स्वास्थ्य

कोविड-19 चुनौती-2021: भारत के लिए वैक्सीन की राह आसान नहीं

वैक्सीन की बढ़ी मांग को पूरा करने के लिए भारतीय कंपनियों पर ऑर्डर का बोझ बढ़ा हुआ है

Vibha Varshney

भारत अभी कोविड-19 संक्रमण के दूसरे लहर से जूझ रहा है और इसी बीच भारत के दवा उद्योग में वैक्सीन उत्पादन करने के ऑर्डर की बाढ़ आ गई है। घरेलू मांग भी बहुत ज्यादा है लेकिन, डॉन्स हॉप्किंस यूनिवर्सिटी के आंकड़ों के मुताबिक, भारत अब तक सिर्फ 0.9 प्रतिशत बालिग आबादी को ही वैक्सीन का दो डोज दे पाया है और अप्रैल के पहले हफ्ते तक 1.27 करोड़ लोगों को ही वैक्सीन का पहला डोज मिला है। ओडिशा से लेकर गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र तक देशभर में वैक्सीन की किल्लत की खबरें हैं।  

भारत के दो उत्पादक अभी हर महीने 7 करोड़ डोज तैयार कर रहे हैं। हालांकि बिना किसी व्यवधान के टीकाकरण अभियान को पूरा करने के लिए भारत को हर महीने 9 करोड़ वैक्सीन की जरूरत है।  

भारत के वैक्सीन उद्योग की इस समस्या का प्रभाव देश के भीतर और बाहर दोनों तरफ महसूस किया जा रहा है। 25 मार्च को जीएवीआई ने अधिसूचना जारी की कि मार्च और अप्रैल में कोविशील्ड की डिलेवरी में देरी होगी। हालांकि सरकार का कहना है कि उसने निर्यात पर किसी तरह की पाबंदी नहीं लगाई है। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के चेयरमैन अदार पुनावाला ने दावा किया है कि वैक्सीन की किल्लत घरेलू मांग में इजाफे के कारण आई है। एक हालिया साक्षात्कार में उन्होंने सलाह दी कि वैक्सीन उत्पादन में तेजी लाने के लिए सरकार को कंपनी को 3000 करोड़ रुपए देने चाहिए।  

कोवैक्सीन के उत्पादन का एक्सक्लूसिव राइट्स पाने वाली भारत की एकमात्र कंपनी भारत बायोटेक भी बढ़ी मांग को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रही है। ये चिंता का कारण है क्योंकि वैक्सीन के उत्पादन में तेजी लाना सबसे आसान है और इसकी वजह ये है कि इसे इंडिया काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने विकसित किया है, जो बायोमेडिकल शोध को बढ़ावा देने, सहयोग और नियमन करने वाला भारत का शीर्ष व अहम संस्थान है। 

17 मार्च को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने वैक्सीन उत्पादन में तेजी लाने के लिए एक 6 सदस्यीय अंतर-सरकारी पैनल गठित किया। पैनल के सदस्य व आईसीएमआर के एपिडेमोलॉजी व कम्युनिकेबल डिजीज डिविजन के प्रमुख समीरन पांडा ने कहा, “अन्य सुझावों के साथ हमने वैक्सीन निर्माण के लिए भारत बायोटेक व सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को अधिक से अधिक साइट स्थापित करने या मौजदा सुविधाओं को अन्य उद्देश्य के लिए इस्तेमाल का सुझाव दिया है।” 

भारत बायोटेक ने घोषणा की है कि वो कर्नाटक के मालुर और गुजरात के अंकलेश्वर में वैक्सीन का उत्पादन कर अपनी उत्पादन क्षमता में सात गुना इजाफा करेगा। अभी केवल कंपनी की हैदराबाद यूनिट में वैक्सीन तैयार हो रही है। 

ज्यादा से ज्यादा वैक्सीन की मांग के लिए संघर्ष के बीच भारत में वैक्सीन तैयार करने वाले 7 संस्थान हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं । इन संस्थानों ने दशकों तक भारत के लिए वैक्सीन की उपलब्धता सुनिश्चित की है। इनमें हिमाचल प्रदेश की सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीआरआई), तमिलनाडु की बीसीजी वैक्सीन लेबोरेटरी (बीसीजीवीएल), पेस्टयूर इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (पीआईआई) और एचएलएल बायोटेक, उत्तर प्रदेश की भारत इम्युनोलॉजिकल्स व बायोलॉजिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड, महाराष्ट्र की हैफकिन बायो-फार्मास्यूटिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड और तेलंगाना की ह्यूमन बायोलॉजिकल्स इंस्टीट्यूट शामिल हैं। 

साल 2008 में केंद्र सरकार ने ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स रूल्स 1945 के नियमों के अंतर्गत वैक्सीन निर्माण नहीं करने के चलते इनमें से तीन सार्वजनिक संस्थानों सीआरआई, बीसीजीवीएल और पीआईआई का उत्पादन लाइसेंस रद्द कर दिया था। आजादी से पहले स्थापित हुई इन सार्वजनिक इकाइयों को सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका और स्वास्थ्य को लेकर बनी संसदीय समिति की तरफ से दंडित करने के बाद दोबारा खोला गया। जुलाई 2019 में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे ने कहा था कि देश के टीकाकरण कार्यक्रम के लिए इन इकाइयों में वैक्सीन निर्माण अलग-अलग चरणों में है। लेकिन उनकी तरफ से दिये गये आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं।

सीआरआई ने साल 2018-2019 में टिटनस टोक्स्वायड वैक्सीन का उत्पादन बंद कर दिया। पीआईआई के पास हर साल 6 करोड़ डीपीटी वैक्सीन, 5.5 करोड़ टिटनस टोक्स्वायड और 1.5 करोड़ डिफ्थेरिया वैक्सी का डोज तैयार करने की क्षमता है, लेकिन साल 2016 से इसने एक भी डोज तैयार नहीं किया है। इसी तरह बीसीजीवीएल के तमिलनाडु के गुंडाई में स्थित उत्पादन इकाई में साल 2016 से 2020 तक कोई वैक्सीन नहीं बनी है, जबकि इस इकाई के पास हर साल बीसीजी का 8 करोड़ डोज तैयार करने की क्षमता है। जुलाई 2020 में 4,50,000 डोज की पहली खेप तैयार की गई थी।   

केंद्र सरकार ने सीआरआई को नया काम सौंपा है। जब भारत में स्पुटनिकV और एस्ट्राजेनेका वैक्सीन आई, तो क्लीनिकल ट्रायल से पहले सीआरआई द्वारा इसकी सुरक्षा जांच करवाई गई। सार्वजनिक क्षेत्र की ये इकाई सरकर को टीकाकरण के बाद पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को लेकर मूल्यांकन सेवाएं भी मुहैया कराती है।     

कोवैक्सीन के निर्माण के लिए आईसीएमआर के निजी कंपनी के साथ साझेदारी पर जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं। जरूरी दवाओं की उपलब्धता पर काम करने वाले गैर-लाभकारी संगठन आल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क की मालिनी आईसोला कहती हैं, “भारत सरकार अनिवार्य लाइसेंसिंग के प्रावधानों के तहत बायोटेक से ये कह सकती है कि वो देश की सार्वजनिक इकाइयों व निजी कंपनियों को तकनीक हस्तांतरित करे।” थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क के केएम गोपाकुमार कहते हैं, “बहुत कम निवेश कर ये सार्वजनिक इकाइयां कोविड-19 वैक्सीन के उत्पादन की अपनी क्षमता बढ़ा सकती हैं। इसके लिए हमें राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।" 

ऐसी भी नहीं है कि लोग सार्वजनिक उपक्रमों को भूल गये हैं। 17 मार्च को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुंबई में स्थित राज्य की सार्वजनिक इकाई हैफकिन इंस्टीट्यूट को कोवैक्सीन की तकनीकी हस्तांतरित करने को कहा। इसके लिए संस्थान को पैसे की जरूरत है और संस्थान ने हाल ही में लांच हुए मिशन कोविड सुरक्षा के तहत केंद्र सरकार से फंड मांगा है। केंद्र सरकार ने अभी तक इसके लिए हरी झंडी नहीं दी है। 

तमिलनाडु के चेंगलपट्टु में देश का अत्याधुनिक इंटिग्रेटेड वैक्सीन कॉम्प्लेक्स भी है, जिसका उद्घाटन साल 2016 में हुआ था और तब से बेकार पड़ा हुआ है। सार्वजनिक क्षेत्र की तीन इकाइयों का उत्पादन लाइसेंस रद्द होने के बाद केंद्र सरकार ने साल 2008 में 49 हेक्टेयर का एक कॉम्प्लेक्स तैयार करने का विचार किया था। इस कॉम्प्लेक्स को सरकार के वैश्विक टीकाकरण कार्यक्रम के तहत सस्ती कीमत पर वैक्सीन का निर्माण, शोध और सप्लाई के लिए नोडल सेंटर के रूप में काम करना था। लेकिन, अब तक इसने एक भी वैक्सीन विकसित नहीं की है। 

जनवरी 2020 में भारत बायोटेक ने कॉम्प्लैक्स को पुनर्जीवित करने के लिए 600 करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी। इस साल 9 जनवरी को भारत में टीकाकरण अभियान शुरू होने से कुछ दिन पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन ने उक्त प्लांट का दौरा कर सुविधाओं का जायजा लिया। कॉम्प्लेक्स को फिलहाल सार्वजनिक इकाई एचएलएल हाइफकेयर लिमिटेड की सहायक इकाई एचएलएल बायोटेक लिमिटेड संचालित कर रही है। 16 जनवरी को एचएलएल लाइफकेयर लिमिटेड ने वैक्सीन निर्माण में इस प्लांट का इस्तेमाल करने के लिए एक्सप्रेशन ऑफ इंट्रेस्ट जारी किया। 

गैर-सरकारी संगठन तमिलनाडु हेल्थ डेवलपमेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष सीएस रेक्स सरगुनाम कहते हैं, “वैक्सीन तैयार करने के लिए कॉम्प्लेक्स में बुनियादी ढांचा, प्रशिक्षित तकनीशियन और वैज्ञानिक हैं। ये कोवैक्सीन के निर्माण में भागीदारी निभा सकते हैं।” 

हालांकि भारत इकलौता देश नहीं है, जहां सार्वजनिक उपक्रमों को हाशिये पर धकेल दिया गया है। नीदरलैंड की ऐम्सटर्डम यूनिवर्सिटी में साइंस एंड बिहैवियरल साइंसेज फैकल्टी में प्रोफेसर एमिरेट्स स्टुर्ट ब्लुमे विस्तार से बताते हैं कि साल 1980 में नवउदारवादी विचारों और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण का उभार हुआ। उन्होंने कहा, “साल 1980 में विशेषज्ञों ने पेटेंट और बौद्धिक सम्पदा अधिकार पर जोर दिया और दुनिया ने इसके साथ सुर में सुर मिलाया। फार्मा उद्योग भी यही चाहता था।” 

अब कोविड-9 ने सार्वजनिक क्षेत्र को दूसरा मौका दिया है और देशों को ये अहसास होने लगा है कि संकट से उभरने में लाभ से प्रेरित निजी कंपनियां काफी नहीं हो सकती हैं। कनाडा में घरेलू स्तर पर वैक्सीन के निर्माण की कोशिशें चल रही हैं। कनाडा को ये एहसास तब हुआ, जब वैक्सीन के लिए लोगों की शिनाख्त करने के बाद पता चला कि देश के पास वैक्सीन निर्माण की क्षमता नहीं है।   

इसी तरह क्यूबा पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन का डोज प्री-बुक नहीं कर सका, तो उसने खुद की वैक्सीन विकसित करना शुरू कर दिया। अनुमान है कि अप्रैल के आखिर तक क्यूबा सोबेराना-02 वैक्सीन का 10 लाख डोज जारी कर सकता है। क्यूबा सोबेराना-01, माम्बिसा और अबदाला नाम से तीन और वैक्सीन विकसित कर रहा है। चीन और रूस ने भी सार्वजनिक सेक्टर के जरिए ही वैक्सीन विकसित किया है। 

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड डेवलपमेंट स्टडीज के काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च में शोधकर्ता वाई माधवी कहती हैं, “भारत में सार्वजनिक सेक्टर को उसकी पूरी क्षमता के साथ पुनर्जीवित करना चाहिए और  सेक्टर के पास मौजूद विशेषज्ञता व दक्ष मानव संसाधन को मजबूत करने के लिए सहयोग देना चाहिए। 

हालांकि, ये इतना आसान नहीं होगा क्योंकि समय के साथ सार्वजनिक उपक्रमों के चरित्र में बदलाव आ गया है। “हमारे पास जो संस्थान थे, उनकी आज के वातारण में पुनर्रचना नहीं की जा सकती है। दुनिया के लिए जो एक  बेहतर उदाहरण हो, ऐसा नया उदाहरण अभी मौजूद नहीं है,” ब्लुमे कहते हैं। भारत में टीकाकरण का चरित्र भी बदल चुका है। वैश्विक टीकाकरण कार्यक्रम में भारत अब मिश्रित वैक्सीन को तरजीह दे रहा है और पुरानी सार्वजनिक इकाइयों के पास इसके लिए जरूरी बुनियादी ढांचा नहीं है। अधिकांश नई वैक्सीन का पेटेंट हो चुका है, इसलिए इन सार्वजनिक इकाइयों के लिए इनका निर्माण मुश्किल है।   

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों से डाउन टू अर्थ ने सवाल पूछा कि क्या सरकार वैक्सीन के लिए सार्वजनिक सेक्टर पर विचार कर रही है, लेकिन अधिकारियों की तरफ से को जवाब नहीं आया। निजी कंपनियों से पूछा गया कि क्या वे सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के साथ साझेदरी पर विचार कर रहे हैं, लेकिन कंपनियों ने भी जवाब देने से इनकार कर दिया। 

माधवी कहती हैं कि निजी क्षेत्र पर पूरी निर्भरता एक गलती है। ऐसे बहुत-से उदाहरण है, जहां निजी कंपनियां प्रदर्शन करने में विफल रही हैं। साल 2015 में वैक्सीन की कमी के कारण उत्तर प्रदेश में जापानी इंसेफेलाइटिस ने विकराल रूप ले लिया था। माधवी ने कहा, “वर्तमान में भारत सरकार की भारत और भारत के बाहर वैक्सीन की 80 प्रतिशत जरूरतें निजी कंपनियां पूरी करती हैं। इनकी कीमत सार्वजनिक सेक्टर के मुकाबले 250 गुना ज्यादा होती है, जिस कारण पांच सालों में भारत का टीकाकरण बजट सात गुना बढ़ गया है।”. 

मौजूदा संकट ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में मौजूद एक बड़ी खामी को उजागर कर दिया है और वो है अच्छी नीतियों का घोर अभाव। मिसाल के तौर पर भारत के पास दो स्वास्थ्य दस्तावेज हैं, जो दिशानिर्देशन करते हैं, लेकिन दोनों के विचारों में विरोधाभास है। भारत की राष्ट्रीय टीका नीति-2011 निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के बीच साझेदारी को प्रोत्साहित करती है जबकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 स्वस्थ प्रतिस्पर्धा, एंटी सेरा व गुणवत्तापूर्ण वैक्सीन की निर्बाध सप्लाई के लिए सार्वजनिक सेक्टर की उत्पादन इकाइयों पर फोकस करती है। 

माधवी कहती हैं, “जमीन पर केवल निजीकरण हो रहा है। ऐसी स्थिति में आगे का रास्ता ये हो सकता है कि निजी और सार्वजनिक सेक्टरों को प्रतिसपर्धा के लिए बराबर अवसर दिया जाए तथा 50 प्रतिशत वैक्सीन उत्पादन सार्वजनिक सेक्टर करे। राष्ट्रीय महत्व के सभी वैक्सीन को पब्लिक सेक्टर के लिए आरक्षित करना चाहिए।” 

ये दूसरे तरीके से मदद करेगा। कोविड-19 वैक्सीन पर फोकस उन वैक्सीन के संसाधन को भी ले लेगा, जिनका इस्तेमाल वैश्विक टीकाकरण कार्यक्रम में होता है और इससे बच्चों का रूटीन टीकाकरण बेपटरी हो सकता है। चूंकि निजी कंपनियां महामारी से लड़ने में व्यस्त हैं, तो ऐसे में सार्वजनिक इकाइयां कम से कम इस कमी को रोक सकती है।  

कोविड-19 की मौजूदा स्थिति से साफ पता चलता है कि फार्मा कंपनियों नहीं बल्कि सरकार को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जरूरत है। इसका समाधान तत्काल होना चाहिए। दुनिया इंतजार नहीं कर सकती है कि ऐसी की एक और महामारी आए और ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो।