बुंदेलखंड का नाम सुनते ही पथरीले और सूखेग्रस्त इलाका की तस्वीर जेहन में उभरती है। इस सूखे को केंद्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकारों ने अब एक उद्योग के रूप में तब्दील कर दिया है। इस उद्योग को नेता व नौकरशाह मिलजुल कर फलने-फूलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे। इसी का नतीजा है कि करीब एक दशक पहले क्षेत्र के लिए जारी 7,000 करोड़ रुपए से अधिक के पैकेज का अब तक आधा ही खर्च हो पाया है। झांसी के रक्सा गांव के किसान बलवान सिंह गुस्से में ऐसा ही कहते हैं। वह कहते हैं कि सूखे से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने पैकेज की घोषणा तो कर दी लेकिन उसका क्रियान्वयन सुनिश्चत करना मुनासिफ नहीं समझा। यही कारण है कि यह पैकेज बस कागजों में ही क्रियान्वित हो रहा है।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के जिलों में फैले बुंदेलखंड क्षेत्र के समग्र विकास के लिए 19 नवंबर, 2009 को हुई कैबिनेट बैठक में 7,266 करोड़ रुपए स्वीकृत किए गए। 3,606 करोड़ उत्तर प्रदेश के लिए और 3,760 करोड़ रुपए मध्य प्रदेश के लिए जारी किए गए। पैकेज के लिए तीन साल की समयसीमा भी रखी गई। 2009-10 से 2012-13 के बीच तीन सालों में मात्र 40 प्रतिशत पैसा ही खर्च हो सका।
राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरएए) योजना आयोग के तहत बनाई गई नोडल एजेंसी है जो बुंदेलखंड पैकेज के तहत धन जारी करने के लिए है, साथ ही यह इस पैकेज का समय-समय मूल्यांकन भी करती रही है। एनआरएए के मूल्यांकन के अनुसार, 30 नवंबर, 2011 तक प्राधिकरण ने उत्तर प्रदेश को कुल आवंटन राशि में से 860.973 करोड़ रुपए जारी किए, लेिकन खर्च हुए केवल 280.99 करोड़ रुपए जबकि मध्य प्रदेश को कुल आवंटन का 1,129.92 करोड़ रुपए जारी किए गए और खर्च हुए मात्र 424.4 करोड़ रुपए। बुंदेलखंड पैकेज की समीक्षा से पता चला है कि उत्तर प्रदेश में अब तक कुल आवंटन का 16.57 प्रतिशत और पिछले दो वर्षों में मध्य प्रदेश में 21.70 प्रतिशत खर्च किया गया।
बुंदेलखंड के भारी भरकम पैकेज के क्रियान्वयन नहीं होने की गूंज संसद में भी बीते साल गूंजी। संसद के मानसून सत्र (2016) के दौरान 28 जुलाई, 2016 को लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में योजना राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने यह माना कि यूपीए सरकार ने बुंदेलखंड क्षेत्र में सूखे से निपटने के लिए स्वीकृत धनराशि में भारी अनियमितताएं बरती।
यह जानकारी दोनों राज्य सरकारों ने दी। राव ने सदन को बताया कि अनियमितता बरतने वाले 50 अधिकारियों पर प्रशासनिक कार्रवाई की गई है। जिन अफसरों पर कार्रवाई गई है उनमें से 17 उत्तर प्रदेश के और 33 अधिकारी मध्य प्रदेश से हैं।
राव ने जानकारी दी कि पैकेज को 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के दौरान पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि (बीआरजीएफ) के तहत बढ़ाया गया था। पिछले तीन वर्षों (2013-14 से 2015-16) के दौरान 898.12 करोड़ उत्तर प्रदेश के लिए और 694.0 9 करोड़ रुपये मध्य प्रदेश को जारी किए गए।
बुंदेलखंड पैकेज के क्रियान्वयन के लिए योजना आयोग द्वारा बनाई गई नोडल एजेंसी एनआरएए ने भी 2016 में अपनी समीक्षा में इस बात की नाराजगी व्यक्त की कि स्वीकृत पैसे का कुछ प्रतिशत ही खर्च हो पाया है। प्राधिकरण के अनुसार, 2013-14 के लिए पैकेज के अंतर्गत उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लिए 1,400 करोड़ रुपये की स्वीकृत किए गए।
इनमें से उत्तर प्रदेश को 690.25 करोड़ रुपये जबकि मध्य प्रदेश को 527.57 करोड़ रुपये दिए गए। एनआरएए के अनुसार, झांसी और ललितपुर में विकास कार्यों के लिए आवंटित 1,005 करोड़ रुपये में से महज 179 करोड़ रुपये के काम के पूरा होने की पुष्टि हो पाई है। यह कुल आवंटित निधि का केवल 18 प्रतिशत है।
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अन्य क्षेत्रों के लिए जारी धनराशि कितनी प्रतिशत खर्च हो पा रही है। यही नहीं एनआरएए ने यह भी स्वीकार किया कि पैकेज के तहत स्वीकृत मंडी के निर्माण के लिए 320 करोड़ रुपये उपयुक्त भूमि की अनुपलब्धता के कारण उपयोग नहीं किए जा सके।
पैकेज के सही तरीके से लागू नहीं होने का कारण पलायन
बुंदेलखंड को दिए गए इतने बड़े राहत पैकेज के सही तरीके से खर्च नहीं होने के कारण लाखों की संख्या में स्थानीय लोग राेजगार की तलाश में पलायन होने पर मजबूर हो रहे हैं। रेलवे से मिली जानकारी के अनुसार, 2015-16 में बुंदेलखंड के प्रमुख रेलवे स्टेशनों से लगभग 18 लाख लोग अनारक्षित डिब्बों का टिकट कटाकर राजधानी दिल्ली पहंुचे। पलायन करने वाली आबादी बुंदेलखंड की कुल जनसंख्या का 10 फीसदी है।
अतर्रा से 99,294, बांदा से 10,3567, झांसी से 7,45,968, मौर्यपुर से 66,939, महोबा से 2,88,313, खजुराहो से 1,71,852, कुलपहाड़ से 28,920, हरपालपुर से 1,70,821, मानिकपुर से 54,657 और चित्रकूट से 61,452 लोग अनारक्षित डिब्बे में चढ़कर दिल्ली पहुंचे। अकेले राजधानी की ओर ही लोगों का पलायन नहीं हुआ बल्कि बड़ी संख्या में मुंबई और सूरत की ओर भी लोगों ने रुख किया। मजबूर होकर लोग पलायन कर रहे हैं।
स्थानीय अधिकारियों के अनुसार, इस क्षेत्र में लगभग 60 से 70 प्रतिशत लोग कृषि पर जीवित रहते हैं, बहुत से लोगों के पास खेती खराब होने के बाद कुछ नहीं बचता है। ऐसे में क्षेत्र से पलायन अब एक दुष्चक्र बन गया है।
बुंदेलखंड के पारंपरिक तालाबों की बनावट यहां के प्राकृतिक हालात को देखते हुए की गई थी। ये तालाब इस तरह बनाए गए थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी।
अब यहां के अधिकतर पारंपरिक तालाब सूख गए हैं। 2004 से 2008 तक बुंदेलखंड में भयंकर सूखा पड़ा, जिसे देखते हुए सरकार ने बुंदेलखंड पैकेज की घोषणा की थी। यह पैकेज काफी बड़ा और कई परतों में है। इसमें 11 विभाग हैं। हर विभाग में कई योजनाएं बनाई गईं। माना गया कि बुंदेलखंड क्षेत्र सूखा प्रभावित इलाका है, इसलिए पैकेज को सूखा से निपटने के लिए डिजाइन किया गया।
लेकिन, विडंबना यह है कि पैकेज निर्माण में स्थानीयता व पारंपरिकता का ध्यान नहीं रखा गया। पैकेज में विभाग, मद या योजना के लिए स्थानीय स्तर से किसी से सुझाव नहीं मांगा गया, सीधे केंद्रीय स्तर से योजनाएं बनाई गईं। इसमें कृषि, सिंचाई व बागवानी सहित 11 विभागों की योजनाओं पर फोकस किया गया।
सिंचाई विभाग ने कुओं, नहरों या चेकडैम का लक्ष्य रखा। यह सब पहले से तय था, लेकिन गांव की जरूरत या प्राकृतिक हालात पर ध्यान नहीं दिया गया। करोड़ों खर्च करके मंडियों का निर्माण तो कर दिया गया, लेकिन इसमें अनाज कहां से आएगा, इस पर विचार नहीं किया गया। पूरे पैकेज में जनता से दूरी और पर्यावरण मानकों की घोर अनदेखी की गई, जिसके कारण भी यह पूरी तरह से असफल हो गया।
शोपीस बनीं ग्रामीण मंडियां
बुंदेलखंड पैकेज से करोड़ों रुपए खर्च करके 163 ग्रामीण अवस्थापना केंद्र का निर्माण कृषि उपज मंडी समिति द्वारा कराया गया है। प्रत्येक मंडी की लागत करीब 2 करोड़ रुपए है, लेकिन बनने के बाद सभी मंडियां बंद हैं। बुंदेलखंड के सात जिले यानी झांसी, ललितपुर, जालौन, महोबा, चित्रकूट, बांदा और हमीरपुर में 143 मंडियां बनाई गईं हैं।
मंडियों के निर्माण का मुख्य उद्देश्य किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाना है। हर जिले में मंडियों का निर्माण इस प्रकार किया गया है कि यह गांव के 10 किलोमीटर के दायरे में है। वर्तमान में बुंदेलखंड में हर जिले में बड़ी मंडी है, लेकिन झांसी व महोबा की मंडी दूसरे जनपदों की अपेक्षा ज्यादा बड़ी है, जिस कारण से किसान यहीं उपज बेचना पसंद करते हैं। सरकार का मानना है कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलत, जिस कारण से किसान औने-पौने दामों पर अपनी उपज को बिचैलियों को बेच देते हैं।
उम्मीद थी कि मंडियों के बनने से किसान अपनी उपज अपने गांव के नजदीक बेच सकेंगे और उन्हें अच्छी आय होगी। लेकिन, हालात ठीक उल्टे हुए, जिन्हें देख किसान खुद को ठगा सा महसूस करता है। नई बनी मंडियों में किसान अपनी उपज बेचने जाता है तो उसे आढ़तिया ही नहीं मिलता।
बुंदेलखंड के झांसी जिले के 24 गांवों में ये मंडियां बनी हैं, जो हमेशा बंद रहती हैं। अंबाबाय और पुनावलीकलां में बनी मंडियां दो साल पहले मंडी समिति को हैंडओवर हो चुकी हैं। रक्सा और दतिया को जोड़ने वाली सड़क पर रक्सा से पांच किलोमीटर दूर मुख्य रोड पर ही ग्रामीण अवस्थापना निधि से मंडी का निर्माण कराया गया है। मंडी का निर्माण 28 फरवरी 2013 में ही पूरा हो गया। इसकी निर्माण लागत 1.56 करोड़ रुपए आई। इसमें चार दुकानें बनाईं गईं हैं। दुकानें भी सभी को आवंटित हो चुकी हैं लेकिन, खुलती नहीं हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह खेती का न होना है। मंडी को चोरों से बचाने एवं रखवाली के लिए आठ-आठ घंटे की शिफ्ट में तीन चौकीदार रखे गए हैं। चौकीदार रामतीरथ का कहना है कि यहां कोई आता ही नहीं, इसलिए वह इसे हमेशा बंद रखते हैं।
अंबाबाय गांव के पास बनी मंडी के बारे में किसान रामबहोर का कहना है कि जनप्रतिनिधियों ने इन मंडियों की ओर ध्यान ही नहीं दिया, जिसके कारण ये मंडियां वीरान हो गईं हैं। मंडियों की सुरक्षा चौकीदारों के भरोसे है। आम किसान को इसका कोई भी फायदा नहीं मिल सका है। किसानों का कहना है कि यह मंडी साल में एक दो बार ही खुलती हैं। वनगुवां गांव के किसान सुनील सिंह कहना है कि मंडियों को बनाने से पहले क्षेत्र के आम किसानों से कोई बातचीत नहीं की गई।
सरकार को समझ में आया तो मंडी बना दी, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि जब किसान के पास अनाज ही नहीं है तो वह बेचेगा क्या? सारी योजनाएं ऊपर से ही थोप दी गईं। उनका कहना है कि बड़े कास्तकारों का अनाज ही इन मंडियों में खरीदा जाता है। हम जैसे छोटे कास्तकारों को उल्टे पांव लौटा दिया जाता है। यह मंडी कब खुलती है, पता ही नहीं चलता है। इसका कोई फायदा आम किसानों को नहीं है। क्षेत्र में पानी की बहुत कमी है। इस पर पैकेज में किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं की गई है। बस सरकार ने मंडी बना दी। यह हमारे किसी काम की नहीं है।
अंबाबाय गांव के किसान महेश राजपूत बताते हैं कि हमारा क्षेत्र मध्य प्रदेश की सीमा से सटा हुआ है। बुंदेलखंड की मुख्य पैदावार गेहूं है, जिसका मूल्य मध्य प्रदेश में ज्यादा मिलता है। ऐसे में यहां के किसान मध्य प्रदेश में ही गेहूं बेचना ज्यादा पसंद करते हैं। यहां की मंडियों में क्यों बचेंगे?
पहली बारिश में ही नहर टूटी
मध्य प्रदेश के जिले टीकमगढ़ में बुंदेलखंड पैकेज के तहत जामनी नदी पर गांव हरपुरा से लेकर मडिया तक नहर का निर्माण किया गया है। 45.8 किलोमीटर लंबी इस नहर के लिए 37.95 करोड़ रुपए का बजट स्वीकृत किया गया। वर्ष 2011-12 से शुरू हुआ निर्माण का कार्य 15 जून 2016 को पूरा करना था, लेकिन यह 2017 तक पूरा नहीं हुआ।
वहीं, घटिया निर्माण सामग्री के चलते 2016 में पहली ही बारिश में बोरी, शिवराजपुर, पडवार के पास नहर टूटकर बह गई है। इसकी जांच आज तक नहीं कराई गई। बांदा के सामाजिक कार्यकर्ता आशीष कुमार बताते हैं कि नहर टूटने की खबर कई अखबारों में प्रकाशित हुई, लेकिन प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।
हमीरपुर के कुरारा ब्लॉक के खंडोर गांव में हैंडपंप के चारों ओर सोकपिट का निर्माण गया, लेकिन, निर्माण के बाद ही ये ध्वस्त हो गए। गांव वाले बताते हैं कि सोकपिट के निर्माण में घटिया निर्माण सामग्री का प्रयोग किया गया था। बुंदेलखंड सहित देश के दूसरे हिस्सों में पानी व सूखा मुक्ति पर वर्षों से कार्य कर रहे जल, जन जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय समन्वयक संजय सिंह का कहना है कि बुंदेलखंड में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार, योजनाओं का नियोजन नहीं किया गया।
इस कारण है कि यहां की जरूरत के हिसाब से योजना नहीं बनी। पैकेज वरदान साबित हो सकता था, अगर यहां की परंपरागत जल संरचनाओं का पुनरोद्धार कर दिया गया होता। पैकेज में ऐसी बहुत सी परियोजना शामिल की गईं, जिनमें लागत अधिक और लाभ बहुत कम था। आधारभूत संरचनाओं के विकास के नाम पर मंडी जैसे बड़े निर्माण जैसे बड़े प्रोजेक्टों को बनाया गया।
जबकि यहां उत्पादन वृद्धि के लिए सिंचाई और कृषि में नवाचार के तौर पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया। पैकेज में अनयिमितता को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने बुंदेलखंड पैकेज निगरानी कमेटी का गठन किया। इसका अध्यक्ष वकील व सामाजिक कार्यकर्ता भानू सहाय को बनाया गया। पैकेज में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर केंद्र व राज्य सरकार के खिलाफ उन्होंने ने धरना प्रदर्शन किया, लेकिन नतीजा शून्य निकला। योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष मांटेक सिंह अहलुवालिया ने कई बार बुंदेलखंड का दौरा कर अनियमितताओं की जांच की और कई अफसरों को सस्पेंड करने तक की संस्तुति की, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
बुंदेलखंड पैकेज को जमीन पर उतारने वाले पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन आदित्य कहते हैं कि तत्कालीन केंद्र सरकार ने बुंदेलखंड पैकेज के क्रियान्वयन में भरपूर मदद की, लेकिन राज्य सरकार ने काफी अनदेखी। योजना को केंद्र भेजता है, लेकिन उसके सही क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य की है, जिसमें उसने लापरवाही की। बाद के समय भी किसी भी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया।