अलावा इन केंद्रों पर भ्रष्टाचार की अपनी समस्या है। माताओं को मिलने वाले टेकहोम राशन में अक्सर मात्रा की कमी की शिकायत मिलती है।
सामाजिक कार्यकर्ता शाहीना परवीन कहती हैं कि पहले आंगनबाड़ी में अपने क्षेत्र के बच्चों को प्रोत्साहित कर केंद्र तक लाने का नियम था, मगर अब सरकार ने कह दिया है कि जो बच्चे आते हैं, उन्हें ही पोषाहार देना है। लिहाजा बड़ी संख्या में गर्भवती स्त्रियां और बच्चे इस सुविधा से वंचित हैं। वे कहती हैं, सबसे जरूरी है स्वास्थ्य उप केंद्रों का अपना भवन होना और वहां एएनएम की उपस्थिति। अगर यह व्यवस्था हो जाये तो ये केंद्र मोहल्ला क्लीनिक की तरह काम करेंगे और मरीजों को तत्काल प्राथमिक चिकित्सा मिल सकेगी।