राजस्थान के जोधपुर के पल्ली गांव में पिछले एक महीने में लम्पी बीमारी से 50 से अधिक गाय की मौत हो चुकी है। पशुओं में फैली इस बीमारी ने पशुपालकों को चिंता में डाल दिया है। पल्ली गांव निवासी शारदा देवी कहती हैं कि उनके पास दो विदेशी नस्ल की गाय थीं जो करीब 50 लीटर दूध देती थीं। शारदा देवी बताती हैं कि करीब 15-20 दिन पहले उनकी एक गाय बीमार पड़ी।
डॉक्टर ने बताया कि गाय को लम्पी बीमारी है। इलाज शुरू किया लेकिन गाय नहीं बची। इस दौरान दूसरी गाय भी संक्रमित हो गई। दोनों गाय के इलाज पर करीब 30 हजार रुपए खर्च हो गए हैं।
उनका कहना है कि दूसरी गाय बचेगी या नहीं, पता नहीं। शारदा देवी के पति तीन साल पहले गुजर गए। उनके पांच बच्चे हैं जो जोधपुर में पढ़ते हैं। गाय मरने से उनकी आर्थिक हालत खराब हो चुकी है। उन्हें डर है कि कहीं बच्चों की पढ़ाई न रोकनी पड़े।
इसी गांव की बख्तावरी देवी की 20 गाय थीं। वह रोजाना 80 लीटर दूध बेचती थीं और इससे उन्हें करीब 2,500 रुपए रोजाना आमदनी होती थी। लेकिन अब पूरी आमदनी बंद हो गई है। लंपी की चपेट में आकर उनकी एक गाय की मौत हो गई है, 3 गाय का गर्भपात हो गया और 9 गाय बीमार हैं। बीमार गाय के इलाज में 15,000 रुपए खर्च हो गए हैं।
यह स्थिति पश्चिमी राजस्थान के लाखों पशुपालकों की है। इस संक्रामक बीमारी में पशुओं के शरीर पर गांठे बनने लगती हैं। सिर, गर्दन और जननांगों के पास गांठों का प्रभाव ज्यादा होता है। दो से पांच सेंटीमीटर व्यास वाली गांठें पशुओं के लंबे समय तक अस्वस्थता का कारण बनती हैं। ये गांठें धीरे-धीरे बड़ी होती जाती हैं। पशुओं को तेज बुखार आता है। पशु दूध देना बंद कर देते हैं और चारा-पानी लेना भी बंद कर देते हैं। बीमारी के प्रभाव से पशुओं का गर्भपात हो जाता है। साथ ही कई पशुओं का खुर खराब हो जाता है और वे चल नहीं पाते।
ऐतिहासिक रूप से लम्पी 1929 में अफ्रीका में पाई गई थी। हाल के कुछ वर्षों में यह दुनिया के कई हिस्सों में फैल गई। 2015 में इस बीमारी ने तुर्की और ग्रीस, 2016 में रूस में पशुपालकों का बहुत नुकसान किया था। भारत में इस बीमारी को सबसे पहले 2019 में रिपोर्ट किया गया था।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार 2019 से यह बीमारी 7 एशियाई देशों में फैल गई। भारत में अगस्त 2019 में ओडिशा में लम्पी का पहला मामला सामने आया था लेकिन अब यह 15 से अधिक राज्यों में फैल चुका है। इसकी संक्रामक प्रवृत्ति और प्रभाव के कारण वर्ल्ड ऑर्गनाइजेशन फॉर एनिमल हेल्थ ने इसे नॉटिफाएबल डिजीज की श्रेणी में रखा है। यानी अगर किसी पशु में लम्पी बीमारी देखी जाती है तो पशुपालक तुरंत सरकारी अधिकारियों को सूचित करेंगे।
लोहावट उपखंड के पशु चिकित्सा अधिकारी निर्मल मीणा बताते हैं कि यह बीमारी मक्खी, खून चूसने वाले कीड़े और मच्छर से फैलती है। कोई कीड़ा अगर किसी संक्रमित पशु का खून चूसता है और फिर किसी स्वस्थ पशु के शरीर पर आकर बैठ जाता है तो इससे स्वस्थ पशु संक्रमित हो जाता है, इसलिए संक्रमित पशुओं को बाकी पशुओं से अलग रखा जाना चाहिए। सामान्यतः इस वायरस का प्रभाव 15-20 दिन तक बहुत ज्यादा रहता है। लेकिन कई मामलों में यह वायरस 120 दिन तक जिंदा रहता है, इसलिए संक्रमित पशुओं को स्वस्थ पशु से कम से कम 25 फीट दूरी पर रखना चाहिए। लेकिन कई पशुपालक ऐसे हैं जिनके लिए बीमार पशुओं को अलग रख पाना संभव नहीं है। पल्ली के कृष्णाराम चौधरी अपना अहाता दिखाते हुए कहते हैं, "मेरे पास इतनी ही जमीन है, 300 वर्ग फीट में मैं अपने पशुओं को रखता हूं। कोई दूसरा आदमी अपनी जमीन पर बीमार पशु रखने नहीं देगा। इसलिए मेरे पास इन्हें एक साथ रखने के अलावा कोई चारा नहीं है।"
बीसवीं पशुधन जनगणना के मुताबिक, देश में सबसे अधिक पशुओं के मामले में राजस्थान दूसरे स्थान पर है। राजस्थान में 5.68 करोड़ पशु हैं। हालांकि पिछली पशुधन जनगणना में पशुओं की संख्या 5.77 करोड़ थी। अभी राजस्थान में 1.39 करोड़ गोवंश हैं। 2012 में गोवंश की संख्या 1.33 करोड़ थी। आंकड़े बताते हैं कि पशुधन की संख्या घटने के बावजूद गोवंश की संख्या में बढ़ोतरी हुई है लेकिन इस बीमारी ने गोवंश के सामने एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया है।
राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र में इस बीमारी ने बड़ी तबाही मचाई है। यह इलाका राजस्थान में सर्वाधिक पशुधन वाला इलाका है। पशुपालन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, 22 जुलाई तक लम्पी से बाड़मेर में 373, जैसलमेर में 172, जोधपुर में 113, जालोर में 78 एवं पाली में 13 पशुओं की मौत हो चुकी थी।
बीते कुछ दिनों से पशुपालन विभाग के अधिकारी पंचायतों में जाकर पशुपालकों को जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं। पशुपालन विभाग के संयुक्त निदेशक संजय सिंघवी ने बताया कि हमारी टीम पूरे इलाके में सर्वे कर रही है। हम जनप्रतिनिधियों के सहयोग से लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं। पश्चिमी राजस्थान में यह बीमारी पहली बार देखी गई है।
इस बीमारी की वजह से डेयरी उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ है। जोधपुर के ओसियां के डेयरी संचालक रामकरण बताते हैं कि उनकी डेयरी पर हर दिन 700 से 800 लीटर दूध आता था लेकिन अब 200 लीटर भी नहीं जमा हो पाता है। हालात यही रहे तो आने वाले दिनों में दूध की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हो सकती है।
पल्ली के विकास बिश्नोई कहते हैं कि गांव के अधिकांश पशुपालक इस गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। सिर्फ इस गांव में 50 से अधिक गाय की मौत हुई है। लेकिन बहुत से मामले सरकारी आंकड़ों में दर्ज नहीं हो पाए। कई लाशों को पशुपालकों ने सरकारी स्कूल के पीछे फेंक दिया है। इससे स्कूली बच्चों पर भी दूसरी बीमारियों का खतरा बढ़ गया है। विकास बताते हैं, “देसी गाय तो बीमारी से लंबे समय तक लड़ पा रही है लेकिन विदेशी और दूसरी नस्ल की गाय लम्पी से ज्यादा प्रभावित हो रही हैं। इसलिए इन नस्ल की गाय पालने वाले पशुपालकों को ज्यादा नुकसान हो रहा है।"
लम्पी बीमारी ने गोशालाओं के सामने भी बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। नौसर पल्ली के बाद जोधपुर के मातेड़ा क्षेत्र में भी संक्रमण फैलने लगा है। लाखेटा स्थित गोशाला में 250 गाय हैं। गोशाला के सचिव जगदीश बिश्नोई बताते हैं कि इन 250 में 90 गाय संक्रमित हो चुकी हैं। बीते 2 दिन में 14 गाय की मौत हो चुकी है और 15 गायों की स्थिति गंभीर है।
राजस्थान पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के पशुरोग जांच, निगरानी विभाग के प्रमुख जेपी कछावा जागरुकता की कमी को संक्रमण के फैलने का बड़ा कारण मानते हैं। वह बताते हैं कि राजस्थान में यह बीमारी सितंबर 2021 में जयपुर और कोटा संभाग में फैली। पश्चिमी राजस्थान में यह बीमारी मार्च 2022 के आखिरी सप्ताह में आई लेकिन इसका प्रभाव अप्रैल के आखिरी सप्ताह और मई में देखा गया, क्योंकि इसी तरह की गांठ वाली बीमारी पशुओं को पहले भी होती थी, जिसका खतरा इतना नहीं था। लोगों को लगा कि यह सामान्य पशु माता रोग है। जिसके चलते वे तुरंत आवश्यक उपाय नहीं कर पाए और धीरे-धीरे संक्रमण बढ़ता गया।
कछावा कहते हैं कि बारिश और उमस के कारण मक्खी, मच्छर और कीड़ों का प्रकोप बढ़ा है। यह बीमारी कैप्रिपॉक्स से फैलती है। इसका कोई टीका अभी उपलब्ध नहीं है, इसलिए लक्षणों के आधार पर इलाज होता है। यह उन पशुओं को ज्यादा प्रभावित करता है, जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम है।
70 वर्षीय पशुपालक लेखराम बिश्नोई कहते हैं, "अभी चारे के संकट से उबरे भी नहीं थे कि एक नया संकट आ गया। चारे के संकट में तो हम पशुओं को बेचने पर मजबूर हुए थे लेकिन अब हमारे सामने पशु मर रहे हैं।"