स्वास्थ्य

चमकी बुखार का अंतर्विरोध: डॉक्टर और वैज्ञानिक आमने-सामने

Vivek Mishra

बिहार के मुजफ्फरपुर में एक रहस्यमयी बीमारी की गुत्थी सुलझने के बजाए उलझती जा रही है। 1996 से मुजफ्फरपुर के लीची बगानों के आस-पास महामारी की तरह फैली इस बीमारी का लोक समाज ने "चमकी बुखार" से नामकरण तो कर दिया है लेकिन डॉक्टर और वैज्ञानिक के बीच इसके नामकरण को लेकर मतभेद जारी है। यह विषाणु रहित जैवरासायनिक बीमारी है या फिर विषाणु युक्त एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एईएस)। न ही डॉक्टर और न ही सूक्ष्म विषाणुओं और अन्य एजेंट की पड़ताल करने वाले वैज्ञानिक इसे समझ और समझा पा रहे हैं।

पुणे स्थित राष्ट्रीय वायरोलॉजी संस्थान (एनआईवी) की टीम एक बार फिर मुजफ्फरपुर जिले में खोजबीन के लिए पहुंच चुकी है। नमूने लिए जा रहे हैं। इस टीम की अगुवाई एपिडिमोलॉजी विशेषज्ञ बीवी टंडाले कर रहे हैं। एनआईवी से जुड़े कई वैज्ञानिकों ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि 24 वर्षों में जो भी मामले आए। उनकी जांच-पड़ताल की हर कोशिश की गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई अन्य एजेंसियां अपना काम कर रही हैं। हालांकि, हमें आजतक इसका कोई भी ऐसा तत्व (सबस्टेंस), निशान (साइन) नहीं मिल पाया है कि इसे हम पुख्ता तौर पर बीमारी कहें, विषाणु का हमला कहें या फिर किसी खास एजेंट से पैदा होने वाली समस्या कहें। सैकड़ों विषाणु हैं। यह खोज जारी है,जब पूरी होगी तभी इस चमकी बुखार को वैज्ञानिकों की ओर से सही और नई संज्ञा मिलेगी। जापानी इंसेफ्लाइटिस में भी वक्त लगा था लेकिन आज इसके हालात काबू में हैं।

एनआईवी अपनी जांच रिपोर्ट केंद्र को मुहैया कराती है। इसलिए अबतक की गयी जांच के परिणामों के बारे में स्थानीय चिकित्सकों को भी गहराई से कुछ नहीं पता। 

एनआईवी वैज्ञानिक बातचीत में यह स्वीकार कर रहे हैं कि उन्हें अब तक कोई सफलता नहीं मिली है। स्थिति तब और रहस्यमयी हो जाती है जब वैज्ञानिक डॉक्टर्स के इस दावे को भी खारिज करते हैं कि यह अभी पुख्ता तौर पर बिल्कुल भी कहा ही नहीं जा सकता है कि यह विषाणु रहित जैवरासायनिक बीमारी है। इस अंतविर्रोध पर डाउन टू अर्थ ने एनआईवी के निदेशक से भी सवाल पूछे हैं लेकिन उनकी ओर से अभी तक कोई जवाब नहीं दिया गया है।

एनआईवी से सेवानिवृत्त एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने बताया कि यूपी के गोरखपुर में 2008 में क्षेत्रीय वायरोलॉजी लैब खोली गई थी। इस स्थानीय प्रयोगशाला को सही से स्थापित करने का ही काम 2014 तक चलता रहा। उस दौरान 2011-12 में एनआईवी पुणे की टीम मुजफ्फरपुर नमूने एकत्र करने गई लेकिन वह गोरखपुर नहीं आई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गोरखपुर की लैब में ऐसी खोज-बीन के लिए जो भी संसाधन चाहिए वह आजतक उपलब्ध नहीं हैं। मसलन, एनिमल्स लैब और मॉलीक्यूल्स जांचने की सुविधा आदि।

इन सवालों से इतर बिहार में पटना मेडिकल कॉलेज व अस्पताल के माइक्रोबॉयोलाजिस्ट व पूर्व विभागाध्यक्ष डॉक्टर शंकर प्रकाश बताते हैं कि सीएमसी वेल्लौर के वायरोलॉजी विभाग के सेवानिवृत्त प्रोफेसर टी जैकब जॉन अपने सहयोगी डॉक्टर शाह के साथ 2012 से शोध कर रहे हैं। उनकी थ्योरी कहती है कि ये एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) नहीं है ये एन्सीफैलोपैथी है जो कि एक बायोकेमिकल बीमारी है। जबकि इंसेफ्लाइटिस वायरल बिमारी है। यह थ्योरी मुझे ठीक लगती है। क्योंकि डॉक्टर जॉन का विश्लेषण कहता है कि कच्चे लीची में मेथीलीन साइक्लोप्रोपिल एलानाइन तत्व होता है। यह तत्व खासतौर से 2 वर्ष से 10 वर्ष के  कुपोषित बच्चों के लिए बेहद घातक होता है। यह तत्व शरीर में पहुंचते ही सबसे पहले शर्करा (ग्लूकोज) के स्तर को गिरा देता है। एक उपापचयी यानी मेटबॉलिक गड़बड़ी होती है और बच्चे के दिमाग को सही ढ़ंग से ग्लूकोज मिलना बंद हो जाता है। यह स्थिति बच्चे में गंभीर हाइपोग्लाइसेमिक एनसेफैलोपैथी की स्थिति विकसित करती है।  इसके बाद उल्टी आना, चलने -फिरने में कदम डगमगाना, अचेत होने जैसे लक्षण मरीज में पैदा हो जाते हैं। यदि समय रहते शर्करा को नियंत्रित न किया जाए तो बच्चों की मौत हो जाती है।

मुजफ्फरपुर में ही क्यों?

इस सवाल पर डॉक्टर शंकर प्रकाश जॉन के ही विश्लेषण को आगे बढ़ाते हैं। वे कहते हैं कि यह समस्या ज्यादातर गरीब और कुपोषित बच्चों में होती है। लीची मजदूर सुबह चार बजे लीची तोड़ने के लिए बागानों में पहुंच जाते हैं ताकि लीची सुबह ही कलेक्शन सेंटर पर पहुंचाई जा सके। इनके साथ पूरा परिवार होता है। बच्चे भी। सुबह जगने के लिए जल्दी सोना भी पड़ता है। ऐसे सीजन में कई बार बच्चे रात का खाना नहीं खाते हैं। यही बच्चे सबसे ज्यादा कच्ची लीची का सेवन भी करते हैं। यह रूटीन कई  दिन तक चलता है। फिर कच्ची लीची में मौजूद मेथीलीन साइक्लोप्रोपिल एलानाइन तत्व कुपोषित बच्चों में शर्करा को नीचे ही रखता है। कुपोषित बच्चों में शर्करा का स्तर नीचे बने रहने से बच्चे हाइपोग्लाइसीमिया एनसेफैलोपेथी के शिकार हो जाते हैं। कच्ची लीची का तत्व बच्चों को मौत के कगार पर पहुंचा देता है। जॉन के शोध में एक और बात गौर करने लायक है कि वे कहते हैं कि यदि बच्चा ज्यादा कुपोषित है तो उसमें एमिनोएसिडेमिया भी विकसित हो जाती है।

डॉक्टर जॉन का समाधान

डॉक्टर शंकर प्रकाश विश्लेषण को आधार पर ही कहते हैं कि ऐसे बच्चों में कई डॉक्टर पांच फीसदी ग्लूकोज इंटरवेनस का इस्तेमाल करते हैं जिसका परिणाम बहुत देरी से मिलता है। जबकि 10 फीसदी के ग्लूकोज इंटरवेनस का इस्तेमाल प्रत्येक चार घंटे पर किया जाए तो न सिर्फ परिणाम बेहतर मिलेगा बल्कि बच्चे को मरने से भी बचाया जा सकता है।

एनआईवी के वरिष्ठ वैज्ञानिक बताते हैं कि लक्षणों के आधार पर इलाज ही संभव है। ऐसे कोई निशान हमें नहीं मिल रहा है जिस पर हम आगे बढ़ पाएं। हम फिलहाल किसी निशान के न मिलने तक कुछ नहीं कर सकते। फिलहाल इसे एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम ही कहा जा रहा।  

क्या है सिंड्रोम, लक्षण और साइन?

पूर्वी उत्तर प्रदेश में श्रावस्ती के जिला अस्पताल में नियुक्त डॉ नरेंद्रनाथ पांडेय चिकित्सा विज्ञान और परीक्षण की प्रक्रिया का सरलीकरण करते हैं। वह बताते हैं कि एक्यूट शब्द का आशय किसी बीमारी के बहुत जल्दी होने और उसकी गंभीरता के लिए है। जबकि सिंड्रोम शब्द का इस्तेमाल कई लक्षणों के समूह, बीमारियों के समूह और मरीजों में ज्ञात किए जाने वाले विभिन्नसा इन के समूह को लेकर किया जाता हैं। जब हम एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम कहते हैं तो उसमें एक्यूट और सिंड्रोम का यही अर्थ होता है।

 मरीज जो भी चिकित्सक से बताता है वह लक्षण (सिम्टम्स) हैं। वहीं, डॉक्टर शारीरिक परीक्षण से जो भी ढ़ूंढ़ता है वह निशान (साइन) है। मिसाल के तौर पर मरीज ने सिरदर्द की शिकायत की है तो वह लक्षण हुआ और डॉक्टर ने मरीज के गर्दन पर कड़ापन (रिजीडिटी) परीक्षण में ज्ञात किया है तो वह साइन हुआ। उपापचयी गड़बड़ी (मेटाबॉलिक डिस्टर्बेंस) के कारण नवजात बच्चों में हाइपोग्लोसीमिया (शर्करा का नीचे गिरना) और हाइपोकैल्सीमिया (खून में कैल्शीयम की मात्रा के बढ़ने) जैसी समस्या होती है। इससे नवजात बच्चों में झटके भी आते हैं। यदि मरीज में उल्टी, बुखार और अचेत होने की शिकायत होती है और डॉक्टर को परीक्षण में गर्दन पर कड़ापन मिल जाता है तो वह उस मामले को इंसेफ्लाइटिस से हटाकर मेनिनजाइटिस की श्रेणी में रख लेता है। ऐसे ही गर्दन पर कड़ापन न मिलने पर इंसेफ्लाइटिस होने की सम्भावना हो सकती है। पहली चुनौती होती है सही डाइग्नोसिस की तरफ बढ़ना। ताकि मरीज को जांच की सही श्रेणी तक पहुंचाया जा सके। यह काम सिर्फ चिकित्सक ही कर सकता है।