राजकाज

सहकारी आंदोलन का आखिरी प्रहरी जन सेवा के मोर्चे पर

उत्तर प्रदेश के अयोध्या-फैजाबाद की पहचान मंदिर-मस्जिद की जंग के साथ जनमोर्चा और उसके संपादक शीतला सिंह की बेबाक कलम भी एक पहचान है

Anil Ashwani Sharma

सहकारिता के माध्यम से निकलने वाले अखबारों की दुनिया के आखिरी मोर्चे के रूप में डटे जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह का कहना है कि पूंजी सीमित हाथों में है और जनता की शक्ति असीमित है, इसलिए उन्हें निजी पूंजी का दबदबा टूटने का भरोसा है। प्रेस आयोग ने लिखा था कि व्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे बड़ा खतरा इजारेदार पूंजी से ही है। भारत के संविधान में भी अखबार निकालने को सार्वजनिक सेवा माना गया है। पिछले 60 सालों से सहकारिता के माध्यम से निकलने वाला यह आखिरी अखबार है। 90 के दशक में जब मुख्यधारा का मीडिया अपने-अपने हिसाब से मंदिर-मस्जिद विवाद का कारोबार कर रहा था तब इस अखबार के छापेखाने से निकलने वाली प्रतियां संविधान, कानून और सरकार के इकबाल पर सवाल उठा रही थीं। इस मुद्दे पर संपादक ने सीधे संविधान के पक्ष में मोर्चा खोला। आजादी मिलने के तुरंत बाद सहकारी आंदोलन का सूत्रपात हुआ। तब देशभर में 350 सहकारी अखबार शुरू हुए। लेकिन अब सहकारिता के आखिरी लौ के रूप में सिंह ने बाजार में गुमनाम होने के बजाय लड़ना पसंद किया। उत्तर प्रदेश के अयोध्या-फैजाबाद की पहचान मंदिर-मस्जिद की जंग के साथ जनमोर्चा और उसके संपादक सिंह की बेबाक कलम भी एक पहचान है। जब सरकार उनकी कलम को नहीं तोड़ पाई तो उनके अखबारों को एक बार नहीं पांच-पांच बार कब्जाने का अथक प्रयास किया। भारत में अखबार निकालने जैसे सार्वजनिक कर्म के निजी लाभ के कुचक्र में बदल जाने के बारे में 87 साल के सरोकारी पत्रकारिता के प्रहरी से अनिल अश्विनी शर्मा ने बातचीत की

पत्रकारिता में आने का आपका मुख्य उद्देश्य क्या था?

पत्रकारिता 1958 में शुरू की। पत्रकारिता को कैसे सार्वजनिक उपयोगिता का बनाया जाए, किस प्रकार इससे जनता की सेवा की जाए, इसे जनजागरण और जनचेतना का माध्यम बनाते हुए कैसे इसके जरिए लोकतंत्र की रक्षा हो, पत्रकारिता में आने की मुख्य वजह यही थी।

सहकारिता के माध्यम से अखबार निकालने का ख्याल कैसे आया?

देखिए मैंने तो 1958 में पत्रकारिता शुरू की। 1954 में पत्रकारिता से संबंधित कमीशन की रिपोर्ट आई। इसमें जो मुख्य बात कही गई थी वह यह कि पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे बड़ा खतरा पूंजी से है। कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा था कि इससे निपटने का एकमात्र उपाय सहकारिता के आधार पर अखबार निकालना है। हम लोग इसी बात से प्रभावित होकर देशहित में इस कार्य को करने को उन्मुख हुए।

जनमोर्चा अखबार अपने 60 साल पूरे जा रहा है लेकिन क्या देश में सहकारिता के आधार पर निकलने वाले और अखबार भी चल रहे हैं?

1985 में एक सर्वेक्षण हुआ था। उसके मुताबिक, तब देश भर में सहकारिता के तहत 247 अखबार निकल रहे थे। लेकिन अब उनमें से कोई दिखाई नहीं देता है। हम लोग जरूर साठ साल पूरे करने जा रहे हैं। लेकिन दिक्कत है कि और जो माध्यम हैं वे सहाकारिता को लाभ का साधन बनाना चाहते हैं। पिछले छह दशक में हमारे अखबार में न तो सरकारी पैसा लगा है और न ही किसी सदस्य का दस हजार से अधिक शेयर ही है। एक आत्मविश्वास और एक उद्देश्य के लिए समर्पित होकर इस संस्थान के लोग देश के लिए पत्रकारिता कर रहे हैं। इतने सालों में अभी तक बरेली, इलाहाबाद, लखनऊ और फैजाबाद तक पहुंचे हैं।

सहकारिता के आधार पर निकलने वाले अखबरों के सामने बड़ी बाधा क्या है?

जिनके पास आगे बढ़ने के सभी संसाधन मौजूद हैं वे हमारे जैसे लोगों के लिए सबसे बड़े बाधक बनते हैं। ऐसे लोग लागत से कम दाम पर अखबार बेचते हैं ताकि हमारे जैसे लोग इतना घाटा नहीं उठा सकें और घाटा सहते-सहते खत्म होते जाते हैं। यही कारण है कि देश में अब हम ही इस आधार पर अपने साथियों के आत्मविश्वास के दम पर निकाल पाने में सफल हो पाए हैं। अन्य अखबारों के बंद होने के लिए मैं तीन प्रमुख कारण मानता हूं-साधनों का अभाव, इच्छाशक्ति की कमीऔर व्यावसायिक दक्षता का अभाव।

तो क्या सहकारिता के लिए पूंजी सबसे बड़ी बाधा के रूप में सामने आई है?

आज के वैश्वीकरण के दौर में पूंजी निर्णायक स्थिति में है। इससे समाज में विसंगतियों को खत्म करने में सफलता हासिल नहीं हो सकती। लेकिन, ऐसा नहीं है कि स्थिति ऐसी ही रहेगी। हम इसी विश्वास के दम पर हैं कि आने वाले समय में परिवर्तन आएगा। विसंगतियों का खमियाजा लंबे समय तक भुगतने के बाद लोग इस स्थिति से उकता जाएंगे और परिवर्तन चाहेंगे। पूंजी के आधिपत्य से अब भी मैं घबराया नहीं हूं। पूंजी सीमित हाथों में है और जनता की शक्ति असीमित है। इस बात को हमेशा याद रखा जाना चाहिए।

सहकारी अखबारों की सबसे बड़ी पूंजी क्या है?

हमारी सबसे बड़ी पूंजी है विश्वसनीयता। आप बोलते, लिखते या सोचते हो यह अहम नहीं है। बल्कि आप अपनी बात पर कितना अडिग रह पाते हैं सहकारिता के लिए सर्वोपरी यही है और यही उसकी विश्वसनीयता का सबसे बड़ा हथियार है। इसे ही हम अब तक अपना सबसे बड़ा हथियार मानकर काम करते आए हैं और भविष्य में भी यह स्थिति बनाए रखने की भरसक कोशिश करेंगे।

पत्रकारिता पर आए पहले आयोग ने कुछ मानदंड तय किए थे। बाद के समय में इन मानदंडों को कितना पालन हुआ?

आयोग ने कहा था कि अखबार में एक तिहाई से अधिक विज्ञापन नहीं होना चाहिए, नहीं तो यह विज्ञापन-पत्र कहलाएगा। लेकिन इस आदर्श स्थिति का आज तक पालन नहीं किया गया। इसके अलावा अखबार की कीमत में भी एकरूपता नहीं है। कहीं दो तो कहीं तीन और कहीं तो चार रुपए तक में बेचा जाता है। सही मायने में तो अखबार को बेचे जाने की लागत पर ही इसका संचालन होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। इससे कम संसाधन वाले अखबार खुद को बचाने की जंग लड़ते रहते हैं।

क्या सहकारिता एक्ट में किसी प्रकार की कमी है?

सबसे बड़ी कमी इसकी संरचना है, जिसके मुताबिक रजिस्ट्रार के पास असीमित अधिकार हैं। इसके कारण ही सरकारों ने मेरे अखबार को एक बार नहीं पांच-पांच बार अधीन (टेक ओवर) करने की कोशिश की। लेकिन हर बार हम अपने विश्वास के दम पर निकल आए। हालांकि, इसके लिए हमें हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के दरवाजे खटखटाने पड़े। यही नहीं, इसके खिलाफ संसद तक में सवाल उठे। इसलिए हम चाहते हैं कि सहकारी एक्ट में यह संशोधन हो कि इसका रजिस्ट्रार किसी न्यायालय का जज होना चाहिए।

सरकार ने किस प्रकार से आपके अखबार को कब्जाने की कोशिश की?

जो नियम-कायदे बने हैं, हम उसी के हिसाब से काम कर रहे थे। लेकिन सरकार ने अचानक चुनाव की तारीख पांच की जगह दो साल कर दी और कहा कि आपके यहां चुनाव नहीं हुए हैं। इस पर हमारा कहना था कि अचानक इस तरह से समयावधि घटा दी जाएगी तो हम कैसे इसे पूरा कर पाएंगे। और यदि ऐसा उसे करना ही था तो उसे इसकी सूचना तो हमें देनी चाहिए थी। यह कैसा न्याय कि आपने अपनी सुविधा के अनुसार नियम बना कर दूसरों को प्रतिड़ित करने की भरसक कोशिश की

क्या सहकारिता को प्रोत्साहन के लिए सरकार कुछ नहीं करती?

वैसे तो सहकारिता अधिनियम में बताया गया है कि सहकारिता को प्रोत्साहन करना राज्य का दायित्य है। लेकिन इसका अब तक किसी भी अखबार को लाभ नहीं मिल पाया है। हम कोई सरकारी सहायता या अंशदान नहीं लेते हैं।

आप 60 सालों तक सरोकारी पत्रकारिता की जंग लड़ने का श्रेय किसे देंगे?

निश्चित तौर पर अपने साथियों को, जिनके विश्वास का ही नतीजा है कि आज भी मैं सुबह-सुबह अपने रिपोर्टर के साथ किसी खबर पर बहस करता नजर आता हूं। यही नहीं, पिछले सालों में तमाम कठियाइयों के बावजूद हम अखबार में दूसरी प्रिंटिंग मशीन लगाने जा रहे हैं। इस समय हमारे पास पांच करोड़ की संपत्ति है।

क्या जीएसटी का सहकारी अखबारों पर असर पड़ा है?

जीएसटी हम पर भी लागू हुआ है। इसके कारण हमें तीन लाख रुपए का टैक्स देना पड़ा। कानूनी स्थिति बहुत सहायक नहीं है। आयोग ने तब लिखा था कि व्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे बड़ा खतरा इजारेदार पूंजी से ही है। आज की तारीख में निकलने वाले अखबार निजी पूंजी के तहत अपने अलग तरह के उद्योग-धंधों में जुट जाते हैं। इस तरह से निकलने वाले अखबारों पर प्रतिबंध होना चाहिए, जो किसी स्वार्थ की आपूर्ति के लिए अखबार निकालते हैं। ऐसे अखबार, सरोकारी अखबार को नुकसान पहुंचाते हैं। यह तय होना चाहिए कि जो अखबार निकाल रहा है वह कोई और धंधा न करे। ध्यान रहे कि अखबार निकालने को सार्वजनिक सेवा माना गया है। यह संविधान में भी उल्लिखित है। लेकिन आज की तारीख मेंं कौन इसका पालन कर रहा है।

क्या सार्वजनिक उपक्रम की कंपनियों का प्रभाव सहकारी समितियों पर पड़ा है?

क्यों नहीं, आज से 35 साल पहले लगभग ढाई सौ अखबार निकलते थे आज बस हम बचे हैं। जब देश में सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कंपनियां ही तेजी से खत्म हो रही हैं तो ऐसे में सहकारी समिति कैसे बचेगी। देश में सबसे अधिक लाभ कमाने वाली नवरत्न कंपनियों पर भी अब संकट के बादल छाए हुए हैं। इन तमाम कठिनाइयों के बावजूद आज भी मैं 87 साल की उम्र में अपने साथियों के साथ इस काम को सफल करने में जुटा हूं।

क्या मीडिया को किसी विचारधारा से प्रभावित होना चाहिए?

मेरा मानना रहा है कि पत्रकार को कभी भी किसी खास विचारधारा का पैरोकार नहीं बनना चाहिए। उसे अपनी बातें निष्पक्ष तरीके से रखनी चाहिए।

क्या वामपंथी विचारधारा आपकी पत्रकारिता पर कभी हावी रही?

कभी नहीं। एक बार पत्रकारिता में आया तो मैं यहीं का होकर रह गया।

छोटे और मझोले अखबरों की मुख्य समस्या क्या है?

देखिये समस्या मूल रूप से व्यावसायिकता की है। जिसके पास जितनी बड़ी पूंजी है, उसका उतना ही बड़ा स्वार्थ है। देश में गरीबों को उठाने के प्रयास और समाज को बदलने के प्रयास उनकी कभी प्राथमिकता नहीं रहे। वे हमेशा अपने स्वार्थ से बंधे रहे। अखबार निकालना उनके लिए हमेशा एक लाभ का सौदा रहा है।

वेब पत्रकारिता को आप किस नजरिए से देखते हैं?

जीवन के हर क्षेत्र में विज्ञान और तकनीक का प्रवेश होगा ही, फिर इसके साथ वेब पत्रकारिता जैसी चीज तो आएगी और उसमें कोई बुराई नहीं है, उसकी भी अपनी उपयोगिता है। मैं तो कहता हूं कि इन सभी माध्यमों का अपना-अपना उपयोग है और वे एक साथ आराम से रह सकते हैं।