झारखंड के धनबाद शहर के हर कोने में कोयले की गंध फैली है। यहीं पर है झरिया जो धनबाद का कोयले से लदा इलाका है। यहां बड़ी संख्या में लोग, यहां तक की बच्चे भी, कोयला चुनते दिखाई देते हैं। कोयले को हल्का करने के लिए उसे जलाकर या कहें नमी निकालकर, साइकिल पर लाद उसे आसपास की दुकानों में बेचते हैं। हर दिन, हर पल, यही दृश्य नजरों के सामने आता है। ये लोग खननकर्मी नहीं हैं। यह इस कोयला संपन्न शहर के निवासी हैं। उनके इस काम को अवैध माना जाता है परन्तु लोगों के लिए यह आजीविका का एकमात्र विकल्प है। ये लोग आजीविका ही नहीं, साफ पानी,स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं।
यहां से करीब 500 किलोमीटर दूर, छत्तीसगढ़ के कोयला बहुल कोरबा जिले के चोटिया गांव के लोगों ने स्वच्छ पेयजल पाने की आशा छोड़ दी है। गांव में सभी हैंडपंप दो साल पहले पूरी तरह से सूख गए थे। अब गांव का भूजल स्तर इतना नीचे चला गया है कि वहां से पानी मिल पाना नामुमकिन है। लोग अनुपचारित पानी के टैंकरों पर निर्भर हैं (वे कहते हैं कि पानी पीला रंग का होता है, जिसमें कई तत्व तैरते रहते हैं)। उन्हें यह पानी बाल्को से मिलता है, जो पास ही में स्थित चोटिया खान का संचालक है। न केवल पानी, बल्कि ग्रामीण यहां खदान से होने वाले अत्यधिक वायु प्रदूषण के साथ जीने को मजबूर हैं। वे सांस के रोग से ग्रसित हो रहे हैं। गांव में कहने को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) है, लेकिन यहां स्वास्थ्यकर्मी शायद ही देखे जाते हैं।
आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य देखभाल और पोषण की स्थिति सबसे खराब है। ऐसा तब है जब ये क्षेत्र उच्च खनन राजस्व पैदा करते हैं। सबसे बुरे हालातों वाले जिले हैं-झारखंड का पश्चिम सिंहभूम, ओडिशा का सुंदरगढ़ और क्योंझर, मध्य प्रदेश का सिंगरौली, जहां एन्युअल हेल्थ सर्वे (एएचएस) 2012-13 के मुताबिक, 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर बहुत है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस-4), 2015-16 के अनुसार, इस आयु वर्ग के बच्चों में स्टंटिंग (लंबाई न बढ़ना) और कम वजन होना सामान्य है।
उपर्युक्त उदाहरण उन जगहों के हैं, जो भारत के शीर्ष खनिज समृद्ध जिलों के रूप में जाने जाते हैं। इस अन्याय को संबोधित करने के लिए मार्च 2015 में भारत के केंद्रीय खनन कानून, द माइंस एंड मिनरल्स (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) या एमएमडीआर एक्ट (1957) में संशोधन कर जिला खनिज फाउंडेशन या डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन (डीएमएफ) की स्थापना की गई। देश के सभी खनन जिलों में डीएमएफ एक गैर लाभकारी ट्रस्ट के रूप में स्थापित किया जाना है। इसका स्पष्ट उद्देश्य है-खनन संबंधित कार्यों से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों के हित और लाभ के लिए काम करना। डीएमएफ ट्रस्ट के लिए खननकर्ता (माइनर्स) पैसा देंगे। यह राशि 2015 संशोधन से पहले दिए गए पट्टे के लिए रॉयल्टी राशि के 30 प्रतिशत के बराबर है और इसके बाद की लीज के लिए 10 प्रतिशत है। आज डीएमएफ कार्यान्वयन के चौथे वर्ष में प्रवेश कर चुका है, इसका संचयी राष्ट्रीय संग्रह अब तक 18,500 करोड़ रुपए से अधिक हो गया है। डीएमएफ का फंड न केवल बहुत है बल्कि नॉन लैप्सेबल भी है। इसलिए यह खनन प्रभावितों की तात्कालिक जरूरतों के साथ दीर्घकालीन कार्यों में निवेश का भी अवसर प्रदान करता है।
क्या सबकुछ ठीक चल रहा है?
कानूनी उद्देश्य के अनुसार, डीएमएफ फंड का उचित उपयोग करने के लिए कुछ बुनियादी चीजों को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। चूंकि यह फंड विशिष्ट लाभार्थियों (जो खनन प्रभावित लोग हैं) के लिए लक्षित है, इसलिए सबसे पहले उनकी पहचान की जानी चाहिए। साथ ही साथ खनन से सबसे अधिक प्रभावित इलाके जिन्हें कानून ने “प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित” माना है, उनकी पहचान होनी चाहिए।
सही तरीके से काम करने के लिए डीएमएफ के लिए उचित प्रशासनिक सेट-अप की आवश्यकता है। इसका मतलब है कि हर जिले में डीएमएफ का एक कार्यालय होना जरूरी है जिसमें कर्मचारी और विशेषज्ञों द्वारा योजना बनाने, खातों और अभिलेखों का रखरखाव, रिपोर्ट तैयार करने, सूचना साझा करने आदि किया जा सके। कानून के अनुसार, प्रत्येक जिले में डीएमएफ को खनन प्रभावित लोगों (ग्राम सभा के माध्यम से) के साथ जुड़ना चाहिए, ताकि उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप निवेश हो सके।
अधिकतर काम नहीं हुए
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने देश के टॉप 12 खनन राज्यों के डीएमएफ प्रबंधन का विश्लेषण किया। इसके अलावा, सीएसई ने पांच राज्यों के टॉप 13 खनन जिलों में भी देखा कि डीएमएफ के फंड का उपयोग कैसे किया जा रहा है। ये 5 राज्य हैं, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान जिनका राष्ट्रीय संग्रह में 72 प्रतिशत से अधिक का योगदान है।
निर्णय प्रक्रिया में ग्राम सभा की भागीदारी कम करना कानून के मुताबिक, विभिन्न जिलों में डीएमएफ के तहत होने वाले काम के लिए ग्राम सभा से परामर्श और अनुमोदन जरूरी है। इसके अलावा ग्राम सभा की और भी अहम भूमिका है जैसे, लाभार्थियों की पहचान और परियोजनाओं की निगरानी ताकि यह देखा जा सके कि खनन प्रभावितों को लाभ मिल रहा है या नहीं। यह भूमिका और शक्ति विशेष रूप से अनुसूचित क्षेत्रों के लिए है क्योंकि इन क्षेत्रों के लोगों के अधिकारों की रक्षा को लेकर भारत के संविधान में विशेष जोर दिया गया है। इसके अलावा, पंचायत के प्रावधान(अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) भी इस पर जोर देता है। द एमएमडीआर एमेंडमेंट एक्ट, जिसके तहत डीएमएफ गठित किया गया है, इन सांवैधानिक प्रावधानों और पेसा से निर्देशित है।
सीएसई ने 13 जिलों की समीक्षा में पाया कि ज्यादातर जिलों में ग्राम सभा को निर्णय प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनाया जा रहा है। इनमें से चार जिले पूर्णतया अनुसूचित क्षेत्रों में हैं और चार आंशिक रूप से। गैर अनुसूचित जिलों के लिए भी ग्राम सभा से परामर्श जरूरी है। कोई भी जिला इस बात का ठोस प्रमाण नहीं दे सका कि डीएमएफ फंड से हो रहे कामों के लिए ग्रामसभा से परामर्श या स्वीकृति ली गई है। जब यह सवाल जिला के अधिकारियों के समक्ष लाया गया, तो अस्पष्ट जवाब मिले। मिसाल के तौर पर, ओडिशा के सुंदरगढ़ के जिला कलेक्टर विनीत भारद्वाज (अप्रैल 2018 तक वे पद पर थे) ने कोई भी विवरण प्रस्तुत करने से इनकार कर दिया। भारद्वाज ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) आवेदन दाखिल करने को कहा। कोरबा से मिले एक आरटीआई जवाब में कहा गया कि “मांगी गई जानकारी कार्यालय के पास उपलब्ध नहीं है।” छत्तीसगढ़ डीएमएफ पोर्टल पर भी इसका कोई विवरण नहीं है। कुछ जिला अधिकारियों ने कहा कि हमारे पास कुछ कागजी कार्यवाही मौजूद है, लेकिन यह केवल औपचारिकता भर है, जहां मुखिया (सरपंच) के हस्ताक्षर ले लिए गए हैं। नाम सार्वजनिक न करने की शर्त पर एक जिलाधिकारी ने बताया कि ग्राम सभा की बैठक के लिए आवश्यक कोरम को पूरा नहीं किया जाता है। पूरी प्रक्रिया परामर्शक नहीं है।
न केवल ग्रामसभा से परामर्श बल्कि खनन प्रभावित लोगों को डीएमएफ और उसकी भूमिका के बारे में जागरूक करने के लिए भी कुछ नहीं किया गया है। लोगों को डीएमएफ की जानकारी न के बराबर है। यहां तक कि पीआरआई (पंचायती राज संस्थाओं) के सदस्यों, जो जिलों में डीएमएफ निकाय का हिस्सा हैं, ने सीएसई को बताया कि उन्हें फंड और अपनी शक्तियों से अवगत नहीं कराया गया है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में लोगों के अधिकारों पर काम कर रहे एकता परिषद के रमेश शर्मा कहते हैं, “जिलों को डीएमएफ के बारे में ग्राम सभा को प्रशिक्षित करना और जागरूक बनाना चाहिए, अन्यथा वे डीएमएफ से मिली ताकत का इस्तेमाल कैसे करेंगे? यह न करना इस बात का संकेत है कि डीएमएफ फंडों के इस्तेमाल पर निर्णय लेने की प्रक्रिया से लोगों को जान बूझकर अलग रखने का प्रयास किया जाता है।”
अफसरों और नेताओं का प्रभुत्व
सीएसई ने पाया कि कई राज्य सरकारें उल्टी दिशा में चल रही हैं। मसलन, तेलंगाना ने ग्राम सभा को इस पूरी प्रक्रिया से दूर रखने के लिए जून में डीएमएफ के नियमों बदलाव किया। जो निहित शक्तियां और भूमिका ग्राम सभा की थी, उन्हें अब एक डीएमएफ समिति को दे दिया गया है जिसमें िसर्फ सांसद, विधायक, एमएलसी और शीर्ष अधिकारी शामिल हैं। राजस्थान भी अपने डीएमएफ निकाय में सांसदों और विधायकों की मौजूदगी बढ़ा रहा है।
सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा डीएमएफ प्रशासन पर पहले से ही सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं का प्रभुत्व है। डीएमएफ ट्रस्ट की द्विस्तरीय संरचना में एक गवर्निंग काउंसिल और प्रबंध समिति शामिल है। टॉप 12 में से सात राज्यों में विधायक और सांसद डीएमएफ निकाय का हिस्सा हैं। जन प्रतिनिधित्व के नाम पर िसर्फ निर्वाचित पीआरआई सदस्यों-गांव पंचायत के सदस्य-सरपंच-मुखिया या ब्लॉक स्तर के पंचायत सदस्य जैसे प्रमुख या उप प्रमुख की भागीदारी है।
बिना योजना लक्ष्य अधूरा
लोगों का प्रतिनिधित्व तो न के बराबर ही है, ज्यादातर जिलों में खनन प्रभावित लोगों और क्षेत्रों की जरूरतों का आकलन कर डीएमएफ की योजना बनाने के लिए कार्यालय भी नहीं है। इसीलिए इसके अंतर्गत िनवेश भी अनौपचारिक तरीके से हो रहे हैं।
शीर्ष पांच राज्यों के 13 जिलों में निवेश के आकलन से पता चलता है कि डीएमएफ के तहत शुरू किए गए कार्य खनन प्रभावित लोगों और क्षेत्रों के समक्ष आने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों से संबंधित नहीं हैं। महिला और बाल विकास के मुद्दे अत्यधिक चिंताजनक हैं, लेकिन इसे लेकर कोई प्राथमिकता नहीं है या बेहद कम है। उदाहरण के लिए, ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के ग्रामीण क्षेत्र में 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 67 (एएचएस, 2012-13 के अनुसार) है, और एनएफएचएस-4 (2015-16) के अनुसार, उसी आयु वर्ग के लगभग 50 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग का शिकार हैं। इसके बावजूद जिले को 745 करोड़ रुपए के स्वीकृत डीएमएफ मद से महिला और बाल विकास के लिए केवल 3 करोड़ रुपए दिए गए हैं। सीएसई की रिपोर्ट में कहा गया है, “अन्य जिलों, जैसे सिंगरौली, पश्चिम सिंहभूम, भीलवाड़ा के मामले में भी ऐसे मुद्दों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है, जबकि ये जिले राष्ट्रीय स्तर पर खराब पोषण संकेतकों के लिए जाने जाते हैं।” कई मामलों में कुछ बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों को डीएमएफ के दायरे से बाहर कर दिया गया है, मसलन धनबाद। धनबाद, झारखंड का सबसे बड़ा कोयला खनन जिला है, जहां आज तक 935 करोड़ रुपए की स्वीकृति है। लेकिन धनबाद के सबसे बुरी तरह प्रभावित शहरी खनन क्षेत्र झरिया को किसी भी निवेश के दायरे से बाहर रखा गया है।
इसी प्रकार, छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के शहरी क्षेत्रों में विभिन्न निर्माण गतिविधियां चलाई जा रही हैं, जबकि खनन प्रभावित क्षेत्रों में से अधिकांश क्षेत्र ग्रामीण इलाके में हैं। जिले के कुल 887 करोड़ रुपए स्वीकृत मद में से 46 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में काम के लिए स्वीकृत हैं। इसमें भी 215 करोड़ रुपए शिक्षा केंद्र, सड़क, शहरी स्वच्छता, बहु स्तरीय पार्किंग स्थल, बस स्टॉप, कन्वेंशन हॉल के लिए है। ओडिशा के झारसुगडा में डीएमएफ फंड का इस्तेमाल हवाई अड्डे को बिजली आपूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
योजना के अभाव के अलावा, अनौपचारिक तरीके से निवेश किए जाने का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह है कि खनन प्रभावित क्षेत्रों की उचित पहचान नहीं की गई है। उदाहरण के लिए, ओडिशा में खदानों से 10 किलोमीटर त्रिज्या के भीतर के क्षेत्रों को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित माना गया है। लेकिन कई जगहों पर इसे जिला प्रशासन के विवेक पर छोड़ दिया गया है। छत्तीसगढ़ के कोरबा में खान से तीन किलोमीटर त्रिज्या के भीतर, जबकि रायगढ़ में 10 किमी. त्रिज्या के भीतर के क्षेत्र को प्रभावित क्षेत्र माना गया है। मध्य प्रदेश के सिंगरौली में खान से निकटता के आधार पर केवल नगर पालिका को सीधे तौर पर प्रभावित माना गया है ग्रामीण इलाकों की पहचान नहीं की गई है, जहां भी खान हैं।
अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित क्षेत्रों की पहचान और भी अस्पष्ट है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ ने प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित क्षेत्रों के अलावा सारे जिले को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित माना है। ओडिशा में नगर पालिकाओं को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित घोषित किया जा रहा है, ताकि डीएमएफ फंड को वहां भेजा (डायवर्ट) किया जा सके। क्योंझर के जनजातीय अधिकार कार्यकर्ता दुष्कर बारिक ने कहा, “गलत तरीके से वर्गीकरण से उन क्षेत्रों में निवेश भेजने का मौका मिल जाता है, जहां खनन का सबसे बुरा प्रभाव नहीं है।”
राज्य हस्तक्षेप से खतरे में स्वायत्तता
सीएसई की समीक्षा बताती है कि डीएमएफ का क्रियान्वयन आम सरकारी योजना की तरह किया जा रहा है, जहां शीर्ष स्तर पर बैठे उच्च अधिकारी निवेश को नियंत्रित कर रहे हैं। डीएमएफ प्रशासन को ऊपर से नीचे की तरफ नियंत्रित किया जा रहा है, जबकि नियंत्रण का स्तर नीचे से ऊपर की तरफ (ग्राम सभा के जरिए) होना चाहिए था। मिसाल के तौर पर, छत्तीसगढ़ ने एक सेटलर बनाया है। यह सेटलर डीएमएफ ट्रस्ट द्वारा बनी किसी भी परियोजना को खत्म कर सकता है या नया प्रोजेक्ट इसमें शामिल कर सकता है। मध्य प्रदेश ने राज्य खनिज निधि (स्टेट मिनरल फंड-एसएमएफ) की स्थापना की है। स्टेट मिनरल फंड में जिले अपने डीएमएफ संग्रह का एक निश्चित अनुपात में योगदान देंगे। फिर, राज्य सरकार का वित्त विभाग उन कार्यों को तय करेगा, जहां इस फंड का उपयोग किया जाना है। सिंगरौली जैसा कोयला खनन जिला, एसएमएफ में अपने डीएमएफ शेयर का 50 प्रतिशत का योगदान दे रहा है। जिन राज्यों में ऐसी व्यवस्था नहीं है, वहां अधिकारी दिशानिर्देश जारी करके इस तरह का काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, झारखंड में िसर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में पाइप से पानी की आपूर्ति और घरेलू शौचालयों के निर्माण पर डीएमएफ निवेश किया जा रहा है। ऐसा इसलिए, पूर्व मुख्य सचिव श्रीमती राजबाला वर्मा ने 2016 में निर्देश दिए थे।
आगे का रास्ता
चार साल में डीएमएफ के समक्ष जो चुनौतियां आई हैं, उनसे यह संकेत मिलता है कि डीएमएफ गलत दिशा में जा रहा है। यह संकेत प्रारंभिक है और इसमें सुधार किया जा सकता है। सीएसई रिपोर्ट कुछ मौलिक सुझाव दे रही है, जिसके क्रियान्वयन से डीएमएफ के काम प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है।
खनन प्रभावित डीएमएफ का मूल हैं। कानून ने इसे भारत के संविधान, पेसा और वनाधिकार (एफआरए) से जोड़ा भी है। इसलिए राज्य और जिला निर्णय लेने की प्रक्रिया से लोगों को बाहर नहीं कर सकते हैं। सीएसई के उप महानिदेशक चंद्र भूषण कहते हैं, “लोगों से न केवल परामर्श लेना चाहिए, बल्कि उन्हें डीएमएफ निकाय का हिस्सा बनाना चाहिए, ताकि वे वास्तव में खुद को मिली ताकत का प्रयोग कर सकें।” हर जिले के डीएमएफ ट्रस्ट को लाभार्थियों की पहचान करनी जरूरी है।
डीएमएफ नियम पहले से उच्च प्राथमिकता वाले मुद्दों को बताते हैं, जैसे, पेयजल, स्वास्थ्य देखभाल, पोषण, आजीविका के साधन इत्यादि, जिस पर डीएमएफ बजट का कम से कम 60 प्रतिशत खर्च किया जाना चाहिए। भूषण कहते हैं, “इसके साथ ही यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित क्षेत्रों को निवेश में प्राथमिकता दी जाए क्योंकि वहां की जरूरतों को तत्काल पूरा करना जरूरी है।” डीएमएफ के पास सार्वजनिक फंड की बड़ी राशि है, इसलिए उसे पारदर्शी व लोगों के प्रति उत्तरदायी रहने की जरूरत है।