स्वास्थ्य

अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव डालेगा एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस

Habib Hasan Farooqui

संक्रामक रोगों को फैलने से रोकने के लिए एंटीबायोटिक अहम बचाव हैं। एंटीबायोटिक के आसानी से लोगों की पहुंच में आने को स्वास्थ्य सुरक्षा से जोड़कर देखा जाता है।

लेकिन रोगाणुरोधी प्रतिरोध यानी कम होती एंटीमाइक्रोबियल क्षमता मानव स्वास्थ्य के सामने बहुत बड़ा खतरा है। एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) तब होता है, जब कोई सूक्ष्मजीवी जो पहले एंटीबायोटिक से प्रभावित होता था, धीरे-धीरे उसके प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर ले और एंटीबायोटिक उस पर बेअसर हो जाए। 

हालांकि प्रतिरोधक क्षमता का बढ़ना विकास संबंधी प्रक्रिया है और रोगाणुओं के लिए जीवित रहने की नाजुक प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया एंटीबायोटिक की मौजूदगी से तेज हो जाती है। इससे प्रतिरोध कर पाने वाले सूक्ष्मजीवी बच जाते हैं और बाकी नष्ट हो जाते हैं। 

इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि वैयक्तिक और सामुदायिक दोनों स्तरों पर एंटीबायोटिक के सेवन में और बैक्टीरिया के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने में गहरा संबंध हैं।

2015 में अमेरिका स्थित सेंटर फॉर डिजीज डायनामिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी की तरफ से जारी की गयी रिपोर्ट- द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स एंटीबायोटिक्स में ऐसे दो चलन बताये गए थे जिनकी वजह से वैश्विक तौर पर एंटीबायोटिक के सेवन में बढ़ोतरी हो रही है।

आमदनी बढ़ने से एंटीबायोटिक ज्यादा लोगों की पहुंच में आ रहे हैं और इससे जानें बच रही हैं, लेकिन इससे एंटीबायोटिक की उचित और अनुचित दोनों तरह की खपत भी बढ़ रही है। इसके चलते प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ रही है। भोजन के लिए पशुओं को पाले जाने में तेजी आने से कृषि में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल बढ़ रहा है, जिससे फिर प्रतिरोधक क्षमता बढ़ रही है।

प्रतिरोध बढ़ाना 

अगस्त 2014 में द लांसेट इन्फेक्शस डिसीसेस में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक 2000 और 2010 के बीच दुनियाभर में एंटीबायोटिक के सेवन में होने वाली कुल बढ़ोतरी का 76 फीसदी सेवन ब्रिक्स देशों- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका- ने किया। इसमें से 23 फीसदी हिस्सेदारी भारत की थी।

2013 और 2014 के बीच भारत में 12.6 अरब डॉलर की दवा की बिक्री हुई, जिसमें से एंटी माइक्रोबियल दवाओं की हिस्सेदारी तकरीबन 16.8 फीसदी थी। व्यापक स्वास्थ्य बीमा लाभ और आर्थिक जोखिम को कम करने की प्रक्रिया के न होने की वजह से इस बिक्री का एक बड़ा हिस्सा आउट ऑफ पॉकेट यानी जेब से बाहर के खर्चों से किया गया। 

भारत के सामने एक जटिल परिस्थति है। एक तरफ शहरी इलाकों और प्राइवेट सेक्टर में नए तरीके की एंटीबायोटिक का अत्यधिक इस्तेमाल हो रहा है, जो संभावित रूप से एएमआर की वजह बन रहा है।

एक तरफ ग्रामीण क्षेत्रों में एंटीबायोटिक की कमी के चलते लोग रोगों के शिकार हो रहे हैं और समय से पहले ही मृत्यु के शिकार हो रहे हैं। जुलाई 2015 में द लांसेट इन्फेक्शस डिसीसेस में प्रकाशित एक अध्ध्यन की प्रमुख लेखक स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की मार्सेला अलसन ने ये प्रदर्शन करके बताया था कि निम्न आय और माध्यम आय वाले देशों में जेब के बाहर से किया जाने वाला खर्च और सूक्ष्मजीवीरोधी प्रतिरोध में गहरा संबंध है। 

अनुमानों के मुताबिक 2012 और 2016 के बीच भारत में एंटीबायोटिक का प्रतिव्यक्ति सेवन तकरीबन 22 फीसदी बढ़ गया था।

हालांकि भारत में एंटीबायोटिक की खपत की दर यूरोप के मुकाबले कम है, फिर भी कार्बापेनेम्स, थर्ड जनरेशन सिफालोस्पोरिन और बीटा-लेक्टामैस इन्हीबिटर युक्त पेनसिलिन जैसी एंटीबायोटिक की नई क्लास का उपयोग बढ़ रहा है।

12 फरवरी 2005 को द लांसेट में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक जिन देशों में प्रतिव्यक्ति एंटीबायोटिक की खपत ज्यादा होती है वहां एंटीबायोटिक प्रतिरोध की दर ज्यादा है। एंटीबायोटिक के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में शामिल भारत में एएमआर डाटा इस चिंताजनक स्थिति को दर्शाता है।

एक अन्य अध्ययन बताता है कि 70 फीसदी एन्टेरोबैक्टीरियासै (स्वास्थ्यसेवा प्रदान करने वाली जगहों में संक्रमण फ़ैलाने वाले एक प्रकार का बैक्टीरिया) सिफालोस्पोरिन के लिए प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर चुका है। एन्टेरोबैक्टीरियासै उपजाति में से क्लेबसिएला और ई कोलाई बैक्टीरिया थर्ड जनरेशन सिफालोस्पोरिन (80 फीसदी) के प्रति प्रतिरोधी पाए गए।

इस से पहले, न्यू दिल्ली मिटेलो-बिटा-लाक्टामेस 1 (एनडीएम-1) एंजायम के कारण रेजिस्टेंस हुए ग्राम-नेगेटिव एंटरोबैक्टीरिया भी भारत से रिपोर्ट किए गए थे।

ये सूक्ष्मजीव टिगेसिक्लिन और कोलिस्टीन को छोड़कर बाकी सभी एंटीबायोटिक्स के प्रति अत्यधिक प्रतिरोधक पाए गए। हालांकि 2005 में प्रकाशित द लांसेट के एक अध्ययन में बताया गया था कि प्रतिव्यक्ति अधिक एंटीबायोटिक खपत वाले देशों में एंटीबायोटिक प्रतिरोध की दर अधिक होती है, लेकिन यह प्रतिरोध स्थायी है या अस्थायी, इसको लेकर अनिश्चितताएं हैं। 

पर्यावरण, सूक्ष्मजीवों और इंसानों के बीच परस्पर आदान-प्रदान के एक से ज्यादा मार्ग होने की वजह से एंटीबायोटिक की खपत और प्रतिरोध की दर के बीच आपसी संबंध जटिल हो गया है। रोगाणुओं में रेजिस्टेंस कोडिंग जीन्स की व्यापकता और एक से दूसरी जगह से जा पाने की क्षमता भी इस जटिलता का एक बड़ा कारण है।

इस रोगाणुरोधी क्षमता का ख़त्म होना स्वास्थ्य पर एक बड़ा खतरा बन गया है। यह सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि प्रतिरोधी संक्रमण का इलाज काफी महंगा है बल्कि इसलिए भी क्योंकि सबसे बेहतर एंटीबायोटिक्स तक अधिक लोगों की पहुंच नहीं है।

एएमआर की यह परिस्थिति और भी जटिल इसलिए हो जाती है क्योंकि उत्पादकों के पास नए एंटीबायोटिक बनाने की कोई नई योजना नहीं है। खाद्य अवं औषधि प्राधिकरण ने 2008 से 2012 के बीच सिर्फ 3 रोगाणुरोधी दवाओं को स्वीकृति मिली जबकि 1983 से 1987 के बीच में 16 दवाओं को स्वीकृति मिली थी।

साथ ही कई नई एंटीबायोटिक दवाएं जो हाल ही में बाजारों में उतारी गयी हैं, वे एंटीबायोटिक्स की एक सीमित श्रेणी से तैयार की गयी हैं, जिसे 1980 के दशक के मध्य में खोजा गया था। 

लिहाजा एंटीबायोटिक्स को “ट्रेजडी ऑफ कॉमन्स” क्लासिक केस की तरह देखा जा सकता है- जिसमें लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी ऐसे संसाधन को नष्ट कर देते हैं, जिसपर सबका अधिकार है।

एएमआर के कारण होने वाले आर्थिक खर्च को प्रोडक्शन फंक्शन पद्धति के जरिए समझा जा सकता है। एएमआर के कारण होने वाली मौतों से कामकाजी आबादी घटेगी, जबकि एएमआर के कारण बीमार होने वाली लोगों की संख्या बढ़ने से कामकाजी आबादी भी घटेगी और इससे मजदूर वर्ग की काम करने की क्षमता भी प्रभावित होगी।

इतना ही नहीं, मजदूर परिवार में काम न करने वाला कोई सदस्य अगर एएमआर के चलते बीमार पड़ता है तो परिवार के अन्य कामकाजी सदस्यों को उसकी देखभाल में लगना पड़ता है जिससे श्रम आपूर्ति कम होती है।

श्रमिक आपूर्ति पर पड़ने वाले इस नकारात्मक प्रभाव को आर्थिक संबंध में मापा जा सकता है। इसे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर एएमआर का आर्थिक असर कहेंगे।

आसान शब्दों में कहा जाए तो एएमआर के कारण स्वास्थ्य सेवाओं की लागत में होने वाली प्रत्यक्ष वृद्धि को अतिरिक्त जांचों, अतिरिक्त इलाज और अस्पताल में अधिक दिन भर्ती रहने के खर्चों से जोड़कर देखा जा सकता है। 

अप्रत्यक्ष खर्चों की बात करें तो लोगों का अधिक छुट्टी लेकर काम से दूर रहना, जीवन की घटती गुणवत्ता और मृत्यु की बढ़ती संभावना इसमें शामिल होंगे। ये समाज पर पड़ने वाले एएमआर के स्वास्थ्य संबंधी और आर्थिक प्रभाव हैं।

अध्ययन बताते हैं कि अकेले यूरोपीय संघ में ही, एएमआर के अतिरिक्त भार के रूप में तकरीबन 25 लाख दिन अस्पताल में बिताने पड़ते हैं, 25000 मौतें होती हैं और अतिरिक्त स्वास्थ्य सेवा खर्चों और उत्पादकता में गिरावट के कारण 1.5 अरब यूरोस का नुकसान होता है। 

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के कार्यालय द्वारा एएमआर पर गठित की गयी एक समीक्षा समिति ने बताया कि 2050 तक दुनियाभर में हर साल 1 करोड़ लोगों कि जान जाने कि आशंका है। अभी यह आंकड़ा 70 लाख के करीब है।

नुकसान के सभी पहलुओं को साथ रखा जाए तो दवाओं के प्रति प्रतिरोधी हो चुके संक्रमणों की वजह से कुल मिलकर 100 लाख करोड़ डॉलर का आर्थिक नुकसान होने की आशंका है।

स्वास्थ्य सेवा के लिए अत्यधिक खर्च सालाना एक अरब डॉलर तक पाया गया, जबकि सकल घरेलू उत्पादन में कमी के तौर पर आर्थिक नुकसान प्रति केस 21,832 डॉलर से लेकर 3 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचा।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक गरीबी पर एएमआर का प्रभाव बेहद चिंताजनक है। अगर एएमआर का अधिक प्रभाव पड़ता है तो अतिरिक्त 24 मिलियन लोग 2030 तक गरीबी में धकेल दिए जायेंगे और दुर्भाग्य से सबसे ज्यादा प्रभाव कम आय वाले देशों पर पड़ेगा।

बढ़ती एएमआर दरों का आर्थिक प्रभाव फिलहाल वैश्विक अजेंडे में सबसे ऊपर है, न सिर्फ इसलिए क्योंकि ये स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए एक ख़तरा है बल्कि इसलिए भी क्योंकि इसके आर्थिक परिणाम काफी भयावह होंगे।

68वीं वर्ल्ड हेल्थ असेंबली ने एएमआर पर ग्लोबल एक्शन प्लान (जीएपी-एएमआर) को मई 2015 में पेश किया जिसके तहत सदस्य देशों से गुहार लगायी गयी कि वे एएमआर  पर अपने नेशनल एक्शन प्लान को जीएपी-एएमआर के साथ तालमेल में ले आएं।

21 सितंबर, 2016 को संयुक्त राष्ट्र आम सभा में AMR पर हुई उच्च-स्तरीय बैठक ने एएमआर की समस्या से निपटने के लिए वैश्विक प्रतिबद्धता को और पुख्ता कर दिया है। 

वैश्विक एएमआर एजेंडे की हालिया समीक्षा में लोगों में एएमआर को लेकर बढ़ती जागरूकता, कृषि में एंटीबायोटिक्स के इस्तेमाल पर रोक, एएमआर की निगरानी और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर रौशनी डाली गई है। 

हालांकि, तीन क्षेत्र जहां विकास निराशाजनक है वे हैं- एंटीबायोटिक्स के डेवलपमेंट को प्रोत्साहन देने के लिए बाजार में नई ड्रग के आने पर इनाम देना, नए तरीके के ख़तरनाक रोगाणुओं के खिलाफ वैक्सीन लगाना और कम लागत में बीमारी का सही पता लगा पाने की सुविधा।